पिंजरा
कविता | खमेन्द्रा कमल कुमारएक छोटी सी पोटली
एक मीठा सा सपना
लेकर झगरू
चला सात समुद्र पार
बारह सौ मील दूर
जब आँख खुली
तो पाया रमणीक द्वीप
साहब का कटीला चाबुक
और भूत लैन में
एक अँधेरा कमरा
रोया, गाया, भागा,
बहुत चिल्लाया
अपने को कोसा
लेकिन तोड़ न पाया
वो समुद्री पिंजरा!
दिन, रात, महीने, साल
धीरे-धीरे बीते
गिरमिट की काली रात
घाव के ऊपर घाव
और इज़्ज़्त भी लुट गई
जटायू की भाँति
कट गए पंख
जब पिंजरा खुला
अकेला तट पे पड़ा
वो उड़ न सका
फिर छूटी पोटली
और रेत हुआ सपना॥
इस विशेषांक में
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