पहला गिरमिटिया – एक संस्मरण
स्मृति लेख | विजय नगरकरगाँधी जयंती पर बचपन का क़िस्सा याद आ गया। नई इंग्लिश स्कूल में 8वीं कक्षा में कला शिक्षक पंडित केसकर जी हमें चित्रकला पढ़ाते थे। वे बड़े सख़्त अनुशासन प्रिय शिक्षक थे। उन्होंने हमें क्लास में चित्रकला हेतु नोटबुक लाने को कहा था। हम नोटबुक लाना भूल गए थे।
हम सभी क्लास में खड़े होकर डर के मारे खड़े हुए थे। उन्होंने ऊँचे स्वर में दीवार के ऊपर लटकती महात्मा गाँधी की तस्वीर की तरफ़ इशारा करके नाराज़ होकर कहा था कि-
"इस बूढ़े ने कहा था कि दुनिया में पहली ग़लती के लिए सबसे बड़ा दंड देना चाहिए, क्या किसी को मालूम है, वह दंड क्या है?”
हमने उनकी भंगिमा और उनकी काठी की ओर देखकर भीगी बिल्ली बनकर कहा था कि "जी नहीं मालूम सर।"
तब दार्शनिक मुद्रा में हँसकर पंडित केसकर जी ने कहा था कि –
"महात्मा गाँधी कहते थे कि आदमी की पहली ग़लती के लिए उसे माफ़ करना चाहिए।"
उसके बाद स्कूल की लाइब्रेरी से महात्मा गाँधी जी की पुस्तकें पढ़ने लगा।
नौकरी करते समय डॉ. गिरिराज किशोर जी का बृहत ऐतिहासिक उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' पढ़ा। उनका देशप्रेम, सत्याग्रह, असहयोग, अहिंसा, स्वालंबन से बहुत प्रभावी हुआ।
’पहला गिरमिटिया’ पुस्तक के लेखक की भूमिका का मेरा मराठी अनुवाद पुणे के साने गुरुजी के साधना साप्ताहिक अंक में प्रकाशित हुआ था। जिसे पढ़ने के बाद डॉ. पांडुरंग कपडनिस और डॉ. अरुण मांडे जी ने उपन्यास का मराठी अनुवाद किया।
यह बात डॉ. गिरिराज किशोर जी को पत्र लिखकर बताई थी। बेहद ख़ुश होकर उन्होंने कहा था कि कोई पाठक यह उपन्यास प्रारंभ से अंत तक पूरी तरह पढ़ता है, तो मेरी साधना सफल हो जाएगी।
मुझे पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी अध्यापन मंडल पर वर्ष 1995-2000 दौरान नामित सदस्य के रूप में कार्य करने का अवसर मिला। तत्कालीन हिंदी अध्यापक मंडल के अध्यक्ष डॉक्टर शहाबुद्दीन शेख से मैंने प्रार्थना की डॉ. गिरिराज किशोर की पुस्तक पहला गिरमिटिया विश्वविद्यालय के एम.ए. के छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। तब अन्य सदस्यों ने नाराज़गी दिखाते हुए यह कहा था कि यह उपन्यास करीब 1000 पृष्ठों का है जो बहुत कठिन है। छात्रों के लिए परेशानी हो जाएगी।
लेकिन इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ में महात्मा गाँधी की दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा और वहाँ से उनका शुरू किया गया सत्याग्रह और भारतीयों के लिए न्याय प्राप्त करने हेतु दिया गया संघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने एग्रीमेंट पर वहाँ गए भारतीयों के हितों की रक्षा करने के लिए सरकार के विरोध में न्यायालयीन संघर्ष किया। हिंदू, मुस्लिम सभी जाति धर्म के लोगों को संगठित किया। इस उपन्यास की पार्श्वभूमि एवं सामाजिक राजकीय भूमिका को ध्यान में रखकर यह उपन्यास पुणे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हुआ।
जब यह बात मैंने डॉ. गिरिराज किशोर जी को बताई तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई। उनके साथ पत्राचार भी होता रहा।
इस विशेषांक में
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