फीजी के राष्ट्रकवि पंडित कमला प्रसाद मिश्र
साहित्यिक आलेख | डॉ. दीपक पाण्डेय‘मैं जग-सर में सरसिज सा फूल गया हूँ
नित अपने ही मन के प्रतिकूल रहा है
मैं चाह रहा लिखना अतीत की बातें
पर सहसा कुछ थोड़ा सा भूल गया हूँ।
मेरी अभिलाषा मिटकर धूल हुई है
मेरी आशा मेरे प्रतिकूल हुई है
मैं जीवन को अब तक पहचान न पाया
जीवन में यह छोटी सी भूल हुई है।’
ये पंक्तियाँ फीजी के महान हिंदी सेवक पंडित कमला प्रसाद मिश्र की ‘पछतावा’ कविता की हैं, जिनमें गंभीर भावबोध को अभिव्यक्ति दी गई है। फीजी में हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन में किए गए अप्रतिम योगदान के लिए पंडित कमला प्रसाद मिश्र को हिंदी-जगत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1978 में पंडित मिश्र जी को उनकी हिंदी-सेवा के लिए ‘विश्व हिंदी सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।
सर्वविदित है कि अठारहवीं शताब्दी में भारत के तत्कालीन उपनिवेशवादी शासकों ने भारतीय मज़दूरों को कृषि कार्यों के लिए विश्व के अनेक देशों में एग्रीमेंट के तहत भेजा था। भारतीय मज़दूर अफ्रीका, मॉरीशस, त्रिनिदाद, गयाना, सूरीनाम, फीजी अनेक देशों में पहुँचे। भारत से संबंधित देशों की यात्रा की यंत्रणा ने ही मज़दूरों को भविष्य के दुर्गम पड़ाव के बारे में सोचने पर विवश कर दिया था। तथ्यों से प्राप्त जानकारी के अनुसार भारतीय मज़दूर जिन देशों में पहुँचे उनकी स्थितियाँ/ परिस्थितियाँ और मालिकों के शोषण व अमानवीय व्यवहार लगभग एक समान थे। भारतीय जिन देशों में मज़दूर रूप में एग्रीमेंट प्रथा के अंतर्गत पहुँचे, उनके लिए ’गिरमिटिया’ शब्द प्रचलित हो गया है और सभी गिरमिटिया देशों में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास है। इन साधनविहीन भारतीय मज़दूरों ने अपनी मातृभूमि से हज़ारों किलोमीटर दूर, विषम परिस्थितियों में और वहाँ के स्थानीय अपरिचित मूल निवासियों के साथ सामंजस्य बिठाया, अंग्रेज़ों के अत्याचारों को सहा, अपने परिश्रम और कर्मठता से पत्थरों, सुनसान घाटियों, घने और बीहड़ जंगलों को हरे- भरे खेतों में बदल दिया और अपने मालिकों के साथ-साथ संबंधित देश को आर्थिक समृद्धि की राह पर अग्रसर भी किया। भारतीय मज़दूरों की यह यात्रा बड़ी संघर्षपूर्ण रही है और संघर्ष पर सफलता हासिल करने के पश्चात उनके वंशज आज उन देशों के कर्णधार बन चुके हैं। भारतीय डायसपोरा पर उपलब्ध जानकारी भारतीयों के संघर्ष और उनके उज्ज्वल भविष्य को वैश्विक पटल पर प्रस्तुत करती है।
विश्व के जिन-जिन देशों में भारतीय पहुँचे, वे अपनी भाषा और संस्कृति साथ लेकर पहुँचे जिसके बल पर उन्होंने विपरीत स्थितियों से लड़ने का संबल ग्रहण किया और उन्होंने भाषा व संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। फीजी में पहली बार भारतीय मज़दूर 15 मई, 1879 को लेवनीडास जहाज़ से उतरे थे। यहाँ से इस द्वीप में भारतीय भाषा की पहुँच बनी। आज हिंदी को फीजी में संवैधानिक भाषा का गौरव प्राप्त है। फीजी का हिंदी-सृजनात्मक लेखन समृद्ध है और साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य रचा जा रहा है, कुछ प्रतिष्ठित हिंदी रचनाकारों के नाम हैं-अमरजीत कौर, कँवलजीत कौर, जोगिंदर सिंह कंवल, ब्रजविलास लाल, बाबू राम शर्मा, पंडित कमला प्रसाद मिश्र, काशीराम कुमुद, ज्ञानीदास, राघवानंद शर्मा, शिव प्रसाद, रेमंड पिल्लई, डॉ. विवेकानंद शर्मा, प्रो. सुब्रमनी आदि।
पंडित कमला प्रसाद मिश्र फीजी के राष्ट्रकवि कहे जाते हैं। उन्होंने भारत में सन 1926 से 1937 तक शिक्षा ग्रहण की। अध्ययन काल में ही मिश्र जी ने हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था और सृजनात्मक-लेखन में भी रुचि लेने लगे थे। वे कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते थे और उनकी कवितायें प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं जैसे सरस्वती, माधुरी, विशाल भारत आदि में प्रकाशित भी हुईं। कमला प्रसाद मिश्र ने हज़ारों हिंदी कविताओं का सृजन किया पर प्रकाशन के अभाव में साहित्यजगत में वे बहुत बाद में सामने आईं। कमला प्रसाद मिश्र की कविताओं के संकलन में डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण और जयंतीप्रसाद मिश्र ने उल्लेखनीय कार्य किया है। कमला प्रसाद मिश्र की अधिकांश कवितायें तीन संपादित ग्रंथों – ‘फीजी के राष्ट्रीय कवि पं.कमला प्रसाद मिश्र की काव्य साधना- डॉ.सुरेश ऋतुपर्ण’, ‘पं.कमला प्रसाद मिश्र का कवि-कर्म- जयंतीप्रसाद मिश्र’ और ‘पं.कमला प्रसाद मिश्र व्यक्ति और काव्य -जयंतीप्रसाद मिश्र’ में उपलब्ध हैं।
पं. कमला प्रसाद मिश्र के काव्य-पक्ष पर विचार करने पर हम पाते हैं कि उनकी कविताओं में फीजी के सौंदर्य और अंतर्नाद की अभिव्यक्ति है, भारतीयों की कठिन श्रम-साधना का वर्णन है, शोषण की अमानवीयता है, भारत के प्रति आसक्ति है, फीजी की सामाजिक/आर्थिक/राजनैतिक उठापटक परिवर्तन की अभिव्यक्ति है और व्यंग्य-विनोद से बात को कहने का सामर्थ्य है। फीजी में हिंदी के संदर्भ में डॉ.विवेकानंद शर्मा ने अपने लेख- ’भाषा, साहित्य एवं संस्कृति: उद्भव एवं विकास’ में लिखा है- ‘पंडित कमला प्रसाद मिश्र जैसे प्रकांड भाषाविद एवं अद्वितीय कवि का अवतरण हुआ। पंडित जी की कविताएँ छायावाद के महान कवियों के समकक्ष आसानी से रखी जा सकती हैं। पंडित जी की कविताओं ने सिर्फ़ कल्पनाओं में विहार नहीं किया अपितु धरती पर उतर कर यथार्थ का चित्रण करते हुए अनेक व्यंग्य रचनाएँ हमें प्रदान कीं। पंडित जी की कविताएँ छायावादी संस्कार से कभी बँधी नहीं रहीं। उनका काव्य-संसार निरंतर विकासशील रहा इसलिए उनकी काव्य भाषा पर छायावादोत्तर व्यक्तिवादी और प्रगतिवादी कविता के मुहावरे को भी स्पष्ट पहचाना जा सकता है। पंडित जी की अनेक कविताओं में फीजी का प्राकृतिक सौंदर्य शब्दबद्ध है। उसके सुंदर और मनोरम समुद्र-तट, सदाबहार मौसम, दूर-दूर तक फैली हरियाली, नदियाँ और पहाड़ सभी उनकी कविताओं में रूपाकार लेते हैं। फीजी की मिट्टी की सुगंध से ओत-प्रोत प्रकृति का यह चित्रण उनके राष्ट्र प्रेम का ही द्योतक है। पंडित जी साहित्य रचना के साथ-साथ पत्रकारिता की ओर भी ध्यान रखते रहे। उन्हें लगता था कि फीजी में प्रवासी भारतीयों की अस्मिता की रक्षा के लिए हिंदी पत्रकारिता की भी बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति उनके द्वारा द्वारा संपादित साप्ताहिक 'जागृति' और बाद में 'जय फीजी' के प्रकाशन में हुई। 'जय फीजी' के माध्यम से पंडित जी ने फीजी में हिंदी भाषा और साहित्य की ज्योति को निरंतर जलाए रखने का महान गुरु कार्य संपन्न किया। पंडित जी अपने साथ-साथ देश के अनेक लोगों को हिंदी में कविता, कहानी, दोहे, रसिया, चौताल तथा अन्य प्रकार के लोक-गीतों एवं ग्राम्य वार्ताओं को लिखने के लिए प्रेरित करते रहे और लिखवाते भी रहे।’
फीजी के सौंदर्य और अंतर्नाद की अभिव्यक्ति –
मिश्र जी का जन्म फीजी में हुआ और उनका बचपन वहाँ की प्रकृति की गोद में पला-पुसा है। उनके मन में अपने देश के प्रति अनन्य प्रेम है, वे फीजी के सौंदर्य और विशेषताओं को अपनी कविता में स्वर देते हैं। फीजी को प्रकृति की अनुपम देन है कि सूर्य की किरणें सबसे पहले इस सुरम्य द्वीप में पड़ती हैं तभी तो कहा जाता है कि फीजी ‘दिन के प्रवेशद्वार’ पर स्थित है। इतना ही नहीं कवि ने इस कविता में फीजी की हवाओं में व्याप्त आकर्षण को भी शब्द दिए हैं जिसकी वजह से विश्व के सैलानी यहाँ की शीतलता में आराम से सुकून पाते हैं, वे देश के नैसर्गिक सौंदर्य को अभिव्यक्ति देते हुए लिखते हैं –
“यहाँ सूरज पहले निकलता है और दूर अँधेरा होता है
फीजी फिरदौस है पैसिफिक का, यहाँ पहले सबेरा होता है।
यहाँ मौसम मस्त सलोना है, लहराता समुद्र का कोना है
कभी मस्त हवाएँ बहती हैं, कभी बादल घेरा होता है।
हर ओर अजब हरियाली है हर और छटा मतवाली है
यह फीजी वही जिसमें हर माह बहार का फेरा होता है॥”
‘तावुआ’ नामक कविता में कवि देश की रमणीयता, मौसम के मदहोश में सौंदर्य के अनोखेपन और भूमि की उर्वरता से रत्नगर्भा होने की मनमोहक झाँकी प्रस्तुत करते हुए सागर और पर्वतमालाओं की सुंदरता का चित्रण करते हुए कहता है –
“इसकी मिट्टी में सोना है
वह रम्य तावुआ भूमि, यहाँ का मौसम बड़ा सलोना है
फूलों से बोझिल वृक्ष खड़े,
कृषकों के गन्ने हरे-भरे
पीछे लहराता नील सिन्धु, सन्मुख पर्वत का कोना है“
फीजी का पल-पल परिवर्तित होने वाला मौसम, कभी रिमझिम बारिश तो कभी थरथरा देने वाली कड़कती बिजली के साथ मूसलाधार बारिश और समय-समय पर अपने अस्तित्व की सूचना देने वाले तूफ़ान फीजी की पहचान हैं। कवि मिश्र ने ‘तूफ़ान आया’ कविता में प्रलयंकारी तूफ़ान का चित्रात्मक शैली में वर्णन किया है –
“तूफ़ान रहा है गरज आज
है महानाश का राज आज
है पवन गा रहा महाराग
प्रलयंकर पंचम रक्त फाग
तरु गिर- गिर कर दे रहे ताल
चल रहा नृत्य तांडव विशाल”
‘बाढ़ का दृश्य’ कविता में कवि ने फीजी में माघ माह में अतिवृष्टि के कारण आई बाढ़ के दृश्य का चित्रण किया है कि माघ में श्रावण का सा माहौल है, गाँव के कुएँ, नदी, तालाब सब पानी से लबालब होने से गाँव की सड़कें पानी में समा गईं हैं –
“खेत में कृषकों का श्रम नष्ट, खेत में वेगशील जलधार
बालिका एक गई थी डूब, रो रहा था सारा संसार”
कवि मानता है कि अपने ही देश में जो उसकी मातृभूमि है, कर्मक्षेत्र भी है, वहाँ प्रजातंत्र होते हुए भी यदि अधिकारों की समानता नहीं तो मन बहुत दुखी हो जाता है, क्योंकि जिस भूमि से मज़दूर देश को समृद्ध कर रहा है उसे उस पर कोई अधिकार नहीं मिलता, वह प्रवासी और परदेशी ही कहलाता है। इन्हीं भावनाओं को कमला प्रसाद मिश्र ‘हमारा देश’ कविता में अभिव्यक्ति देते हैं-
“फीजी सुंदर देश हमारा,
यहाँ किसी को हर सुविधा है
किंतु किसी पर कड़ी रुकावट
उसके मन में दुविधा है
----------------------
लेकिन यहाँ ज़मीन नहीं है।”
इसी भाव संवेदना को कवि 'हम विदेशी' नामक कविता में शब्द देते हैं और पीड़ा व्यक्त करते हैं कि उन्हें अपने ही देश में मूल निवासियों द्वारा विदेशी कहा जाता है, मिश्र जी की मार्मिकता का उदाहरण इन पंक्तियों में चित्रित है-
“अपने ही कर्म में, अपने ही धर्म में
आज हम विदेशी
अपने ही राज में, संस्कृति में, साज में।
आज हम विदेशी।”
विश्व में अपनत्व और नैतिक मूल्यों का क्षय होता जा रहा है। फीजी भी इससे अछूता नहीं रहा, इस भाव को मिश्र जी ने 'संभलकर खरीदना' कविता में प्रस्तुत कर सांसारिक विषमताओं तथा भौतिकतावादी परिवेश में मानवता को बेचते लोगों पर करारी चोट की है। कवि के अनुसार व्यक्ति के नैतिक आदर्श खोखले हो गए हैं और समाज में ईमान, धर्म, कर्म, पाप-पुण्य, सुख-दुःख सब बिकाऊ बन गए हैं, आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इन छल-प्रपंचों के पचड़े से दूर रहें और संभलकर कदम बढ़ाते चलें-
“यहाँ पर जामेमय बिकते हैं दर दर
यहाँ दिल की कहानी बिक रही है--------
खु़दा को बेचता है आज इबलीस
फ़रिश्ते आसमानी बिक रहे हैं
किसी की बिक रही हैं आज ख़ुशियाँ
किसी के बिक रहे हैं आज दुखड़े –
यहाँ पर बिक रहे हैं दिल के टुकड़े”
समाज में व्याप्त धारणा कि धन ही सर्वोत्तम है, सांसारिक सुखों के उपभोग के लिए धन-सामर्थ्य ही लोगों की अभिलाषा रहती है। मिश्र जी की कविता ‘आज’ इन्हीं संवेदनाओं को व्यक्त करती है। कई जाने-माने स्वयं इस पश्चाताप में रहते हैं कि वे यश के फेर में धन से दूर रहे और ये भावबोध इन शब्दों में आ जाते हैं –
“बड़े-बड़े ठग कुटिल चोर ऊँची कुर्सी पर बैठे
केवल सोच रहे हैं किससे कब कितना धन ऐंठे
गुलशन उजड़ रहा है, माली क्षण क्षण बदल रहे हैं।”
'फ़ीजी के सभा संघ' और 'फ़ीजी नया देश' नामक कविताओं में फ़ीजी में व्याप्त तत्कालीन विषमताओं की और संकेत करते हुए कवि ने व्यक्ति की स्वार्थ, लालच, भ्रष्ट आचरण की और संकेत किया है-
“सुंदर कुर्सी पर लोगों की आँखें आज लगी हैं
कितने लोगों की आशाएँ नभ में आज टँगी हैं
फीजी की अपनी चीजें हैं लेकिन सब महँगी हैं
---अस्पताल तो यहाँ बहुत हैं लेकिन दवा नहीं है”
फीजी संघ में राजनैतिक घमासान और लोगों द्वारा अपनाए जा रहे हथकंडों पर करारी चोट करते हुए कमला प्रसाद मिश्र लिखते हैं –
“साथी कहते हैं फीजी है महासंघ का देश
कई संघ हैं कई सभाएँ, कई ख़त्म, कुछ शेष
एक सभा में चलता था मंत्री बनने का खेल
एक सभा में अविश्वास का चलता था प्रस्ताव
एक सभा में चला किसी का हाथ, किसी का पाँव”
भारतीयों की कठिन श्रम-साधना –
‘गिरमिट के समय’ कविता में पंडित कमला प्रसाद मिश्र ने भारतीय मज़दूरों की फीजी यात्रा और उनके संघर्षों की वेदना का चित्रण करते हुए कलकत्ता से फीजी में किए गए कार्यों में भारतीयों के समर्पण और साहस को अभिव्यक्ति दी है –
“गिरमिट शर्त के नीचे उन्हें करना जो पड़ा वह काम कड़ा था,
मंगल था लहराने लगा जहाँ जंगल ही सब ओर खड़ा था
जीवन घातक कोठरी में करना हर को निवास पड़ा था,
मौत से जूझ गए थे बहादुर, साहस खूब था जोश बड़ा था।
खून पसीना बहाकर भी ये सभी दुःख दर्द को भूल गए थे
एक दवा थी कि लेकर ये निज भारत भूमि की धूल गए थे।”
फीजी में भारतीयों के आगमन की शताब्दी को भव्यता से मनाया गया और सबसे बड़ी बात रही भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने भारतवंशियों की खुशी में सम्मिलित हुईं। लौटोका में उस अवसर पर जो उत्साह और उमंग दिखी उसे कवि ने इन शब्दों में वाणी दी है –
“भारतवंशी लोगों के दिल का जैसे अरमान आ गया
कठिन परिस्थितियों में खोया उनका फिर सम्मान आ गया
लगता है अपनी ही खोई संतानों का हाल देखने
लौटोका में आज उमड़कर जैसे हिन्दोस्तान आ गया”
शोषण की अमानवीयता के विरुद्ध गिरमिटिया मज़दूरों के आक्रोश भरे स्वर को ‘एक गिरमिटिया मजदूर’ कविता में अभिव्यक्ति दी है, जहाँ मज़दूर अपने मालिक के शोषण की इतिश्री करने के लिए आक्रोशित होकर हिंसक हो जाता है। इन भावनाओं का चित्रण इन पंक्तियों में कितना सार्थक है –
“एक गिरमिटिया छुरी लेकर बाहर निकल रहा है
क्रोध में उसके नयन से अश्रु का सागर बहा था -----
यह नहीं साहब कुलम्बर, जंगली यह जानवर है
देश में है राज इनका न्याय से इनको न डर है ----
है मुझे मंज़ूर आधी रात सूखा भात खाना
पर नहीं बर्दाश्त मुझको साहबों से लात खाना”
कवि ‘एक ऐलान’ कविता में भारतमाता से रक्त संबंध पर गौरवान्वित महसूस करता है और अपने साथी भाइयों को वर्तमान अव्यवस्था में अपने को कलंकित होने से बचाने का सन्देश देता है और स्वाभिमानी व्यक्तित्व बनने की प्रेरणा देते हुए कहता है-
“याद रखना तुम्हारी नसों में
उसी हिन्द का खून ही आज भी बह रहा
कह रहा धर्म दुर्नीति के सामने
सर झुकाना नहीं, सर झुकाना नहीं।”
भारत के प्रति आसक्ति से परिपूर्ण काव्य –
पंडित कमला प्रसाद मिश्र अध्ययन के लिए वर्षों तक भारत में रहे उस समय भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था और वातावरण में देशभक्तिपूर्ण माहौल था। इस परिवेश ने मिश्र जी को प्रभावित किया जिसकी बानगी उनकी अनेक कविताओं में मिलती है। उनकी कविताओं में एक प्रवासी का मन भारतमाता के प्रति सजग और चिंतित है, राजनैतिक उठापटक का खेल उसे खलता है वह भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से अपनी भावनाओं को जोड़ता है।
भारतीय परिवेश में देश की भाषा को दोयम दर्जे पर रखकर अंग्रेजी भाषा के भक्त बने लोगों के प्रति कवि कमला प्रसाद मिश्र दुखित होते हैं और इसी भाव को उन्होंने ‘आज का भारत’ में स्वर दिए हैं जहाँ भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में हिंदी के दम पर स्वतंत्र हुए और जनता गर्व से भर गई, वहीं आज भारत में अंग्रेजी पढ़ने बोलने वाले ज्यादा सभ्य और समझदार माने जाने लगे, अंग्रेजी का साम्राज्य बढ़ने लगा। भारतप्रेमी कविहृदय कहता है –
“आज बंबई, अंगरेजी संस्कृति में है इतराती
सागर भी पाश्चात्य तरंगों में ही अब लहराए
अंग्रेजी शासन में भारत इतना दास नहीं था
जितना दास आज वह जग की नज़रों में दिखलाए।”
यही भाव ’दिल्ली दूर है’ और ‘गद्दारों से’ नामक कविताओं में भी अंग्रेजी भाषा के प्राधान्य के विरोध स्वर में सुनाई देते हैं। कवि का मानना है कि स्वभाषा की उपेक्षा अवनति की ओर अग्रसर करेगी –
“अंग्रेजी भाषा के, अंगरेजी संस्कृति के
अब भी तुम दास हो, अपनी अवनति के।”
इसी के साथ मिश्र जी अपनी कविताओं में भारतीय महान विभूतियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान के भाव प्रदर्शित करते हैं। इनमें अमीर खुसरों, बुद्ध, महात्मा गाँधी, नेहरू, उमर खैय्याम, लोहिया, लता मंगेशकर आदि अनेक साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में राष्ट्र, मानवता, विश्व बंधुत्व तथा सत्य-अहिंसा के लिए समर्पित भारतीय सपूतों को अपने भाव दिए हैं।
कमला प्रसाद मिश्र अमीर खुसरों को हिन्दू-मुस्लिम-एकता का ही नहीं अपितु विश्व-बंधुत्व का पुजारी बतला कर भारत के प्रति तन-मन और धन अर्पित कर देने वाला सच्चा भारतीय पुकारते हुए प्रणामांजलि अर्पित करते हैं-
“तुम भारत के सच्चे प्रतीक, भारत की आत्मा के समान
यह कीर्तिगान तुमको अर्पित, जय- जय अमीर खुसरो महान॥”
‘महात्मा गांधी’, ‘बापू का महानिर्वाण’, ‘यह अहिंसा का युग नहीं’ नामक कविताओं में मिश्र जी ने बापू के जीवन-कार्यों, दर्शन, राष्ट्रभक्ति को सम्मिलित किया है। कवि बापू की हत्या से व्यथित होकर हिंसा तथा हिंसक की भत्सर्ना करते हैं वे श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लंबी कविता ‘बापू का महानिर्वाण’ में लिखते हैं –
“बापू ने भी होली गायी,
जग में फिर मानवता आयी,
---------
बुझ गयी हाय! जीवन बाती
हे राष्ट्रपिता प्रभु के समान
दोनों को पूजा अर्पित है,
है राष्ट्रपिता प्रभु के समान
दोनों को प्राण समर्पित है”
नेहरू जी के प्रति श्रद्धा सुमन ‘जवाहर लाल’ कविता में समर्पित किए हैं –
“भारत के वरदान जवाहर लाल!
----------
आजादी का तेरा ध्येय महान
आज हुआ पूरा तेरा अरमान
मानवता को है तुझ पर अभिमान
बोल रहा है सारा हिन्दुस्तान
तुम भारत की शान जवाहर लाल”
‘चौधरी चरणसिंह’ के सम्मान में कवि उद्गार व्यक्त करते हैं-
“दीन -दुखियों में तुम्हारा काम है
लोग तुमको पूज्य नेता मानते
किन्तु तुममें मनुजता अभिराम है
राष्ट्र के हित में तुम्हारा प्राण है
राष्ट्र-हित की कामना उद्दाम है।”
व्यंग्य-विनोद के माध्यम से गहन चिंतन- कमला प्रसाद मिश्र जी अपनी कविताओं में व्यंग्य-विनोद के माध्यम से भी गंभीर चिंतन को अभिव्यक्ति देते हैं। कवि ने अनेक कविताओं में सामाजिक/राजनैतिक/धार्मिक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, आडंबरों, विद्रूपताओं पर व्यंग्यात्मक शैली में अपनी बात समाज के सामने प्रस्तुत की है।
‘नेता’ में वे कहते हैं –
“नेता ! मत कर तू अभिमान
दो दिन का यह ठाट अनोखा हो जाएगा म्लान
वे ही तुझको गाली देंगे जो करते यशगान”
‘ईश्वर लोकसभा के बाद’ कविता में शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली और समाज में वोट के लिए धर्म पर होने वाली राजनीति पर करारा व्यंग्य है –
“किस पथ पर कितने मतदाता
राजनीति का इतना नाता”
‘एक आदेश’ कविता में लोक-शाही में पत्रकार, आकाशवाणी और दूरदर्शन की भूमिका पर व्यंग्य किया गया है कि ये तीनों शासन के लाउडस्पीकर का कार्य करते हैं जिसके कारण जनता सत्य से भली-भाँति अवगत नहीं हो पाती है –
“सच यहाँ क्या है, यहाँ क्या झूठ है
यह बताना अब हमारे हाथ है
दूरदर्शन में हमारा आदमी,
देश की आकाशवाणी साथ है”
‘घी की आहुति’ में कर्कश व्यंग्य भरे शब्दों द्वारा छद्म आडंबर को मानवीयता से ऊपर रखा जा रहा है –
“हवन-कुंड में घी जलता है
क्षुधा-पीड़ितों का दल रोता, भूखा बालक रो कर सोता
इधर अन्न जलता पूजा में, पीड़ित उधर हाथ मलता है”
‘सबसे अच्छी वस्तु’ नामक कविता में कवि की व्यंग्यात्मकता देखिए –
शिव ने जब ब्रह्मा से पूछा, सबसे अच्छी क्या वस्तु यहाँ ?
चारों मुख से ब्रह्मा बोले, “मदिरा, मदिरा, मदिरा “।
इस प्रकार पंडित कमला प्रसाद मिश्र की कविताओं में विषय-वैविध्य और कलात्मकता का अद्भुत संयोजन है, जिसमें ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ और ‘सर्व जन हिताय’ की भावना का सम्मिश्रण है। कविताओं की आत्मा में समाया उनका दार्शनिक चिंतन गंभीर और समाजोन्मुखी है। जहाँ उनकी कविताओं में प्रेम, अनुराग और सौंदर्य का स्वर है क्रांतिकारिता का भाव है, वहीँ उनके अन्तर्मन में इस संसार के सभी क्षेत्रों के बारे में जानने, समझने और समझाने की अद्भुत उत्कंठा भी परिलक्षित होती है। वे फीजी और हिंदी के प्रति समर्पित सच्चे देशभक्त कवि हैं। इस लेख का समापन कवि की ‘अवसर नहीं मिला कविता’ को उद्धृत करते हुए करना चाहूँगा, जहाँ वे कहते हैं –
“जो कुछ लिखना चाहा था,
वह लिख न कभी मैं पाया।
जो कुछ गाना चाहा था,
वह गीत न मैं गा पाया
मुझको न मिला अवसर ही,
अपने पथ पर चलने का
था दीप पड़ा झोली में,
अवसर न मिला जलने का
जो दीप न जल पाता है,
वह क्या प्रकाश फैलाए
जिसको न मिला अवसर ही,
वह गीत भला क्या गाये”
संदर्भ ग्रंथ –
- ‘फीजी के राष्ट्रीय कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र की काव्य साधना- डॉ.सुरेश ऋतुपर्ण’,
- ‘पं.कमला प्रसाद मिश्र का कवि-कर्म- जयंतीप्रसाद मिश्र’
- ‘पं. कमला प्रसाद मिश्र व्यक्ति और काव्य -जयंतीप्रसाद मिश्र
- फ़ीजी में हिंदी :स्वरूप और विकास के सृजनात्मक साहित्य- विमलेश कांति वर्मा एवं धीरा वर्मा
- फीजी का सृजनात्मक साहित्य- विमलेश कांति वर्मा
इस विशेषांक में
बात-चीत
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