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अरुण यह मधुमय देश हमारा

इधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश मे स्थित राजीव गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से अल्पकालिक अध्यापन के लिए निमंत्रण आ रहे थे और मैं अपनी अकादमिक व्यस्तताओं के कारण इस निमंत्रण को मानसिक रूप से स्वीकार करने बावजूद कार्यान्वित नहीं कर पा रहा था। लेकिन पहली बार मैंने इस विस्मयकारी रहस्यमय (मेरे लिए) सौदर्ययुक्त भारत की उत्तरी सीमाओं के प्रहरी प्रदेश मे सन् 2012 के नवंबर महीने में एक सप्ताह के लिए संकोचपूर्ण अन्यमनस्कता के साथ जब प्रवेश किया, तो वह अनुभव अन्य यात्राओं से अनेक दृष्टियों से नितांत भिन्न और रोचक रहा। भारतीय भूखंड मे ऐसे भी अंचल और भू प्रदेश हैं, जो आज की तथाकथित जनहित का दंभ भरने वाली केंद्र और राज्य सरकारों की इस कदर उपेक्षा का पात्र हो सकते हैं - देखकर मन भर आया। अचरज होता है यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था और शासकीय कुव्यवस्था और नागरिक सुविधाओं के प्रति शासन की उदासीनता देखकर। सुचारु शासन और जनसुविधाओं का नितांत अभाव ही नहीं बल्कि गाँवों, कस्बों और राजधानी नगर कहलाने वाला शहर ईटानगर की भी दुर्गति देखकर कोई भी पर्यटक और राहगीर केवल यही दुआ माँगेगा कि सरकारी व्यवस्था को सत्बुद्धि प्रदान करे और शासकगण यहाँ की जनता के प्रति मानवीयता की दृष्टि से ही कम से कम न्यूनतम नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध करवाएँ। गुवाहाटी से ईटानगर पहुँचने के लिए केवल सड़क मार्ग ही उपलब्ध है। ईटानगर के लिए न तो विमान सेवा ही उपलब्ध है और न ही रेल सेवा। दुर्गम पर्वतीय प्रदेश होने के कारण सड़क मार्ग भी जोखिम से भरा है, भूस्खलन की समस्या गंभीर है, जिस कारण घनघोर वर्षा से अक्सर घाटी प्रांत मे घुमावदार संकरी सड़कें भूस्खलन से अवरुद्ध हो जाती हैं। जलभराव की स्थिति इस मार्ग पर आम है। राजमार्ग नियमित रखरखाव के अभाव मे जगह-जगह पर ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों मे तबदील हो गए हैं और भारी से लेकर हल्के वाहन तक इसी जोखिम भरे लंबे रास्तों पर डरे-डरे सहमे-सहमे किसी तरह अपनी मंज़िल तक पहुँचते हैं। इस मार्ग पर नदी नालों की बहुतायत से कदम कदम पर सँकरे से अति सँकरे छोटे से लेकर बड़े पुल मौजूद हैं जिनकी जर्जर अवस्था देखकर वाहन चालकों के पसीने छूटने लगते हैं। इन्हीं रास्तों से गुवाहाटी से राजीव गाँधी यूनिवर्सिटी, ईटानगर तक की दूरी हमने लगभग 12 घंटों में तय की थी। राजीव गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय वास्तव में ईटानगर से पहले दुईमुख नामक गाँव रोनो हिल्स पर स्थित है। दुईमुख से ईटानगर की दूरी करीब 30 किलोमीटर की है। रोनो हिल्स एक पहाड़ी है जिस पर वन्य प्रांतीय खूबसूरत सा एक बड़ा सपाट भूभाग है जो विश्वविद्यालय परिसर के लिए उपयुक्त होने कारण यहाँ विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी।

असम राज्य से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने के लिए मंदरदेवा नामक गाँव में सैनिक चौकी बनाई गयी है जो अरुणाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार है। अरुणाचल प्रदेश में स्वच्छंद प्रवेश की सुविधा नहीं जिस कारण लोगों को विशेष अनुमति-पत्र प्राप्त करना होता है। यह प्रवेश-पत्र गुवाहाटी अथवा दिल्ली स्थित अरुणाचल प्रदेश के गृहमंत्रालय के अधिकृत कार्यालय द्वारा जारी किया जाता है। मेरे लिए राजीव गाँधी विवि का निमंत्रण पत्र और कुलसचिव का आधिकारिक पत्र प्रवेश के लिए पर्याप्त था। इस औपचारिकता की सूचना मुझे पहले प्राप्त हो चुकी थी। पहली बार मुझे यह सब कुछ अजीब सा लगा। मैंने अनेक यूरोपीय देशों की यात्राएँ की हैं जहाँ वीज़ा द्वारा प्रवेश प्राप्त होता है कुछ ऐसी ही व्यवस्था हमारे ही देश में एक राज्य विशेष में प्रवेश करने के लिए प्रचलन में है, इसे जानकार आश्चर्य हुआ।

राजीव गाँधी विवि तक पहुँचने की पहली बार की यात्रा बहुत ही थकान से भरी, सड़कों की बुरी हालत के कारण खीझ पैदा करने वाली और अंतहीन यात्रा का आभास कराने वाली लगी। गाड़ीवान और मैं दोनों उस रास्ते पर नए थे, रात के दस बजे के आसपास मंज़िल के करीब पहुँचकर रास्ता भटक गए। अरुणाचल में शाम को अँधेरा होने के बाद सड़क पर सन्नाटा छा जाता है और भटके हुए राहगीर को सही रास्ता दिखाने वाला भी दुर्लभ हो जाता है। हमें बार-बार हमारे आतिथेय को फोन पर संपर्क कर बार-बार रास्ता पूछना पड़ता। दुईमुख से रोनो हिल्स पर पहुँचने का घुमावदार संकरा पहाड़ी रास्ते पर हमारे पथ-प्रदर्शक डॉ. ओकेन लेगो अपनी बाईक पर आगे-आगे चलते हुए हमारी गाड़ी को अपने साथ लेकर चले तब कहीं हम जाकर रात के बारह बजे राजीव गाँधी विवि के गेस्ट हाऊस पहुँचे थे।

नवंबर 2012 में मेरा प्रवास केवल एक सप्ताह का ही था। उस दौरान मैंने विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कुछ विशेष व्याख्यान दिए थे। उस एक सप्ताह के प्रवास में मैं विश्वविद्यालय परिसर में अपना समय गुज़ारने के लिए विवश था। काफी ठंड थी और परिसर से बाहर जाने के कोई साधन नहीं थे। विश्वविद्यालय परिसर से नीचे दुईमुख गाँव में जाने के लिए दिन में तय समय पर सीमित बसें फेरा लगाती हैं लेकिन वह मेरे लिए सुविधाजनक न होने से मैं कहीं घूम नहीं सका था। लेकिन मुझे विभागीय मित्रों ने मार्च 2013 में दुबारा आने का निमंत्रण दिया जिसे मैंने वहीं स्वीकार किया। मुझे मार्च में तीन सप्ताह के लिए जाना था। पहली बार के यात्रा अनुभव ने मुझमें इस रोचक, रोमांचक और मनमोहक नैसर्गिक सौंदर्ययुक्त प्रदेश के प्रति विशेष भावनात्मक लगाव पैदा कर दिया था, जिससे मैं मार्च के महीने में गुवाहाटी - ईटानगर मार्ग की सारी असुविधाओं और विषम स्थितियों के बावजूद राजीव गाँधी विवि के परिसर की ओर खींचा चला आया।

पहली बार के अनुभव ने मुझे इस बार कुछ अतिरिक्त तैयारी के साथ आने में मदद की। मैं हैदराबाद से विमान द्वारा बेंगलोर होते हुए सीधा गुवाहाटी पहुँचा जहाँ से मुझे विवि द्वारा मुहैया की गयी कार में फिर वही 500 किलोमीटर लंबा रास्ता तय करते हुए राजीव गाँधी विवि पहुँचना था। नई इन्नोवा कार के साथ एक युवा उत्साही ड्राइवर का साथ मिला। उसने गुवाहाटी हवाई अड्डे से निकलते ही अपना इरादा तेज़ रफ्तार से स्पष्ट कर दिया। आसामिया भाषी कार चालक रास्ते के भूगोल को मुझे समझाता हुआ मेरी यात्रा को सरस बनाने की हर कोशिश करने लगा। उसने मुझे कुछ कर्णप्रिय असमिया संगीत से परिचय कराया। हम बहुत तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। तीन घंटों तक कार सौ कि.मी. की रफ्तार से दौड़ती रही। इस बीच मैंने कुछ झपकियाँ ले लीं। मौसम सुहावना था। असम और अरुणाचल का मौसम मार्च के महीने में ठंड कम होने लगती है और मौसम में एक ख़ास तरह की नमी के बावजूद ख़ुशनुमा हो जाता है। तेज़पुर हाईवे पर हम चल रहे थे और नौगाँव नामक एक कस्बे के बाहरी इलाके में सड़क किनारे के एक ढाबे में भोजन करने के लिए हमने अपनी रफ्तार को भंग किया और कुछ देर के लिए अपने वाहन से उतरे। हाईवे के उस ढाबे का नाम भी हाईवे ढाबा ही था जिसमें बढ़िया सस्ता भोजन खिलाया मेरे मोटर चालक ने। मैं नई जगहों पर स्थानीय भोजन और वहाँ की खान-पान की शैलियों की जानकारी लेने में आनंद का अनुभव करता हूँ। यहाँ के लोग चावल (भात) और मछली पसंद से खाते हैं और यही उनका सामान्य भोजन है। मैं भी मछली पसंद करता हूँ लेकिन उस नई जगह में मछली का सालन मँगाने मे मैंने संकोच किया और दाल रोटी से ही स्वयं को संतुष्ट कर लिया। हमने अपनी आगे की यात्रा उसी रफ्तार से शुरू की लेकिन आगे का रास्ता बहुत ही खराब होने के कारण हमारी रफ्तार बहुत धीमी हो गयी। इस रास्ते में हमें ब्रह्मपुत्र नद को पार करना होता है। मैं इसी की प्रतीक्षा में था। अपनी पहली यात्रा में मैं ब्रह्मपुत्र के दर्शन नहीं कर पाया था क्योंकि हम रात के अँधेरे में नदी पार किए थे। इस बार मैं ब्रह्मपुत्र के दर्शन से नहीं चूकना चाहता था और अभी शाम का काफी उजाला शेष था।

दूसरी बार की यात्रा सुखद रही और बिना किसी कठिनाई के मैं अपने गंतव्य तक पहुँच गया। इस बार कुछ नया नहीं था। सारे विभागीय प्राध्यापक पहले ही मेरे मित्र बन चुके थे। विभाग में एम.ए., एम.फिल. और पीएच. डी. के छात्रों से मेरा परिचय पूर्व-सत्र में हो चुका था। राजीव गाँधी विवि में हिंदी विभाग में प्रति वर्ष 45 छात्रों को प्रवेश मिलता है जिसमें लड़कियों की संख्या दो तिहाई होती है। यहाँ के छात्रों में मुझे अतिरिक्त रूप से अध्ययन के प्रति रुचि, उत्साह और एक विशेष तरह का अनुशासन देखने को मिला। इन विद्यार्थियों की कक्षाओं को पढ़ाने में मुझे एक विशेष प्रकार के आनंद और संतोष का आभास हुआ जो कि मेरे पूर्व-अध्यापकीय अनुभव से भिन्न प्रतीत हुआ। यहाँ अपने अध्यापकीय दिनों में मैंने यहाँ के लोगों के जीवन के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्ष को जानने के लिए विभागीय साथियों और छात्र-छात्राओं से बातचीत कर मैंने अरुणाचल प्रदेश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति को आत्मसात करने का प्रयास किया। इस प्रयास में मेरा एक तरह से बौद्धिक प्रक्षालन हुआ और अनेकों भ्रांतियों का निवारण तथा संदेहों का निराकरण भी हुआ। यहाँ रहने वाली 22 जनजातियों के जीवन-शैली की विविधताओं का ज्ञान मुझे पहली बार हुआ। इन जनजातीय समाजों में आंचलिक पृथकता होते हुए भी उनमें इस राज्य की सांस्कृतिकता को अरुणाचली संस्कृति की विशेष पहचान दिलाने में इन सभी लोगों की समान भूमिका है। यहाँ इनमें से हरेक जनजाति का रहन-सहन, आचार-विचार, तीज-त्योहार, परम्पराएँ, भाषा, पहनावा और वेश-भूषा अपने मूल रूप में आज भी सुरक्षित हैं।

इस प्रवास में मुझे विभागीय साथियों ने अमरेन्द्र त्रिपाठी, हरीश शर्मा, अभिषेक यादव, सुश्री जमुना और ओकेन लेगो आदि ने ईटानगर और उसके आसपास के इलाकों का भ्रमण कराया। ईटानगर में पहाड़ी पर एक खूबसूरत उपवन के मध्य स्थिति बौद्ध मठ देखने का पहला अवसर मुझे यहाँ प्राप्त हुआ जहाँ शताब्दियों पूर्व गौतमबुद्ध आए थे और आज भी वहाँ बौद्ध भिक्षु ध्यान करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थों का संग्रह भी वहाँ सुरक्षित है। उसी क्रम में एक जनजातीय संग्रहालय देखने का सुअवसर मुझे मिला जहाँ कि अरुणाचल के बाईसों जनजातियों की पारंपरिक पोशाकें, शताब्दियों से सुरक्षित उनके कर्मकाण्ड और रीति-रिवाजों की झाँकियाँ, उनके काम के औज़ार और शिकार तथा युद्ध के अस्त्र-शस्त्र आदि प्रदर्शित किए गए हैं। यह अपने आप में एक अनूठा और विरला संग्रहालय है जो यहाँ की कला और संस्कृति का आईना है। ईटानगर वैसे तो इस राज्य का राजधानी नगर है किन्तु इसका पिछड़ापन देखकर हैरानी होती है।

पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण शहर सारा सीढ़ीनुमा भूमि पर निर्मित हल्के-फुल्के एक-मंज़िले मकानों में बसा हुआ है। शहर बेतरतीब बसा है, पर्यटकों के लिए कोई सुविधा नहीं दिखाई देती, हालाँकि यह प्रदेश पर्यटन के लिए बहुत ही आकर्षक और उपयुक्त है लेकिन सुविधाओं के अभाव में यहाँ कोई सैलानी आसानी नहीं आ पाता। ईटानगर विमान सेवा से भी अभी तक नहीं जुड़ पाया है। कुछ एक अति विशिष्ट ऊँचे ओहदे के सरकारी अफसरों की पहाड़ों पर बनी सुंदर कोठियों के अलावा यहाँ दर्शनीय इमारतें या कलात्मक भवन नहीं दिखाई पड़ते। अरुणाचल पेरदेश और असम के कुछ हिस्से तीव्र भूकंपीय क्षेत्र के अंतर्गत अंकित हैं इसलिए इस प्रदेश में मकान इकमंज़िला होते हैं। यहाँ के रिहाइशी मकानों में लकड़ी और टीन के साथ हल्की निर्माण सामग्री का उपयोग किया जाता है। मकानों के छत त्रिकोणात्मक ढलान वाले होते हैं जिससे वर्षा का जल आसानी से बह जाए। अरुणाचल प्रदेश का बड़ा हिस्सा चाय बागानों से भरा है। मीलों दूर तक मुख्य मार्ग के दोनों ओर सुंदर चाय के केवल दो फुट ऊँचे पौधे एक विशेष आकार के कालीननुमा दृश्य बनाते हैं। चाय के ये पौधे एक ही ऊँचाई में बढ़ते हैं और इनकी कोमल (कोंपलों) को स्थानीय औरतें अपनी रंग-बिरंगी पारंपरिक पोशाक (गाले) पहने सुकोमल नाज़ुक उँगलियों से विशेष निपुणता के साथ हल्के से तोड़कर पीठ पर बंधे हुए विशेष आकार की लंबी टोकरियों में पीछे की ओर डालती जाती हैं। ये उँगलियाँ खास तरह के पके एक खास रंग लिए पत्तियों को ही तोड़ती हैं। इन बागानों में चाय पत्तियों को तोड़े जाने के दृश्य मनोहारी और विशेष आकर्षण का केंद्र होती हैं। मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए इस तरह के दृश्य मनमोहक होते हैं। मैं जगह-जगह गाड़ी रोककर इन दृश्यों को निहारता और फिर आगे बढ़ जाता।

मेरा राजीव गाँधी विवि का दूसरा प्रवास मुझे भावनात्मक धरातल पर अरुणाचल प्रदेश के और अधिक निकट ले गया। मेरे भीतर कहीं इस प्रदेश के निवासियों के प्रति भावुकतापूर्ण सहानुभूति और आत्मीयता का भाव जाग उठा। कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ जब मैंने हासिल कीं तो पता चला कि अरुणाचल प्रदेश की राजभाषा अंग्रेजी है और संपर्क भाषा हिंदी। अपनी अपनी जनजातीय भाषाओं के साथ-साथ यहाँ के निवासियों में हिंदी के प्रति विशेष प्रेम और लगाव है। बोलचाल में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं, जिसे देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ और प्रसन्नता भी हुई। विवि परिसर में हिंदी ही चलती है। सार्वजनिक स्थानों में हिंदी ही सुनाई देती है और लोग हिंदी में बोलना ही पसंद करते हैं, विशेषकर शिक्षित बुद्धिजीवी भी। परिसर में सभी छात्र आपस में अपनी-अपनी जनजातीय भाषाएँ बोलते हैं और साथ ही अन्य लोगों के साथ हिंदी में व्यवहार करते हैं। यहाँ के आम और खास, सभी लोगों की बोलचाल की हिंदी स्थानीय रंग और शब्दों के साथ विशेष लहजे में सुनाई देती है जो पहले तो थोड़ी सी अटपटी ज़रूर लगती है लेकिन धीरे-धीरे मन मोह लेती है। इसका कारण यहाँ के निवासियों की सरलता और सादगी भरा हृदय है। निश्छल और निर्मल हृदय उनके व्यवहार में पारदर्शी होकर झलकता है।

इस विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग विशेष उल्लेखनीय है क्योंकि यहाँ स्नातकोत्तर स्तर का पाठ्यक्रम देश के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों में चालू पाठ्यक्रमों की तुलना में अधिक गरिष्ठ और व्यवहारिक दिखाई देता आ है। मुझे यहाँ के पाठ्यक्रम को पढ़ाने में विशेष आनंद का अनुभव हुआ। विभाग के छात्रों की अनुशासनपूर्ण ग्राह्य शक्ति प्रशंसनीय दिखाई दी। किन्तु इन होनहार छात्रों के लिए अध्ययन सामग्री का अभाव खलता है। पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध नहीं होतीं। डाक तथा अन्य पत्र सेवाएँ, इस भूभाग की दुर्गमता और विषमता के कारण देश के मुख्य भाग से डाक द्वारा संपर्क कठिनाई से हो पाता है। पत्र और इतर सामग्री यहाँ बराबर नहीं पहुँच पातीं। निजी सेवाएँ भी असंतोषजनक हैं। संचार माध्यम पूरी तरह से यहाँ परिसर और इर्दगिर्द के क्षेत्रों में विकसित नहीं हो पाये हैं। इन्टरनेट की सुविधा विश्वविद्यालयी नियंत्रण में है जो कि अनियमित और अस्थिर रहती है। मोबाईल फोन की सेवाएँ उपलब्ध होती हैं लेकिन यह भी अनियंत्रित और अनिश्चित सी रहती है। इन सबके बावजूद विश्वविद्यालय में नियमित रूप से कक्षाएँ चलती हैं। सभी विभागों में अतिथि प्राध्यापक बाहर से आमंत्रित होते हैं और जो अपनी शैक्षिक सेवाएँ देकर चले जाते हैं। विश्वविद्यालय का गेस्ट हाऊस प्रांगण स्वच्छ साफ सुथरा और सुंदर पृष्ठभूमि में बना हुआ है। इसमे न्यूनतम सुविधाएँ अतिथियों के उपलब्ध हैं। मैं भी अपने प्रवास के दिनों में यहीं ठहरता हूँ। यहाँ के कर्मचारी और अन्य परिचारक गण सौम्य और स्नेहपूर्ण हैं जो अपने अतिथियों का ख्याल आत्मीय भाव से रखते हैं। यहाँ समूचे परिसर में महिला कर्मियों की संख्या अधिक है। इस प्रदेश में महिलाएँ पूरी तरह आत्मनिर्भर तथा आत्मविश्वास से लबालब सरोबार दिखाई देती हैं। सेमुएल, कृष्णा और कृष्णा - ये लोग रसोईघर के कर्मी हैं। ये सभी मेरे आत्मीय हो गए हैं। मेरे प्रति उनका व्यवहार कुछ विशेष ही रहता है। जिससे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि वे मुझे पसंद करते हैं। वे सदैव मेरी सहायता करने को तत्पर दिखाई देते हैं।

प्रात:काल में गेस्ट हाऊस के बाहर, चारों और का दृश्य मनोहारी और रमणीय होता है। सुदूर उगते सूरज की हल्की हल्की उजली किरणें देखने के लिए मैं पाँच बजे के आसपास उठकर गेस्ट हाऊस के फाटक तक पहुँचता हूँ, सुबह की ताज़ी ठंडक गालों को छूकर नम कर देती है। कुछ दूर यूँ ही पैदल चलाने लगता हूँ। सामने खुला मैदान है, जिसमें सुबह के टहलने वाले स्त्री-पुरुष रंग बिरंगे शाल और अन्य ऊनी आवरण ओढ़े हुए चहलकदमी करते हुए दिखाई देते हैं। मैं उस मैदान का एक चक्कर लगाकर लौट आता हूँ। यह सिलसिला मैं कुछ ही जारी रख पाया। बढ़ती ठंड ने मुझे सुबह के समय बाहर नहीं निकलने दिया और देर सुबह तक गर्म बिछौने से चिपके रहने की मुझे आदत पड़ गई।

राजीव गाँधी विश्वविद्यालय परिसर में प्रवास के दिनों में मैंने अपनी दिनचर्या को कुछ नए सिरे से रूपायित करने लगा क्योंकि यहाँ का मेरा काम सीमित था। सुबह 9.30 बजे से मध्याह्न 2 बजे तक कक्षाएँ पढ़ाता था फिर गेस्ट हाउस की राह लेता। हमारा विभाग गेस्ट हाऊस से नज़दीक ही है इसलिए किसी वाहन की ज़रूरत नहीं पड़ती यहाँ पर। गेस्ट हाऊस पहुँचकर कभी भोजन करता या फिर यूँ ही कुछ हल्का-फुल्का खाकर काम चला लेता। मेरी शामें अकेले गुज़रतीं। सामने के मैदान के दूसरी छोर पर एक छोटा सा काम चलाऊ कैंटीन है जहाँ शाम को पराठे अच्छे मिलते हैं। तो वहीं जाकर रोज शाम को दो पराठे खा लेता था। धीरे-धीरे उस कैंटीन की मालकिन से परिचय हुआ। मैं उस अधेड़ उम्र की अरुणाचली औरत को ध्यान से देखता। कैंटीन चलाने का उसका कौशल और उसकी तत्परता मुझे बाँधे रखती। उस औरत के तीन-चार बच्चे सभी पढ़ते थे और कैंटीन का काम भी देखते थे। उस के पति भी कभी-कभी नज़र आ जाते। उनसे भी मेरी दोस्ती होने लगी। अब रोज़ शाम को वे मेरा इंतज़ार करने लगे। उस कैंटीन के पराठों से मेरा रागात्मक संबंध बन गया। बीच में कभीकभी 'मैगी' भी खा लेता था। इधर गेस्ट हाऊस में मेरे न खाने से वहाँ के लोग थोड़ा खिन्न हुए लेकिन मैंने अपनी मजबूरी बताई कि मुझे उनका खाना नहीं भाता है तो उन्होंने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और मेरी उस गुस्ताखी को माफ कर दिया।

वक्त कभी किसी के लिए नहीं थमता। मेरे तीन सप्ताह पूरे होने को आ रहे थे। मुझे घर लौटने कि जल्दी हो रही थी। एक ऊब सी पैदा हो चुकी थी। दिन भर मन लग जाता लेकिन शाम को मुझे उदासी घेर लेती। पढ़ने में अधिक से अधिक समय बिताता लेकिन फिर भी घर की याद सताती, और भी इतने सारे लोग मेरे साथ जुड़े हुए हैं जिनकी दूरी खलती है। 'भास्वर भारत' पत्रिका काम मैं यहीं से देखता हूँ। उसके लिए आवश्यक लेख यहीं से लिखकर भेज दिया हूँ। फिल्मी समीक्षाएँ और एक लेख भी भेजा है। यदि मुझे अपने ही गृहनगर में कोई स्थाई काम मिल जाता तो मुझे यहाँ इतनी दूर नहीं आना पड़ता। मुझे हर पल यह स्थिति दुःख देती है। मुझमें अभी भी इतनी अध्यापकीय क्षमता शेष है जिसका उपयोग अपने ही शहर के लोग कर सकते हैं किन्तु मुझे यह अवसर नहीं मिलता। कभी-कभी मैं अपने भाग्य को कोसता हूँ। मुझे जीवन में संघर्ष कभी पीछा नहीं छोड़ेंगे।

मेरे दूसरे प्रवास में विभाग में मैंने पूरे 21 दिन पढ़ाया। छात्र सभी बहुत संतुष्ट हुए। एम.ए. प्रथम और द्वितीय, और एम.फिल. की कक्षाएँ लीं। भारतीय साहित्य, हिन्दी कहानी, उपन्यास और शोध प्रविधि जैसे विषयों को लगन और मेहनत के साथ पढ़ाया। सभी प्राध्यापकों का दिल जीता है। सबका व्यवहार मेरे प्रति सौहार्द पूर्ण रहा।

फिर अगले सत्र में आने का वादा करके मैं अपने गृहनगर के लिए वापस चल पड़ा।

ईटानगर अरुणाचल प्रदेश की ये मेरी द्वितीय प्रवास की यादें हैं।

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