हमार गाँव
कविता | सरिता देवी चन्ददूर पहाड़न में बसा रहा,
आपन सुन्दर गाँव
हरा-भरा खेतन रहिन,
अउर अंगनम अमवक छाँव।
लोग मेहनती, करें
धान गन्ना के खेती
करें वहिम संतोक,
जो धरती मइया देती।
कोई मजूर गरीब,
कोई किसान गन्ना के
फिर भी रहा एकताई,
अउर सुम्मत जनता में।
फिर बना गाँव में,
एक स्कूल अउर मन्दिर
सिक्छा के सम्मान रहा,
सब लोगन के अन्दर।
सुखी रहिन सब, चले ऊ
गऊँअम एक मण्डली
करें मदद सब में, चाहे
होए सादी या मरकी।
भये मुसीबत, ख़तम भये
जब जमिनवक लीस
मतंगाली जमीन लईके,
बस घराईक जगह दिहिस।
करिन लोग रातू से,
रोए-रोए के बिनती अइसा
दइदो हमको लीस,
पर ऊ माँगे ढेर पइसा।
रोवत–गावत, आपन
पुरखन के धरती छोड़ीन
बिखर गइन सब इधर–उधर,
जीवन डग मोड़ीन।
का जानत रहिन कि,
एक दिन अइसन भी आई
आपन समझिन जिसके,
वही होई जाई पराई।
आज हुँवा जंगल है खड़ा,
जहाँ रहा ऊ सुन्दर गाँव
ना हरा - भरा खेत रही गय,
ना ऊ अमवक छाँव।
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