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निज़ाम फतेहपुरी–दोहा–002

1
जो पेड़ तुम लगा रहे, फल लगने के बाद। 
खा पाए गर तुम नहीं, खाएगी औलाद॥
2
काल-चक्र का खेल है, गीदड़ भी अब शेर। 
बदलेगा जब फिर समय, होंगे सब ये ढेर॥
3
सच है सिर्फ़ मौत यहाँ, बाक़ी सब है झूठ। 
हँस कर जीलो ज़िंदगी, कब जाए ये रूठ॥
4
ख़ाकी का जो मान था, कहाँ गया वो मान। 
लालच में पड़ गिर गई, देखो इसकी शान॥
5
काला कोट दाग नहीं, ख़ाकी में सब दाग। 
अपने कर्म सुधार सब, जाग सके तो जाग॥

—निज़ाम फतेहपुरी

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