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इतनी  गोंद कहाँ से लाऊँ

रिश्तों के पन्ने बिखर गए हैं,
कैसे इनको समेट कर लाऊँ,  
चिपकन देखो ख़त्म हो गयी, 
इतनी गोंद कहाँ से लाऊँ?

 

कुछ तो उड़कर दूर निकल गए, 
कुछ मुड़े-तुड़े... कोने में पड़े हैं,  
कुछ थोड़ा सा उखड़े, निकले   
लेकिन अब भी जुड़े हुए हैं।  
रिश्तों के उलझे मत्स्य जाल को,
कैसे खोलूँ कैसे सुलझाऊँ?
   
चिपकन देखो ख़त्म हो गयी, 
इतनी गोंद कहाँ से लाऊँ?  

 

हर एक पन्ने की लेकिन, 
अपनी अमिट कहानी है, 
सच्ची, झूठी, खट्टी या मीठी,
सबकी पहचान निराली है 
रिश्तों के चिरस्मरणीय पलों को, 
कैसे भूलूँ कैसे सहलाऊँ? 

 

चिपकन देखो ख़त्म हो गयी, 
इतनी गोंद कहाँ से लाऊँ?
 

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टिप्पणियाँ

रामदयाल रोहज 2019/06/17 01:04 PM

नीरूजी बेहतरीन कविता

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