सावन की हवाएँ
कविता | उत्तरा गुरदयालमेरे राजा भइया
सावन की हवाएँ
चल रही हैं
तेरे मेरे बचपन की
याद दिला रहीं हैं
वक़्त बदल गया
बदलते वक़्त के संग
बहुत कुछ बदल गया
खो गया बचपन का
आँगन
विरान हो गया गाँव
सूनी हो गई खेतों की
सुहाग
न रही दादी चाची
न रही कोई सहेली
न रहा कुछ खास
निशानी
तू भी किस देश चला
न राह का पता दिया
न दिशा का संकेत
मैं परदेश में अकेले ही
रह गई
बिना बताये ही
चला गया,
सावन में तेरी राह देखती
आँख भिगोती
हर राखी की धागा में
तुझे देखती
सावन की हवाएँ
आहिस्ते से कानों में
गुनगुनाती
तू रो मत
मैं हूँ तेरे साथ।
इस विशेषांक में
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