गिरमिटिया
लघुकथा | डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्लाइन दिनों गिरमिटिया शब्द उसके मन को छलनी कर देता था। उसका वश चलता तो इसे शब्दकोश से निकालकर, समुद्र के बीचों-बीच जाकर फेंक आता। इसका कारण यह था कि कॉलेज में जैकसन सबके सामने उसकी और उसके दोस्तों की मज़ाक उड़ाने के लिए उन्हें गिरमिटिया कहा करता था। सभी अपमान का घूँट पीकर रह जाया करते।
आज जैक्सन जब अपने साथियों के साथ सामने से आता दिखाई दिया तो उसके दोस्त उसे समझाने लगे कि वह उसके मुँह ना लगे।
“क्यों रे गिरमिटिया . . . कैसे हो?”
“. . . . .”
“आज तो तू कुछ बोल ही नहीं रहा? क्या गूँगा हो गया गिरमिटिया?”
“. . . . .”
“इन साले गिरमिटियों को जब फीजी से भगाया गया तो सब ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा चले गए जो निर्लज्ज थे, वे यहीं रह गए। यह लोग वही हैं!”
अब उसके धैर्य का बाँध टूट गया।
“सुनो जैक्सन! उन लोगों पर तुम्हारे जैसे लोगों ने इतनी ज़्यादतियाँ कीं कि उन्हें न चाहते हुए भी देश को छोड़ना पड़ा।“
“बाहर से आकर फीजी में अपना हक़ जताने वाले गिरमिट . . . चुप हो जा।“
लेकिन आज उसका क्रोध सातवें आसमान पर था।
“हाँ . . . हाँ . . . हाँ . . . मेरे पिताजी गिरमिटिया थे, हमारा सारा ख़ानदान गिरमिटिया है। हम भले ही भारत मूल के हैं लेकिन हम फीजी को अपना देश मानते हैं क्योंकि हम सब इसी मिट्टी में पले-बड़े हुए हैं।“
“हमारे देश में भार बनकर जी रहे हो और बातें बड़ी-बड़ी करते हो . . . सुन ले गिरमिटिए, हम मूल फिजी वासी हैं, यह हमारा देश है, तुम्हारे जैसे गिरमिटियों का नहीं!”
“तुम भूल गए जैक्सन कि हम गिरमिटियों ने ही फीजी को हरा-भरा बनाया। शक्कर, टेक्सटाइल और सोने के कारण आज यह देश सारे संसार में जाना जा रहा, इसके पीछे हमारे पूर्वजों की कड़ी मेहनत है। उन्होंने ख़ून पसीना एक किया तब फीजी इतना समृद्ध हो पाया,” वह ज़ोर से चिल्लाया। चारों ओर छात्र छात्राएँ एकत्रित होकर उनकी बातें सुन रहे थे।
“जैक्सन . . . इस गिरमिटिये की एक बात और सुन! तुम इस देश का इतिहास ही नहीं जानते, यदि जानते होते तो हम लोगों का अपमान नहीं करते बल्कि सम्मान करते। . . . जो आदमी अपने देश का इतिहास नहीं जानता वह कभी देशभक्त हो ही नहीं सकता!”
चारों ओर खड़े विद्यार्थी तालियाँ बजाने लगे और जैक्सन अपने साथियों के साथ वहाँ से खिसक गया।
इस विशेषांक में
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