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फीजी हिंदी उपन्यास ‘फीजी माँ’ – उपन्यासकार प्रो. सुब्रमनी

‘फीजी माँ’ प्रो. सुब्रमनी की दूसरी औपन्यासिक कृति है जिसका प्रकाशन सन् 2018 में हुआ। यह 1026 पृष्ठों का एक बृहद नायिका प्रधान उपन्यास है जिसमें एक साधारण नारी बेदमती के अस्तित्व की खोज की कथा प्रस्तुत है।

फीजी हिंदी प्रवासी भारतीयों द्वारा विकसित फीजी में हिंदी की नई भाषिक शैली है जो अवधी, भोजपुरी, फीजियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मिश्रण से बनी है। गिरमिट काल के दौरान फीजी ब्रिटिश सरकार के अधीन थी और उपनिवेशक प्रभाव के कारण हिंदी की उपभाषाओं और बोलियों में अंग्रेजी, ई-तऊकई और देशज शब्दों का मिश्रण हुआ। फलस्वरूप इसकी प्रकृति और स्वरूप में परिवर्तन हुआ और यह एक धारा की ओर मुड़ने लगी जिससे यहाँ ‘फीजी हिंदी’ भाषा की उत्पत्ति हुई (जोगिन्द्र सिंह कंवल,1980, अ हंड्रेड इयर्स ऑफ़ हिंदी इन फीजी 1879-1979)। अतः हिंदी ने जैसा देश वैसा अपना वेश बनाया। इसकी साज-सज्जा तो बदली किंतु उसने अपने भाषिक संस्कार को सुरक्षित रखा। इसमें फीजियन और अंग्रेजी भाषा से बड़ी संख्या में शब्द उधार लिए गए हैं। 

प्रोफेसर सुब्रमनी फीजी के प्रमुख गद्य लेखकों, निबंधकारों और आलोचकों में से एक हैं। फीजी हिंदी भाषा के साथ अक्सर यह संदेह रहा है कि वह एक अपूर्ण, टूटी-फूटी, व्याकरणहीन भाषा है, और इसका प्रयोग सिर्फ बोल-चाल के लिए ही उपयुक्त है, किंतु प्रोफेसर सुब्रमनी की बृहत औपन्यासिक कृति ‘डउका पुरान’और ‘फीजी माँ’ ने इस रूढ़ि-बद्ध धारणा को निरर्थक साबित कर दिया है। ‘डउका पुरान’ फीजी हिन्दी साहित्य की एक ऐतिहासिक तथा महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसका प्रकाशन स्टार पब्लिकेशन, नई दिल्ली द्वारा सन् 2001 में हुआ। इस सृजनात्मक रचना के लिए प्रो. सुबमनी जी को सन् 2003 में सूरीनाम में हुए सातवें विश्व हिन्दी सम्मलेन के अंतर्गत विश्व हिंदी सम्मान से पुरस्कृत किया गया हैं। 

 

‘फीजी माँ’ का अंश पृष्ठ 246-248

हम घूरा परचारकजी के। रमायन लाल तूल में बंधा टेबल पे धरान, छोटा परचारक गए रमायन खोल के सिंगहासन पे रखिस अउर खोजे लगा कहां बांचे के है। मंडली वाले लड़का के अगल बगल खड़ा होय गइन। सीतल जल्दी से फूल बाटिस। रसीका लपक के गई रूम से गेंदा के वास लई आई| टेबल पे रख के मूंड निच्चे करे, मुस्कात, आपन जगहा पे बइठ गई। काकी आँखी गड़ाइस रसीका पे। काकी के चेहरा देखते जाने सको का बोले माँगे: ई कउन कायदा है, घर के छोटी दुल्हनिया के। काकी के न रहाइस भय, बरबाइस,

“हद कर दिहिन। रामफल के तो बिधि बिधान अच्छा से जाने के चाही। कथा रोकाय दिहिस छोटकी।”

मंगलाचरन सरू भय। छोटका परचारक, देखे में दुबरा पतरा, लेकिन आवाज़ सुन के अउरतें मोहित होय लगिन। चौपाई पे धियान कमती, सबन के आँखी खुली अरथ बताय बाला छोटा परचारक पे। झुलाय के बताय जइसे वही तुलसीदासजी है। जादा सुध भासा में समझाय, खली कभी-कभी फिसल जाय गाँव के भासा बोले लगे, अउरे मीठास लगे।

“यदपी मंडली अभी किसकिंधा कांड पहुँचा, रामफलजी के आग्रह है हम लोग सुंदर कांड के कुछ अंश सुनाई। रामफलजी हनुमान के महान भक्त है हम लोग के माने के पड़ा।”

पता नईं रामफल के नाम के साथे महान कहाँ से जोड़ दिहिस। बड़ा महान भक्त है! लड़का तो अइसे बोलत जाय, पता नईं आगे चल के का करी ... ।

“आज हम सुंदर कांड के कुछ सुंदर सुंदर चौपाई, दोहा अउर छंद सुनायगें, थोड़ा बरनन करेंगे पवनपुत्र पर ... ।”

हम झाप में आँखी घुमावा। सब मूँह बाय के सुने। झाप कचाकच भरा। कहाँ से आइन सब। आधा नदी के ऊ पार के लगे, पहिराव अउर बातचीत से सको जुरते बताव। हम सोची हम लोग के गाँव सब से पिछड़ा है, ई लोग तो अउरे अकड़धक लगे। वहीं के दुई चार लड़कन पीछे खड़े रहिन हाथ बाँधे। लड़किन के देख मुस्की मारे। भास्कर जाय के डाँट के बइठारिस। 
 
मंडली सात दोहा पढ़ीन फिर आरती के वासते सब खड़ा होई गइन। बिंदा रुमाल में गठिआय के तीन पेनी रखे रही, हम्मे अउर बिमल के एक-एक पेनी पकड़ाइस आरती में छोड़े के। बिसरजन खूब जोस से गाइन। आखरी में हम लोग जोर से चिल्लावा, श्री रामचंद्रजी की जय, पवनपुत्र हनुमान की जय!

परसाद बटा: पंजीरी, खीरा, तरबूज अउर हलुआ। सबेरे रोठ चढ़ा, सब के मीठा रोटी मिला। हमार पलेट में खीरा अउर तरबूज पनजीरी में सनाय गय, कुछ मजा नईं लगा। रमायन खलास होते देर नइं झाप में सोरगुल शुरू। रामफल हाथ उठाय के चुप कराइस। जोर से खखार के गटई सफा करिस, अउर कोई के बोले बिना आपन भासन सुरु करिस,

“रामचरितमानस बिना हम फीजीवासी सब अनाथ हैं ... ।”

ककिया धीरे से फुसफुसाइस बिंदा के कान में।    

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