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फीजी-हिंदी उपन्यासकार प्रो. सुब्रमनी से एक संवाद 

हिंदी भाषा और संस्कृति के वैश्विक प्रचार-प्रसार और संवर्धन में प्रवासियों भारतीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लगभग दो शताब्दी पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में गिरमिटिया मज़दूरों के रूप में ले जाए गए इन म्ज़दूरों ने अपने मातृदेश को ह्रदय में बसाए रखकर अपने नए गृहदेश की समृद्धि के विकास की अपार संभावनाएँ पैदा कीं। संघर्ष के वातावरण और वहाँ पहले से विद्यमान सामाजिक संरचना में सामंजस्य स्थापित करते हुए ये भारतवंशी शिक्षाविद, साहित्यकार, प्रशासनिक अधिकारी और देश की सत्ता के महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के रूप में विशिष्ट पहचान बनाने में समर्थ हुए और देश के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और साहित्यिक परिदृश्य निर्माण में महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरे। प्रोफ़ेसर सुब्रमनी की गणना फीजी के उन अग्रणी पंक्ति के इतिहाकारों, साहित्यकारों और शिक्षाविदों में होती है, जिनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व आये थे लेकिन आज वे अपनी कर्मठता, परिश्रम और अद्भुत जीवटता के बल पर देश के प्रभावी और अतिविशिष्ट व्यक्तियों की शीर्षस्थ पंक्ति में अपना स्थान रखते हैं। अंग्रेजी भाषा के प्रोफ़ेसर और सामान्यतया अंग्रेजी भाषा में ही अपना लेखन कर्म करने वाले प्रो. सुब्रमनी के फीजी हिंदी में लिखे ‘डउका पुराण’ और ‘फीजी माँ’ वैश्विक हिंदी मंच पर मील के पत्थर माने जाते हैं। फीजी हिंदी (फीजी हिंदी का स्थानीय रूप, जिसे फीजीबात कहा जाता है) में दो अति महत्वपूर्ण वृहदाकार उपन्यास सृजित करके प्रो. सुब्रमनी ने फीजी हिंदी के लिए स्थापित उन मिथ्या मान्यताओं को खंडित किया जो उसे टूटा-फूटा- अव्याकरणिक, अमानक और हेय सिद्ध करती थीं। अपनी सृजनात्मक दक्षता के बल पर सुब्रमनी ने फीजी हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता और भाषिक सौन्दर्य के उन अछूते पक्षों को साहित्यकारों के सामने रखा जिससे अधिकांश लोग अपरिचित थे। यह हिंदी को वैश्विक मंच पर प्रतिस्थापित करने हेतु भारतवंशी प्रो सुब्रमनी का विजयी शंखनाद था। प्रो. सुब्रमनी का डउका पुराण और 1026 पृष्ठों में लिखा ’फीजी माँ’ उपन्यास भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के त्रासदपूर्ण जीवन, उनके रीति-रिवाज, परम्पराओं, जीवन शैली और दूर देश में सिमटती –ठहरती, संभलती, संवरती भारतीय परम्परा और संस्कृति का एक जीवंत और अनूठा दस्तावेज कहा जा सकता है। उपन्यास के माध्यम से सुब्रमनी ने उस पुरातात्विक भाषा को पुनर्जीवित करने की सार्थक पहल की है जो इन भारतीयों की अपनी भाषा है, जिसमें उनका अपना जीवन है और इस जीवन को गति देने वाली उनकी अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा और अपने संस्कार हैं। स्नेहिल और मृदु स्वभाव वाले प्रो. सुब्रमनी से बहुत ही सौहार्द पूर्ण वातावरण में उनके साहित्य और जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दों पर लंबी बातचीत हुई, जिसके कुछ महत्वपूर्ण अंश यहाँ प्रस्तुत हैं —

 

डॉ. नूतन पाण्डेय

फीजी एक ऐसा देश है जहाँ लगभग 150 साल पहले, भारत के विभिन्न प्रांतों के लोग गिरमिटिया मजदूर बनकर आए और यहीं के होकर रह गए। अपनी मातृभूमि से दूर इस अनजान देश में अपनी पहचान के इन गिरमिटिया मजदूरों ने न केवल अपनी भाषा और संस्कृति का प्रचार प्रसार किया बल्कि इसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी हस्तांतरित किया। प्रो.सुब्रमनी जी, सबसे पहले हमारे पाठकों को ये बताइए कि भारत के किस प्रांत से आपके पूर्वज यहाँ आए थे और उन्हें किस प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ा था?

प्रो. सुब्रमनी

नूतन जी, मुझे अच्छा लगा कि आपने साहित्यिक संवाद के लिए पहल की। मेरा भारत के साथ घनिष्ठ संबंध है, हालांकि गिरमिटिया व्यवस्था के कारण हमारे भारत के साथ सीधे रूप से स्थाई संबंध नहीं रह पाए। मेरे पिता केरल के मालाबार जिले से थे, वे सन 1912 में गंगा जहाज़ से फीजी में चीनी बागान में काम करने के लिए भर्ती हुए थे। उनका नाम रमन था। कहने को तो दस्तावेज़ों में वे एक कृषक के रूप में पंजीकृत थे, लेकिन वे शारीरिक रूप से सुदृढ़ नहीं थे इसलिए खेतों में काम करने के लिए सक्षम नहीं हो सके। एक और बात मैं आपसे  बताना चाहता हूँ कि साधारणतया लोगों की धारणा यह है कि फीजी में आने वाले सभी गिरमिटिया मज़दूर निरक्षर थे, लेकिन इस आम धारणा के विपरीत, मेरे पिता मलयालम भाषा पढ़ और लिख सकते थे, इसका कारण शायद यह रहा होगा कि वे एक ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। वे अपने साथ कुछ किताबें भी लाए थे जिन्हें लंबे समय तक हमने अपने घर में संभालकर रखा था। चूँकि पिताजी गन्ने के खेतों में काम करने में सक्षम नहीं थे इसलिए उन्हें एक ओवरसियर के बंगले में काम करने के लिए लगा दिया गया। जहाँ वे ओवरसियर के परिवार के लिए भोजन बनाते, घर का काम करते और बगीचे की देखभाल करते थे। यहाँ आने के बाद वे  भारत कभी वापिस नहीं जा सके और धीरे-धीरे केरल में परिवार के साथ उनका संबंध भी ख़त्म हो गया। 

उन्होंने लचिमी नाम की एक स्थानीय फीजी भारतीय महिला से शादी की । इससे उनकी पाँच बेटियाँ हुईं और मैं बेटे के रूप में तीसरी संतान के रूप पैदा हुआ था। मैं उनका एकमात्र पुत्र था और उनका मानना था कि मैं भगवान शिव की उपासना और ईशकृपा से उन्हें प्राप्त हुआ था। इसीलिए मेरा नाम रखा गया – सुब्रमनी। इस प्रकार मेरे जन्म के साथ एक रहस्यमय और आध्यात्मिक तत्व जुड़ा हुआ है, जिसके कारण मैं स्वयं को कुछ विशेष अनुभव करता हूँ और सच में देखा जाये तो खुद को विशिष्ट अनुभव करना किसी भी रचनात्मक व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नूतन जी, परिवार के परिचय से आपने इस बात का अनुमान तो लगा ही लिया होगा कि मेरा प्रारंभिक जीवन बहुत अभावों में बीता होगा। मेरे लिए यह अति दुर्भाग्यपूर्ण था कि किशोरावस्था में ही, जब मेरी उम्र तेरह साल की थी, पिता की मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के बाद मुझे घर की देखभाल के लिए और स्कूल की फीस, किताबों, यूनिफॉर्म खरीदने के लिए चावल के खेतों में काम करना पड़ा था। सरस्वती माता और परमात्मा की असीम कृपा मुझ पर थी, धीरे-धीरे मेरी गिनती स्कूल के प्रतिभाशाली छात्रों में होने लगी और मेरी अलग पहचान बनी, जिसके परिणामस्वरूप फीजी तथा अन्य देशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। मेरे पिता ने मुझे मलयालम सिखाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन मैंने इस विषय पर इतना ध्यान नहीं दिया क्योंकि मैं जीवन में आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी सीखने में रुचि लेने लगा था और उस समय वातावरण भी अंग्रेजी का था। हालाँकि, मैंने स्कूल में और लाबासा की स्थानीय रामायण मण्डली में हिंदी सीखी। यहाँ मेरी रुचि रामचरितमानस पढने में पैदा हुई। इस कारण जब मैंने आगे चलकर हिंदी में उपन्यास लिखने प्रारंभ किये तो मेरी लेखन शैली पर रामचरितमानस का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। वास्तव में मैंने हिंदी में अपना पहला उपन्यास तब लिखा था जब मैं हाईस्कूल में था। हालाँकि यह सच है कि मेरे पिता कभी भारत नहीं लौटे, लेकिन मैं नियमित रूप से भारत जाता रहता हूँ। मैंने गुजरात के एक विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी है, और आंध्र प्रदेश में मैं एक अतिथि प्रोफेसर भी हूँ। मुझे अक्सर विभिन्न सेमिनारों और सम्मेलनों में व्याख्यान देने और सम्मानित करने के लिए भारत आमंत्रित किया जाता है। अभी पिछले साल (2018) भी मैंने भोपाल में एक सम्मेलन में भाग लिया था। इसके साथ ही नए प्रकाशित हिंदी उपन्यास फीजी माँ: एक हजार की माँ का  लोकार्पण समारोह दिल्ली में भव्य कार्यक्रम मे संपन्न हुआ था ।

डॉ. नूतन पाण्डेय

दुःख और अपमान भरे कठिन समय में संघर्षों का सामना करने और अपना आत्मविश्वास  बनाए रखने की ताकत और प्रेरणा आपको कैसे और कहाँ से मिली?

प्रो. सुब्रमनी

नूतन जी, इस सवाल का सबसे अच्छा उत्तर यही हो सकता है कि जैसे सोना तपकर ही निखरता है वैसे ही कठिन परिस्थितियों ने मुझे स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बना दिया। मुझे फीजी और विदेशों (न्यूजीलैंड, कनाडा, हवाई, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका) में अध्ययन को जारी रखने के लिए छात्रवृत्ति की आवश्यकता थी और इसे पाने के लिए हर समय मुझे सर्वोच्च स्थान पर बने रहना था और इसके लिए मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। मैं अपनी मातृभूमि, फीजी के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहूँगा, जिसने मुझे एक अप्रवासी मज़दूर के बेटे को अंग्रेजी का प्रोफेसर और एक लेखक बनने के सभी अवसर प्रदान किए। ऐसे उदाहरण दुनिया में आसानी से कहीं भी देखने को नहीं मिलते। 
और रही आपकी दूसरी बात, जो आपने अस्मिता के संरक्षण के बारे में कही है तो इसके बारे में मेरा यही कहना है कि हिंदी को अच्छी तरह से जानते हुए और रामचरितमानस का पाठ पढ़ते हुए मुझे अपनी पहचान खोजने के लिए बिलकुल भी संघर्ष नहीं करना पड़ा। मैं इस तथ्य से भली भांति परिचित था कि मैं कौन हूँ? मैं दुनिया में जहाँ भी रहूँ, अपने समुदाय और अपने देश की सेवा करने के लिए बार-बार फीजी लौटता हूँ। फीजी ने मुझे  पहचान दी है और सदैव मेरा आध्यात्मिक समर्थन भी किया है। स्वाभाविक रूप से भारत मुझे बहुत प्रिय है। पिछले नवंबर (2019) में मैं अपना उपन्यास ’फीजी माँ’ का लोकार्पण करने के लिए भारत गया था, जहाँ दिल्ली में आप लोगों, दोस्तों और प्रशंसकों ने मेरा बहुत गर्मजोशी से स्वागत और सम्मानित किया। मुझे अपने दोस्तों का इतना स्नेह और प्रेम मिला, जिस कारण मैंने अपने दिल की गहराइयों से यह अनुभव किया कि मैं वास्तव में भारतीय ही हूँ, भारतवासियों का अपना हूँ।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आपने अभी बताया कि आपका बचपन और शिक्षा-दीक्षा का समय बहुत संघर्षपूर्ण रहा, पिता की असामयिक मृत्यु के बाद, आपको पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करना पड़ा। ऐसी कौन सी मानसिक स्थिति थी, जिसने आपको जीवन के शीर्ष पर पहुँचने में मदद की ? 

प्रो. सुब्रमनी

मुझे लगता है कि आपकी इस जिज्ञासा का समाधान मेरे पहले वाले उत्तर से हो गया होगा। मैंने अपनी आत्मकथा के From the Web of Memory into Forgetting नामक एक खंड में अपने इस अनुभव के बारे में लिखा है, जिसे Altering Imagination(1995) नामक  पुस्तक में प्रकाशित किया गया था। यद्यपि मेरा जीवन संघर्षपूर्ण था, फिर भी मैं इसे आसानी से और प्रभु कृपा से पार करने में कामयाब रहा। मुझे इस बात का भी संतोष है कि मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में सक्षम रहा और मैंने अपने परिवार, अपने लोगों और अपने देश के लिए वह सब किया जो मैं उनके लिए कर सकता था। मैंने अपने जीवन में जो भी हासिल किया उसे अपने  लेखन के माध्यम से अपने देश और अपने लोगों को वापस करना चाहता हूँ।

डॉ. नूतन पाण्डेय

मैंने पढ़ा है कि आपके पिता आपको पढने के लिए विभिन्न विषयों की किताबें दिया करते  थे और आप उन्हें बहुत जल्दी पढ़कर उनसे दूसरी नई किताबें माँगने  लगते थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि पिताजी द्वारा उत्पन्न की गई किताबों के प्रति इस रुचि ने आपको लेखक बनने के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार करने में सहायता की?

प्रो. सुब्रमनी

नूतन जी, जैसा मैंने आपको पहले भी बताया था कि मेरे पिता गन्ने के खेतों में काम करने के लिए उपुयक्त व्यक्ति नहीं थे, वे खेतों का कठोर जीवन नहीं झेल सकते थे, और इसलिए उन्हें कुक और गार्डनर के रूप में काम करने के लिए रखा गया था। वहाँ जो किताबें कूड़े के रूप में फेंक दी जाती थीं, वे उन किताबों को इकट्ठा करते रहते थे। ये किताबें वे अपने इकलौते बेटे के पढ़ने के लिए सँभालकर रखते थे। उनमें बहुत सी किताबें ऐसी भी होती थीं जो वयस्कों के लिए होती थीं और एक बच्चे के रूप में मुझे उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए था। उनमें से बहुत सी बातों का मतलब मुझे समझ भी नहीं आता था लेकिन मैं उन्हें भाषा की ध्वनि और शब्दों का आकार समझने के लिए बस वैसे ही पढ़ जाता था। एक लेखक के लिए यह एक प्रकार से बहुत ही बढ़िया प्रारंभिक प्रशिक्षण के समान था। पिता की प्रेरणास्वरूप मेरी  पढने के प्रति गहरी रुचि पैदा हुई और मैं पूरी समर्पण भावना से आज भी पढ़ता रहता हूँ। इसके अलावा रामचरितमानस के प्रभाव के कारण भी मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सफलतापूर्वक लिख पा रहा हूँ। दो भाषाओं में लिखने से मुझे दो भिन्न साहित्यिक परंपराओं और संस्कृतियों का लाभ मिलता है। मुझे लगता है कि मेरे लेखन को विशेष पहचान ही दो भाषाओं  में एक साथ काम करने से मिलती है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

कृष्णा दत्त, जो देश की राजनीति के एक महत्वपूर्ण और प्रभावी घटक सिद्ध हुए हैं, वे बचपन से आपके  दोस्त रहे हैं, आपके जीवन में उनकी मित्रता के क्या मायने रहे हैं ?

प्रो. सुब्रमनी

लबासा में कृष्ण दत्त और मैं एक साथ बड़े हुए। उनके पिता एक दुकानदार थे, और मेरे पिता एक गिरमिटिया मजदूर, इसलिए हम सामाजिक रूप से भिन्न भिन्न स्तर के अवश्य थे, लेकिन शिक्षा के माध्यम से हम एक दूसरे के क़रीब आये। उसकी दोस्ती ने मुझे जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुत प्रेरित किया। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए किताबें दीं, और कक्षा में स्वस्थ प्रतियोगिता का वातावरण भी उत्पन्न किया। जब हमने विश्वविद्यालय के प्रवेश के लिए राजधानी शहर सुवा में अध्ययन किया था तो हम एक ही कमरे में रहते थे, बाद में अपनी डिग्री करते हुए हमने न्यूजीलैंड में एक अपार्टमेंट भी साझा किया। हमारे मध्य आपसी  समझ, सम्मान और प्रशंसा की भावना थी। हमने लाबासा में एक साथ उस हाईस्कूल में भी पढ़ाया था, जहाँ हम एक साथ बड़े हुए थे, फिर उसके बाद हम दोनों के रस्ते अलग हो गए, उसने अपने लिए राजनीति का चयन किया और मैंने  पढ़ाना और अपना लिखना जारी रखा। कभी-कभी मुझे इस बात का अफ़सोस होता है कि हम एक दूसरे को उतना समय नहीं दे पाते, जितना हमें देना चाहिए था ।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आप फीजी के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं, क्या कभी राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेकर देश की सेवा करने का विचार मन में नहीं आया? 

प्रो. सुब्रमनी

मैं राजनीति को कुछ हद तक अस्थायी या दूसरे शब्दों में कहूँ तो, अंशकालिक मानता हूँ। मैं साहित्य के माध्यम से समाज को अपना योगदान देना चाहता हूँ। जिन मुद्दों के बारे में मैं लिखता हूँ, वे मेरे समुदाय के मध्य संवाद स्थापित करने और उनसे जुड़ने  का एक बेहतरीन तरीका है। एक लेखक के रूप में मुझे अक्सर जनता को अपना उद्बोधन देने, उन्हें संबोधित करने और अपने मंतव्य उनके समक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया जाता है जो परस्पर संवाद को आगे ले जाने, बढ़ाने का एक प्रभावी तरीका है। मैंने फीजी के शिक्षा आयोग में भी सेवा की है, फीजी के लिए एक उपयुक्त संविधान निर्माण के लिए परामर्शदाता के रूप  में भी भाग लिया है और कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री सलाहकार समिति का हिस्सा भी रहा हूँ। आप कह सकती हैं कि मैं पूर्णतया प्रतिबद्ध हूँ, लेकिन मैं खुद को दलगत राजनीति का हिस्सा नहीं बना सकता। मेरा मानना ​​है कि पढ़ना और लिखना अनिवार्य रूप से वे राजनीतिक गतिविधियाँ हैं जिनका उद्देश्य लोगों के मन और आत्मा को आधुनिक और उदारवादी दृष्टिकोण प्रदान करना है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आपके ‘डउका पुराण’ और ‘फीजी माँ’ दोनों उपन्यास विश्व साहित्य के इतिहास में मील के पत्थर हैं और शास्त्रीयता के मानदंड पर खरे उतरते हैं। आज ये उपन्यास देश और काल की सीमाओं को पारकर सार्वभौमिक बन गए हैं। सबसे पहले आपके ‘डउका पुराण’ के बारे में बात करते हैं, ‘डउका पुराण’ के लिए आपको विदेश मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर विश्व हिंदी सम्मान भी मिला है। इस उपन्यास के केंद्रीय चरित्र फीजी लाल के माध्यम से आपने उपन्यास की घटनाओं की कथा को बुना है और देश के विविध परिदृश्यों का मूल्यांकन और विश्लेषण भी किया है। विस्तार से बताएं कि इस उपन्यास को आपने मूर्त रूप कैसे दिया? 

प्रो. सुब्रमनी

बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि मेरा पहला रचनात्मक प्रयास एक उपन्यास के रूप में था जिसे मैंने सोलह वर्ष की उम्र में हाईस्कूल में हिंदी में लिखा था। अच्छा  ही हुआ कि आज वह मेरे पास नहीं है। डउका पुराण एक तरह से उस सैद्धांतिक सोच के परिणामस्वरूप रचा गया है जो साहित्य में फिक्शन का प्रतिनिधित्व करता है। इतिहासकार ज़्यादातर महान पुरुषों और महिलाओं के बारे में लिखते हैं, जबकि कथा लेखक उन छोटे-छोटे  लोगों के बारे में लिखना पसंद करते हैं जो इतिहास की किताबों से बाहर कर दिए गए हैं और हमेशा से उनकी अनदेखी की जाती रही है। सिद्धांतवादी ऐसे छोटे लोगों में से कुछेक को सबाल्टर्न मानते हैं, जिनकी उपस्थिति समाज में नगण्य होती है, जिनकी कोई आवाज़ नहीं होती या जिनमें विरोध करने का कोई साहस नहीं होता। चूँकि इस वर्ग के लोग अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते इसलिए श्रेष्ठ लोगों द्वारा उनका नेतृत्त्व और प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए। मेरे उपन्यास का प्रमुख पात्र फीजीलाल एक सबाल्टर्न हैं जो न केवल मुखर (अपनी भाषा में) है, बल्कि एक लाजवाब कहानीकार और एक पौराणिक कथाकार भी हैं। डउका एक दुष्ट और दुस्साहसी व्यक्ति है जो आधारहीन है। फीजीलाल मानता है कि व्यक्ति का यह सिर्फ एक सतही विवरण है; उसका बाहरी आवरण है, जिसके भीतर चरित्र की अनेक परतें होती हैं जो अनुकूल समय  और परिस्थिति पाकर अनावृत होती रहती हैं । फीजी के विभिन्न स्थलों के भ्रमण के माध्यम से फीजीलाल की यात्रा उस तीर्थयात्रा के समान है जो देश के दिल तक पहुँचती है । अपने इस उपन्यास को रचते समय मैं पहली बार खुद को अंग्रेजी भाषा में लेखन के प्रति असंतुष्ट अनुभव कर रहा था, क्योंकि ये ऐसा वातावरण था जहां मेरे आसपास ऐसे पात्र थे जो बोलते और सपने देखते तो एक भाषा में (हिंदी) थे लेकिन उनको अभिव्यक्त दूसरी भाषा (अंग्रेजी) में कर रहते थे। इसलिए यह पूर्णरूपेण स्पष्ट असहमति का संकेत था। जब आप वाइल्ड फ्लावर्स (2016) में संगृहीत मेरे कथा साहित्य को पढ़ेंगी तो गौर करेंगी कि इसमें बहुत कम संवाद हैं और कहानियाँ जरूरत से ज़्यादा गंभीर हैं। मैं इस उपन्यास के साथ उस तरह की चकाचौंध से दूर रहना चाहता था और संवादों से भरी एक ऐसी किताब लिखना चाहता था जिसमें हास्य व्यंग्य और मस्ती प्रचुर मात्रा में हो। और यह तभी संभव था, जब मैं फीजी इंडियन्स की मातृभाषा फीजी हिंदी में उपन्यास लिखता और मैंने ऐसा किया। मुझे इस उपन्यास को लिखने में बहुत मज़ा आया। 
इस उपन्यास को लिखते समय मुझे इस महत्वपूर्ण बात का भान भी हुआ कि जिस समाज का मैं अपने उपन्यास में चित्रण करने जा रहा हूँ, उसकी बहुत सारी बातों का न तो अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है और न उसके लिए समान अभिव्यक्तियाँ ही ढूँढी जा सकती हैं। आप समझ सकती हैं कि वर्नाकुलर भाषाओँ में लिखने का मेरा सिर्फ एक ही उद्देश्य था और वह ये कि देश में इन भाषाओँ का प्रचार-प्रसार हो सके। ऐसा करने से हम न केवल इन प्राचीन भाषाओँ के बारे में जानकारियाँ हासिल कर पायेंगे बल्कि इसके माध्यम से पाठकों को एक अलग तरह का ही बौद्धिक समाज और जीवन देखने को मिलेगा जो अभी तक एक उनकी नजरों और दिल से अदृश्य था। फीजी हिंदी लिखकर मैं सबको यह दिखाना चाहता था कि फीजी हिंदी में न केवल लिखा जा सकता है, बल्कि बहुत ही बेहतरीन  ढँग से लिखा जा सकता है। यह वह समय था जब वर्ड प्रोसेसर की सुविधा सामान्य रूप से उपलब्ध नहीं थी और इसलिए मुझे इस उपन्यास को लगभग चार बार हाथ से लिखना पड़ा, पूरे 500 पृष्ठ!

डॉ. नूतन पाण्डेय

प्रो. सुब्रमनी जी हम यह जानना चाहते हैं कि ‘डउका पुराण’ उपन्यास लिखने के पीछे आपका खास उद्देश्य और मूल प्रेरणा क्या रही?

प्रो. सुब्रमनी

जैसा मैंने आपको पहले भी यह बताया था कि यह उपन्यास उन लोगों को समर्पित है जो साहित्य ही नहीं इतिहास तक में हाशिये पर डाल दिए थे, यहाँ तक कि देश की राजनीति में भी ऐसे लोगों का अस्तित्व कुछ भी नही था। इसलिए मेरा प्रयास यह रहा है कि इस वर्ग को हाशिये से बाहर लाने के लिए उनकी भाषा में लिखा जाए, उनको अपनी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसर प्रदान किए जाएँ। मेरा यह उपन्यास उस वर्ग के बारे में है, जो अपनी कहानी खुद कहना चाहता है, अपनी भाषा में फीजी की पुनर्खोज करना चाहता है। उपन्यास में फीजी हिंदी के माध्यम से फीजियन भारतीयों की संस्कृति को भीतर तक जानने की अपार संभावनाएँ हैं, जिन्हें अंग्रेजी के माध्यम से जाना नहीं जा सकता था। स्वाभाविक रूप से उनके खानपान से लेकर सेक्स तक, उनके रहन सहन, परम्पराओं, दैनिक कृत्यों तक को उनकी भाषा के अलावा किसी अन्य माध्यम से बेहतर ढँग से नहीं जाना जा सकता। इसके साथ ही बहुत से अवांछित मुद्दों पर व्यंग्य भी किया जा सकता है, खुलकर उनका मज़ाक भी उड़ाया जा सकता है । 

डॉ. नूतन पाण्डेय

आलोचनात्मक दृष्टि से ‘डउका पुराण’ उपन्यास एक बहुत ही विशिष्ट संस्कृति का  समाजशास्त्रीय दस्तावेज है जिसमें प्रवासी, उनके रीति-रिवाजों, भाषा और उनके संघर्षों के आख्यानों को बहुत खूबसूरती से चित्रित किया गया है। फीजी साहित्य में इस अद्भुत रचना की उपलब्धि को आप कैसे देखते हैं?

प्रो. सुब्रमनी

जब मैं उपन्यास लिख रहा था तो निश्चित रूप से मुझे इन सब बातों की जानकारी नहीं थी, न मैंने इसे लिखते समय कभी इस दृष्टि से विचार ही किया था। मैं तो बस एक ऐसा उपन्यास लिखने के लिए प्रतिबद्ध था जो सौंदर्यशास्त्रीय समृद्धि से परिपूर्ण और संतुष्टिदायक हो, जो दार्शनिक और आध्यात्मिक गहराई से भरपूर हो, विषयवस्तु की दृष्टि से उसमें व्यापक अपील हो। इस लेखन के पीछे मात्र एक भावना काम कर रही थी, जिसका उद्देश्य (ज़्यादातर खुद को) इस सच्चाई को प्रदर्शित करना था कि फीजी हिंदी, जिसे पंडितों द्वारा व्याकरण और सीमित शब्दावली वाली टूटी–फूटी भाषा घोषित कर दिया गया था, उसमें मानव हृदय के अनछुए स्थलों और देश की आत्मा तक पहुँचने की क्षमता है। यह कहने को एक दिखावा भर लग सकता है लेकिन ऐसा ही कुछ था जो मेरे मस्तिष्क में काम कर रहा था। यह भी संभव है कि इस प्रक्रिया में मैंने एक पुरातात्विक भाषा का सृजन कर दिया हो, जिसमें लोगों के समाजशास्त्र को दर्शाया गया हो - जो कि ठीक भी है। मुझे खुशी है यदि ऐसा हुआ है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय

भाषा इस उपन्यास का सबसे मजबूत पहलू है। आपने अपने उपन्यास के माध्यम से न केवल फीजी हिंदी को अभिव्यक्तिपरक दृष्टि से सक्षम साबित किया है, बल्कि इसे एक सम्मानजनक स्थान भी दिया है। इस उपन्यास में आपने प्रवासियों के जीवन के विविध पहलुओं को भी बहुत संवेदनशील ढंग से संकलित किया है। क्या आपके मन में केवल फीजी हिंदी में ही उपन्यास लिखने का विचार घूम रहा था?

प्रो. सुब्रमनी

नूतन जी, यह बहुत दुखद है कि हमारे अपने लोग यह नहीं समझते  कि फीजी हिंदी क्या है और हम सबके लिए उसकी अहमियत क्या है । यह वह भाषा है जो भारत के विविध क्षेत्रों के लोगों के मध्य एक-दूसरे के साथ संवाद करने की आवश्यकता से उत्पन्न हुई है। इस भाषा का आधार अवधी है और रामचरितमानस का योगदान इस दृष्टि से अगाध और अपार है। फीजी हिंदी की जो बात उसे गतिशील और जीवंत बनाती है, वह यह है कि इस भाषा ने अंग्रेजी और ई-तऊकी भाषा (स्वदेशी लोगों) से शब्दावली और मुहावरे ग्रहण किये हैं यहाँ तक कि कुछ शब्द प्रशांत भाषाओं से भी उधार लिए हैं। मेरे सामने एक महत्वपूर्ण परियोजना फीजी हिंदी का एक शब्दकोश भी तैयार करना है। मेरे हिंदी उपन्यासों को फीजी हिंदी के ’शब्दकोशों’ के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। मेरे दोनों उपन्यासों में ऐसे पात्रों की भीड़ है जो भाषा का उपयोग अपने ही विशिष्ट अंदाज़ में करते हैं। मेरी इच्छा है कि उपन्यास के पाठकों की बहुत बड़ी संख्या हो और विभिन्न भाषाओं में इसका अनुवाद हो। मुझे आशा और विश्वास है कि अवधी क्षेत्र से या कोई भारतीय विद्वान् इन उपन्यासों का अनुवाद करेगा। लेकिन यह काम किसी भी तरह से आसान तो नहीं ही होगा। 

डॉ. नूतन पाण्डेय

प्रोफ़ेसर साहब, जब हम भाषा के बारे में चर्चा करते हैं, तो कृपया हमें बताएँ कि फीजी~  की समाजभाषिक संरचना कैसी है, कितनी भाषाओं को सरकार का समर्थन प्राप्त है? किस भाषा को लिंगुआ फ्रैंका कहा जा सकता है और फीजी हिंदी का दूसरी स्थानीय भाषाओं  से कैसा संबंध है?

प्रो. सुब्रमनी

मैं पिछले एक लम्बे अरसे से फीजी की स्थानीय भाषाओँ की वकालत कर रहा हूँ। हमने संवैधानिक पुनरीक्षण समिति के समक्ष राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में भाषाओँ की भूमिका पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। हमने वर्नाकुलर भाषाओँ को विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने के लिए भी सकारात्मक प्रयास किए हैं। अब सरकार और अन्य संस्थाएँ वर्नाकुलर भाषाओँ के महत्त्व को समझ रही हैं और इसको बढ़ावा देने के लिए योजनाएँ बना रही हैं। फीजी हिंदी का विकास ग्रामीण जिलों के बागानों में हुआ। 1987 के सैन्य तख्तापलट के बाद भारतीय किसानों को उखाड़ने के साथ-साथ भाषा भी उखड़ गई और रह गई मात्र एक उप-भाषा, लोगों की तरह जड़हीन और प्रवासी! इस भाषा का हाशिए पर आने का एक बड़ा कारण इंडो-फिजियन समुदाय के द्वारा स्वयं इसकी उपेक्षा करना रहा है। यहाँ मानक हिंदी बनाम फीजी हिंदी पर लम्बे समय से विवाद चला आ रहा है, जिससे हिंदी का विकास अवरुद्ध होना बहुत स्वाभाविक है। फीजी का संविधान तीन भाषाओं को मान्यता देता है; अंग्रेजी, ई-तउकी और हिंदी। शिक्षा प्रणाली हालांकि तीनों भाषाओं के विकास पर  समान रूप से ध्यान देने में सक्षम नहीं है। जैसा कि आप उम्मीद कर सकती हैं, अंग्रेजी समस्त शैक्षिक पाठ्यक्रम पर हावी है। ऐसे छात्रों की संख्या बहुत कम है जो देशी भाषाओं में पढ़कर उच्चस्तर तक अध्ययन करते हैं। अंग्रेजी संपर्क भाषा अवश्य है, लेकिन भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास के लिए मातृभाषा बहुत आवश्यक होती है। यदि युवा हिंदी नहीं पढ़ सकते हैं, तो वे अपनी भाषा के महान धार्मिक ग्रंथों और हिंदी साहित्य तक सीधे नहीं पहुँच सकते। मैं चाहता हूँ कि मेरा हिंदी लेखन इसी सन्दर्भ में देखा जाए, जिसमें हम मिलकर स्थानीय भाषाओँ के महत्व और मूल्य के बारे में पुनर्विचार कर सकें।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आपका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक कहानी छिपी होती है और अपनी इस सोच के कारण, आप अपनी कहानियों और उपन्यासों में बहुत ही साधारण चरित्र का निर्माण करते हैं जो चमत्कारिक रूप से अनूठे होते हैं। अपने उपन्यासों के चरित्रों को गढ़ते समय आपके दिमाग में किस प्रकार की सोच और कल्पनाशीलता होती है ?

प्रो. सुब्रमनी

नूतन जी, आपके इस प्रश्न के उत्तर में आइए फीजीलाल के पास चलते हैं। फीजीलाल को  पाकर मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत समझता हूँ। फीजीलाल परंपरागत ढंग का पात्र है, जिसे मैंने बचपन से अपने आसपास देखा है। जो कार या बस में नहीं बल्कि पैदल चलना पसंद करता है। वह पैदल ही एक गाँव से दूसरे गाँव, एक कसबे से दूसरे कसबे और फिर शहर से शहर घूमता रहता है। यही घुमक्कड़ी प्रवृत्ति ही उसके खोज का माध्यम है, यह खोज फीजी की भी है और उसके अंतर्मन की भी। उसे लोगों के घर जाना और उनके यहाँ रुकना पसंद है, यहाँ तक कि वह अजनबियों को अपना बनाकर हफ़्तों वहीँ रुक जाता है और उनके साथ अपने सुख-दुःख और गुप्त बातें साझा करता है। मुझे कहानी कहने का यह माध्यम बहुत अच्छा लगा क्योंकि बस से चलने वाले और पैदल चलने वाले व्यक्ति के साथ समाज का बिलकुल भिन्न मानवीय नजरिया होता है। प्रत्येक इंडो-फिजियन सहजता से खुद को उसके और उसके नाम के साथ जोड़कर देख सकता है। फीजीलाल  के पास अपने बारे में बताने के लिए कई रोचक कहानियाँ हैं और है कथा को अनोखे और रोचक अंदाज में कहने की शैली। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण, उसे रास्ते में बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं, जिनके पास  अपनी कहानियाँ होती हैं। लोगों को उनकी भाषा और कहानियों में रूचि भी है और जरूरत भी। कहानियों के बिना हमारी संस्कृति अधूरी कही जा सकती है। सौभाग्य से, फीजीलाल बातचीत में पटु होने के साथ एक सृजनशील चरित्र भी हैं, और उसके पास भरपूर हास्य और व्यंग्य बुद्धि है जो पाठकों के अनुभव को विशाल और समृद्ध आकाश प्रदान करती है। शुरुआती पन्ने पढ़ने पर यह उपन्यास एक गंभीर किस्म का उपन्यास प्रतीत हो सकता है लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, व्यंग्यात्मकता मारक होती जाती है। नूतन जी, मैं आपसे एक बात और शेयर करना कहता हूँ। जब मैं इस उपन्यास को लिख रहा था तो व्यंग्य के सूक्ष्म तत्वों को शब्द देने के लिए मुझे उपयुक्त अभिव्यक्तियाँ नहीं मिल रही थीं, लेकिन इस उपन्यास को लिखते समय मेरी लेखन शैली में बहुत से सकारात्मक परिवर्तन आये, जिनका प्रभाव आगे चलकर मेरी अंग्रेजी लेखन पर भी देखा जा सकता है। वास्तव में फीजी लाल मेरे लिए कुछ-कुछ  चमत्कार के समान है। यहाँ तक ​​कि जिन लोगों ने उपन्यास नहीं पढ़ा है, उन्होंने भी पौराणिक कथाओं के पात्र के समान ही फीजी लाल के बारे में सुन रखा है। फीजीलाल द्वारा  समाज के लोगों को सकारात्मक रूप से देखने के कारण ही पूरा उपन्यास सकारात्मकता को प्रवाहित करता है। मेरे मत में इसे महाकाव्यात्मक व्यंग्य उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस उपन्यास पर एक अच्छा रेडियो ड्रामा या टी वी सीरियल भी बन सकता है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आपने अपने दूसरे अति महत्वपूर्ण उपन्यास ‘फीजी माँ’ को अपने प्रेरणानायक गोस्वामी तुलसीदास को समर्पित किया है। फीजी माँ  की पूरी यात्रा का अनुभव अपने पाठकों के साथ साझा करें। 

प्रो. सुब्रमनी

फीजी माँ: Mother of a Thousand (2018) एक अतिरंजित चरित्र है जिसे दूसरे शब्दों में हम extreme type of marginalized character कह सकते हैं। उपन्यास में एक भिखारी महिला वेदमती को फीजी की राजधानी सुवा में एक बैंक के सामने बैठा चित्रित किया गया है। वहाँ से वह अपने सामने हर पल घटित होते फीजी के इतिहास को अपने आँखों के समक्ष देखती है। वह पूरे शहर और उसके निवासियों को अच्छे से जानती है। वे समय-समय पर सूचनाओं और सलाह के लिए उसके पास आते हैं- और इस तरह वह एक हजार की माँ बन जाती है। उसकी छवि मदर इंडिया से मिलती जुलती है। वह अपनी और अपने हमवतनों की कहानियाँ कहती है। यह शायद एकमात्र ऐसा उपन्यास है जो फिजी- भारतीय महिला के मनोविज्ञान का विश्लेषण करता है।

उपन्यास के केंद्र में उसकी और एक ई-तउकी (स्वदेशी) महिला की गहरी दोस्ती है। यह एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में न तो साहित्य में और न ही इतिहास में ज़्यादा पड़ताल की गई है। अधिकतर देखा जाता है कि इतिहास की किताबें हमें भारतीयों और स्थानीय लोगों के बीच दुश्मनी के बारे में तो बहुत कुछ बताती हैं लेकिन उनकी दोस्ती के बारे में नहीं। लोग भूल जाते हैं कि एक बार जब भारतीयों को ले जाने वाले जहाजों में से एक जहाज फीजी के पास एक चट्टान पर फँस गया था और बहुत सारे मज़दूर पानी में डूब गए थे, तब कुछ स्थानीय ग्रामीणों ने उस भयंकर पानी में कूदकर और अपनी जान जोखिम में डालकर बहुत से भारतीयों को बाहर निकाला था। मेरा मानना है कि साहित्य घावों को भरने के लिए उपचार का काम भी कर सकता है। हो सकता है मेरे अवचेतन मन में कहीं न कहीं उस दोस्ती के बारे में लिखने की इच्छा जागृत हुई हो। इस उपन्यास में दर्जनों महिला पात्र हैं और इसीलिए एक सवाल अक्सर नारीवादियों द्वारा पूछा जाता है, कि क्या एक पुरुष लेखक महिलाओं के बारे में प्रामाणिक रूप से लिख सकता है? कई विश्वसनीय पाठकों ने टिप्पणी की है कि उपन्यास की विशेष ताकत यह है कि लेखक महिलाओं की भावनाओं और संवेदनाओं तक पहुँचने और उन्हें छूने  में कितना सफल रहा है। मुझे याद है जब मैं बड़ा हो रहा था तो मेरे आसपास लगभग आधा दर्जन महिलाएँ थीं और मैं अकेला पुरुष था, उनकी बातें मैं हमेशा सुनता रहता था या ये कहूँ कि मेरे कानों में उनकी बातें हमेशा पड़ती रहती थीं, इसी कारण महिलाओं के मनोविज्ञान को समझने- परखने और शोध करने का यही साधन बन गया।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आप लंबे समय तक अकादमिक दुनिया से जुड़े रहे हैं। फीजी- हिंदी के विशेष संदर्भ में इस क्षेत्र में कौन से नवाचारों की उम्मीद है ?

प्रो. सुब्रमनी

मैं एक नवाचार का विशेष तौर पर उल्लेख करना चाहूँगा, जिसके साथ मैं जुड़ा हुआ हूँ –और वह है -फीजी विश्वविद्यालय में हिंदी अध्ययन संस्थान की स्थापना जहाँ मैं पढ़ाता हूँ। संस्थान का उद्देश्य केवल भाषा का शिक्षण और उस पर अनुसंधान नहीं है, बल्कि 'भाषा कार्यकर्ताओं' का प्रशिक्षण भी है, जो यहाँ से निकलकर समाज में जायेंगे, जागरूकता पैदा करेंगे, डेटा एकत्र करेंगे, समस्याग्रस्त क्षेत्रों की पहचान करेंगे, छात्रों की भर्ती करेंगे। यह संस्थान हिंदी लेखक तैयार करने और उन्हें दक्ष करने के लिए कार्यशालाएँ भी आयोजित करेगा। इन सब गतिविधियों में संस्थान का मार्गदर्शन करने हेतु भारत सरकार ने एक हिंदी चेयर स्थापित करने का वादा किया है। हो सकता है कि शब्दकोश बनाने का काम भी वहीं शुरू हो जाए।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आप “माना” पत्रिका के संपादक रहे हैं। इस पत्रिका के माध्यम से आप नवोदित लेखकों को साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करते हैं। आपकी प्रेरणा से ही कई लेखक साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। आपके लिए एक अच्छा लेखक बनने के आवश्यक गुण क्या होने चाहिए?

प्रो. सुब्रमनी

साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन ने मुझे फीजी और दक्षिण प्रशांत के लेखकों के साथ जोड़े रखा है। वह अनुभव मेरे साथ रहा। मैं नए लेखकों की पांडुलिपियाँ पढ़ता रहता हूँ, उनको संपादित करता हूँ, उनकी समालोचना, उनका मूल्यांकन भी करता हूँ। मैंने इस तरह के दर्जनों लेखकों के साथ काम किया है, उनमें से कई शैक्षिक पृष्ठभूमि के नहीं भी हैं। अभी फिलहाल मेरे साथ चार लेखक ऐसे हैं जिनकी अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने वाली हैं। मैं वर्तमान में भारत में फिजियन तीर्थयात्रियों पर एक पुस्तक संपादित कर रहा हूँ जिसमें कई लेखकों ने अपना योगदान दिया है। इस तरह के नवोदित लेखकों के साथ काम करना एक लेखक के रूप में मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है। इसका मतलब है कि मैं अपने लेखन का समय दूसरों को दे रहा हूँ। मुझे वह बहुत फायदेमंद लगता है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आजकल सोशल मीडिया लोगों के दिमाग पर अत्यधिक हावी हो रहा है, जिसके कारण समाज अपनी सामाजिकता को भूलते हुए आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया ने अपने विभिन्न माध्यमों से समाज को नुकसान पहुँचाया है? हम सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव या कहें तो इसके बुरे प्रभाव को कैसे रोक सकते हैं?

प्रो. सुब्रमनी

फीजी में, कई सामुदायिक संगठन इस बात को अनुभव कर रहे हैं कि युवावर्ग उनसे जुड़ने के लिए अनिच्छुक हैं। ये संगठन पुराने नागरिकों द्वारा चलाए जाते हैं। एक समय ऐसा भी था जब ये संस्थाएँ युवाओं की ऊर्जा और कल्पना से परिचालित होती थीं और इन संगठनों का निर्माण करती थीं। स्थिति इस कारण बिगड़ी है कि आज के युवाओं को पढ़ना और लिखना ज़्यादा पसंद नहीं है। हम एक तरह से 'निरक्षरता' के सांध्यकाल में जी रहे हैं। यह एक वैश्विक घटना है। लोग अब क्षणभंगुर सुखों की तलाश कर रहे हैं और आज के मीडिया में बहुत सारे अविवेकपूर्ण दोष हैं। नया मीडिया मानव मस्तिष्क को नए तरीके से फिर से तार-तार करने का कारण बन रहा है। मुझे इस परिस्थिति का सामना करने वाला कोई मजबूत प्रतिरोध नहीं दिखता। नई रोबोट संस्कृति मानवता को एक अज्ञात दुनिया में धकेल रही है जहाँ से पीछे हटना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। 
जैसा मैंने कहा भी कि इंटरनेट के तीव्र प्रसार ने शोध अध्येताओं और पाठकों को पुस्तकों से दूर कर दिया है। आधुनिक  समय गूगल वर्सेज गुरू का है। तकनीकी के विकास ने संपूर्ण विश्व में लिखने और पढ़ने की प्रवृत्ति को बड़ा नुकसान पहुँचाया है। इस नुकसान को दूर करने में  विश्वविद्यालय भी अवश्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं जिनका सबसे बड़ा सांस्थानिक उद्देश्य सत्य का उद्घाटन करना है और सत्य की स्थापना के लिए बौद्धिक समुदाय का निर्माण करना है। वैश्वीकरण के कारण विश्व का एक समुदाय अपने सत्य का निर्माण करता है और फिर वही सत्य अलग-अलग देशों का वैकल्पिक सत्य बन जाता है। भारत इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसके पास मजबूत आध्यात्मिक आधार है जो कुछ प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। हालांकि आर्थिक अनिवार्यता और पूंजीवाद की ताकत हमेशा से विजयी होती आई है। सोशल मीडिया लोकतांत्रिक हो सकता है लेकिन इसके प्रति श्रद्धा की भावना नहीं है। कुछ भी पवित्रता नहीं है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आप अपनी साहित्यिक यात्रा में किसका सहयोग महत्वपूर्ण मानते हैं ? निश्चित रूप में आपको इस यात्रा में कुछ विरोधी भी मिले होंगे ?

प्रो. सुब्रमनी

हर जगह ऐसे व्यक्ति हैं जो आत्म-जागरूक हैं, जो हमारे भीतर के जीवन को संरचित करने की आवश्यकता को समझते हैं, देवत्व और रचनात्मकता की चिंगारी को जीवित रखते हैं। मैं जहाँ भी होता हूँ, उनकी पहचान कर लेता हूँ। विरोधी आधुनिक आर्थिक जीवन के निर्माता हैं, जिनके कारण दुनिया में बहुत सारे गरीब लोग पैदा होते हैं। ये लोग पर्यावरण, प्राचीन संस्कृतियों और भाषाओं के विनाश का कारण बनते हैं, विरोधी और समाज के ये दुश्मन आदिवासीवाद के वे नए रूप हैं जो इतना क्रोध और असंतोष पैदा कर रहे हैं; जिसके कारण मानव सभ्यताएँ और समाज तबाह हो रहे हैं; ये वे दुश्मन हैं जो मानव शरीर और दिमाग को फिर से डिज़ाइन कर रहे हैं ताकि हम कम और कम इंसान होते जाएँ ... दुनिया में पहले से ही लोग तो बहुत सारे  हैं लेकिन इंसानों की संख्या बहुत सीमित रह गई है।

डॉ. नूतन पाण्डेय

आप अध्यापन और सृजनात्मक क्षमता के धनी हैं, लिखना या पढ़ाना, दोनों में से कौन सा पक्ष आपके दिल के ज़्यादा क़रीब है?

प्रो. सुब्रमनी

मेरे लिए पढ़ाना और लिखना एक दूसरे पर निर्भर हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। मुझे इस संसार ने जो भी उपहार दिया है, ये दोनों उसे दुनिया को वापिस करने के दो अलग-अलग तरीके हैं। 

डॉ. नूतन पाण्डेय

क्या आप अपने जीवन की अब तक की उपलब्धियों से संतुष्ट हैं?

प्रो. सुब्रमनी

मुझे लगता है कि मैं सौभाग्य से इस ब्रह्मांड में एक इंसान और एक लेखक के रूप में खुद को सिद्ध करने के लिए भेजा गया हूँ। यह एक अद्भुत यात्रा है जिसमें प्रत्येक सोपान एक उपलब्धि है।

 डॉ. नूतन पाण्डेय

क्या आपको लगता है कि फीजी के साहित्य और शिक्षा प्रणाली को समृद्ध करने में उत्कृष्ट योगदान के लिए आपको समुचित मान्यता मिली है?

प्रो. सुब्रमनी

मैंने कभी सांसारिक मान्यता के लिए काम नहीं किया। हालाँकि, मेरी इच्छा है कि मैं व्यापक रूप से सुना, पढ़ा और पहचाना जाऊँ, विशेष रूप से शिक्षकों द्वारा जो एक नई तरह की शिक्षा प्रणाली उत्पन्न कर सकते हैं जो ऊपर मेरे द्वारा बताए गए कुछ अस्वाभाविक रुझानों का विरोध करेंगे।

डॉ. नूतन पाण्डेय

कुछ ऐसा, जिसे करने की प्रचंड और तीव्र इच्छा मन में है?

प्रो. सुब्रमनी

आंतरिक स्थिरता और शांति के लिए खुद को प्रशिक्षित करने की इच्छा है ताकि मैं अपने आस-पास के कोलाहल पर नियंत्रण पा सकूँ। इसके साथ यह भी चाहता हूँ कि यह सृष्टि मुझे प्रतिदिन जो कुछ भी देती है उन सबको मैं शालीनता से स्वीकार कर सकूँ ।

इस विशेषांक में

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