फीजी में हिंदी अख़बार शांति दूत के 85 साल
साहित्यिक आलेख | डॉ. जवाहर कर्नावटभारत से लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार किलोमीटर दूरी पर बसा देश फीजी प्रशांत महासागर का एक सुरम्य द्वीप है। क़रीबन नौ लाख की आबादी वाले इस देश में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। फीजी में भारतीयों का आगमन शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गन्ने के खेतों में मज़दूर के रूप में काम करने के लिए ब्रिटिश सत्ता के आदेश के अधीन सन 1879 से शुरू हुआ था। सन 1916 में इस प्रथा के बंद होने तक अर्थात 38 वर्षों में 85 हज़ार से अधिक भारतीय मज़दूर फीजी पहुँच चुके थे जो अधिकांशतः पश्चिम बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे एवं अवधी या भोजपुरी भाषा का प्रयोग करते थे। फीजी में हिंदी का उदय तथा विकास इन्हीं गिरमिट भारतीय मज़दूरों के माध्यम से हुआ था। फीजी में आज हिंदी के लिए जो ठोस ज़मीन पिछले 140 वर्षों में तैयार हुई, उसी के परिणामस्वरूप यह आज फीजी की संविधान सम्मत राजभाषा भी है। भारत के अलावा हिंदी को यह गौरव केवल फीजी में ही प्राप्त है।
अपनी फीजी यात्रा के दौरान यह रोचक तथ्य भी सामने आया कि फीजी में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास 107 वर्षों पुराना है। इस अवधि में हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और बंद भी हुए किंतु शांति दूत साप्ताहिक समाचार पत्र पिछले 85 वर्षों से लगातार प्रकाशित हो रहा है। फीजी में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत डॉ. मणिलाल ने 1913 में ‘द सेटलर’ पत्र से की थी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही में कई हिंदी समाचार पत्रों के प्रकाशन की शुरुआत हुई। इन पत्रों में फीजी समाचार, भारत पुत्र, वृद्धि तथा वृद्धि वाणी लोकप्रिय हुए। तीसरे और चौथे दशक में भी हिंदी समाचार पत्रों के प्रकाशन की शुरुआत और बंद होने का सिलसिला लगातार जारी रहा।
शांति दूत समाचार की शुरुआती दास्तां भी अत्यंत रोचक है। फीजी टाइम्स एंड हेरल्ड नामक ब्रिटिश संस्थान द्वारा अंग्रेजी समाचार पत्र फीजी टाइम्स प्रकाशित हो रहा था। इसी समय द्वितीय विश्वयुध्द के बादल भी मंडरा रहे थे। इटली की सेना युद्ध में उतर चुकी थी। फीजी टाइम्स के जनरल मैनेजर श्री बाकर के मन में यह विचार आया कि स्थानीय लोगों को मित्र राष्ट्रों के पक्ष में विश्व युद्ध से जोड़ने के लिए क्यों न हिंदी में अख़बार निकाला जाए? इसी विचार से 11 मई 1935 को साप्ताहिक अख़बार शांति दूत की शुरुआत हुई। इस पत्र के संपादक का कार्यभार संभाला श्री गुरु दयाल शर्मा ने जो पेसिफिक प्रेस से हिंदी पत्रकारिता का अनुभव प्राप्त कर चुके थे। अपने पहले संपादकीय में श्री गुरु दयाल पत्र की नीतियों को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:
“शांति दूत का यह प्रथम अंक हम आपकी सेवा में उपस्थित करते हुए हर्ष मना रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस पत्र के द्वारा फीजी प्रवासी भारतीयों को समस्त संसार की वह खबर मिलती रहेगी जिससे हिंदी भाषा भाषी जनता अनभिज्ञ रहती थी। इस पत्र के स्वामी भारत, इंग्लैंड, चीन, जर्मनी, जापान इत्यादि भूमंडल का समाचार बेतार के तार द्वारा अर्थात केबल के जरिये से मंगा रहे हैं। जैसा कि आज तक हिंदी पत्रकार नहीं कर सका है। अतएव हम अपने पाठक, ग्राहक एवं अनुग्राहकों को यह विश्वास दिला सकते हैं कि आप इस पत्र से संतुष्ट रहेंगे।
शांति दूत के इस अंक की 300 प्रतियाँ प्रकाशित हुई थी जो 8 पृष्ठीय था। फीजी की राजधानी सुवा तथा आसपास के क्षेत्रों में ये प्रतियाँ तुरंत बिक गई। पत्र को प्रारंभ करने से अधिक चुनौती उसे जीवित रखने की थी। श्री गुरुदयाल के संपादन में यह समाचार पत्र शीघ्र ही फीजी में लोकप्रिय हो गया। अपने दूसरे ही संपादकीय में श्री गुरुदयाल शर्मा ने फीजी की संसद में चल रही मनोनीत प्रथा का ज़ोरदार विरोध किया और आम निर्वाचन की माँग की। शांति दूत ने प्रारंभ से ही फीजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करनी शुरू कर दी थी। प्रवासी भारतीयों के प्रति सरोकार सिर्फ फीजी में ही नहीं बल्कि भारत में भी हो, इसके लिए शांति दूत में विचारोत्तेजक रिपोर्ट और आलेख लगातार छपते रहे। शांति दूत की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने भारत के साथ संबंधों को मजबूत बनाए रखने का काम किया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित प्रत्येक समाचार प्रमुखता से छापा जाता था। गाँधी जी की प्रत्येक गतिविधि विशेषकर हिंदू मुसलमानों में सौहार्द के प्रयास आदि भी शांति दूत की प्रमुख खबरों में शामिल हुआ करते थे। शांति दूत ने स्थानीय समाचारों को पत्र में अधिक स्थान दिया। रामायण मंडलियों की गतिविधियों को भी प्रधानता दी गई तथा शिक्षा के विस्तार के लिए भी प्रयास किया। हर त्यौहार पर सुंदर विशेषांक प्रकाशित कर सभी धर्मों के प्रति समभाव तथा पारस्परिक समझ का वातावरण बनाया। सन 1939 में छिड़े विश्व युद्ध में भारतीय जनता को सचित्र समाचार देने वाला शांति दूत अकेला हिंदी पत्र था। इस कारण पत्र की प्रसार संख्या बढ़कर 16000 तक पहुंच गई । 25 वर्ष पूरे होते -होते शांति दूत फीजी का सबसे सम्मानित पत्र बन गया।
सन 1950 तक शांति दूत हिंदी तथा अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित होता था किंतु बाद में इस के रूप में परिवर्तन हुआ और बढ़ती माँग के कारण यह पत्र केवल हिंदी में प्रकाशित होने लगा। शांति दूत के संपादन का दायित्व 1935 से 1979 तक पंडित गुरु दयाल ने बड़ी निष्ठा तथा परिश्रम से संभाले रखा। अपनी स्वर्ण जयंती (1985) के पूर्व ही शांति दूत में 1 दिसंबर 1983 से कंप्यूटर टाइप का प्रयोग हुआ जिससे पत्र की छपाई साफ सुंदर तथा आकर्षक हो गई। पंडित गुरुदयाल के सेवानिवृत्त होने पर श्री महेश चंद्र शर्मा ‘विनोद’ शांति दूत के नए संपादक बने। विनोद जी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे तथा उनके पास पत्रकारिता का व्यापक अनुभव था। जिस समय वे शांति दूत के संपादक बने, वह समय राजनीतिक अस्थिरता का था। इस समय कू यानी विद्रोह भी हुआ। शांति दूत के पत्रकारों को भी बंदूक की नोक पर कार्यालय से बाहर निकाल दिया गया। इसके उपरांत भी शांति दूत ने अपनी बात साहस, निर्भिकता, संतुलन और विवेक से रखी । भय, आशंका और हिंसा के दौर में भी शांति दूत की भूमिका अविस्मरणीय रही।
शांति दूत ने विभिन्न समुदायों में एकता और शांति की मशाल जलाए रखी। इसके संपादकीयों में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा गया।
श्री विनोद के संपादन में शांति दूत को नए आयाम प्राप्त हुए। उन्होंने नए लेखक मंडल का निर्माण किया। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों पर निर्भीक होकर प्रभावपूर्ण संपादकीय लिखे। श्री विनोद ने सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह भी किया कि फीजी में विकसित नई विदेशी भाषा शैली- फीजी हिंदी के महत्व को समझा तथा स्थानीय लेखकों को उस भाषा में लिखने के लिए प्रेरित किया और स्वयं भी ‘थोरा हमरो भी तो सुनो’ स्तंभ प्रति सप्ताह लिखा।
सन 1987 में फीजी में हुई राजनीतिक उथल-पुथल से भारतीयों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। जिस देश को भारतवंशियों ने अपनी निष्ठा और समर्पण से विश्व में एक प्रतिष्ठित देश के रूप में ला खड़ा किया था, उसी देश में उन्हें जीवन और सम्मान खंडित होता दिखाई देने लगा। अनेक भारतीय फीजी छोड़कर अन्य देशों को कूच कर गए। शांति दूत के लोकप्रिय संपादक श्री विनोद जी भी त्यागपत्र देकर न्यूज़ीलैंड चले गए। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद शांति दूत का प्रकाशन जारी रहा।
फीजी में शांति दूत के प्रकाशन के 85 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं किंतु इसकी लोकप्रियता हमेशा बनी रही। शांति दूत का दीपावली विशेषांक प्रत्येक वर्ष अत्यंत समृद्ध एवं विशिष्ट होता था। इस विशेषांक में आस्ट्रेलिया तथा न्यूज़ीलैंड के लेखकों की रचनाओं का भी समावेश होता रहा। 125 से अधिक पृष्ठों के विशेषांक में दीपावली के साथ ही भारतीय संस्कृति, त्योहारों और परंपराओं पर विशेष लेख होते थे। मुझे सन 2016 में अपनी यात्रा के दौरान शांति दूत के कार्यालय जाने का अवसर भी मिला। शांति दूत के प्रथम अंक से लेकर आज तक के सभी अंकों की वर्षवार फाइल इस कार्यालय में व्यवस्थित रूप से देखने को मिली। सन 2000 से श्रीमती नीलम शांति दूत के संपादन का कार्य दायित्व निभा रही थी।
उनसे शांति दूत के बारे में चर्चा करते हुए इस अख़बार की 85 वर्षों की यात्रा के अनेक उतार-चढ़ाव जानने को मिले। वह स्वतंत्र पत्रकार के रूप में शांति दूत से कई वर्षों से जुड़ी रही हैं। विगत 20 वर्षों से उन्होंने घर, परिवार, सामाजिक दायित्व को निभाते हुए साधनों की कमी और विपरीत वातावरण में भी अख़बार को गौरवमयी ढंग से प्रकाशित किया।
शांति दूत हिंदी की वैश्विक पत्रकारिता का ध्वज शान से उठाए रहा। शांति दूत के माध्यम से हज़ारों लोगों ने हिंदी सीखी। शांति दूत में हिंदी विद्यार्थियों के लिए दो पृष्ठ विशेष रूप से आरक्षित होते थे जिनमें स्कूलों के पाठ्यक्रमों से जुड़े विषयों पर क्रमवार प्रस्तुति होती थी। रचनात्मक साहित्य को भी शांति दूत में पर्याप्त स्थान मिला। कहानी, कविता, व्यंग्य आदि निरंतर प्रकाशित होते रहे। शांति दूत में बॉलीवुड फिल्मों तथा कलाकारों आदि के बारे भी समाचार विस्तार से होते थे। प्रत्येक अंक में फिल्मों की समीक्षा, फिल्मी कलाकारों के क़िस्से -कहानियाँ छपते थे। शांति दूत के शुरुआती वर्ष 1935 के अंकों में भी भारतीय फिल्मों के विज्ञापन दिखाई देते हैं, जिससे स्पष्ट है कि फीजी में रहने वाले भारतीयों के लिए वर्षों से मनोरंजन का प्रमुख माध्यम बॉलीवुड ही है। अन्य देशों की तरह फीजी में भी हिंदी को रोमन लिपि में लिखने व पढ़ने का चलन बढ़ रहा है । इसी कारण शांति दूत में अब कुछ पृष्ठ रोमन हिंदी में भी छपना शुरू हो गए थे किंतु 11 मई, 2020 को शांति दूत के 85 वर्ष पूर्ण हुए। पिछले दिनों यह सूचना पाकर अत्यंत दु:ख हुआ कि अब शांति दूत पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। फीजी से हिंदी पत्रकारिता के स्तम्भ का इस तरह ढह जाना किसी सदमे से कम नहीं।
इस विशेषांक में
बात-चीत
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