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साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न

मानव अधिकारों की संकल्पना मनुष्य के व्यापक जीवन दर्शन पर आधारित है, जिसके घेरे में सम्पूर्ण जीवन और सामाजिक व्यवस्था स्वत: ही आ जाती है। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। अत: जीव मात्र से जुड़ना, उसका संरक्षण करना तथा उसके सृजनात्मक विकास में सहभागी होना साहित्य का महत्वपूर्ण सरोकार होना चाहिए। साहित्य का मूल बोध व्यक्ति को अनुप्रामाणित और अनुशासित करता है तथा साहित्य में मानव अधिकारों का परिलक्षित होना साहित्य को तो संस्कारित ही नहीं करता अपितु साहित्य को मानव के और अधिक क़रीब लाने की भूमिका निभाता है। 

साहित्य का मानवाधिकारों का सहोदर होना साहित्य को समाज के क़रीब और क़रीब होने अहसास कराता है। साहित्य मानव के भीतर स्वतंत्रता, सृजनशीलता और सामाजिक रिश्ते की बुनियाद को ही पुख़्ता नहीं करता अपितु समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। वास्तव में साहित्य और मानवाधिकार के परस्पर मिलान से साहित्य की ज़मीन ही ज़्यादा पुख़्ता होती है...मानवाधिकारों की रक्षार्थ संबल तो मिलता ही है। साहित्य में मानवाधिकारों के हनन की चर्चा होना, शासन और प्रशासन दोनों पर एक अनदेखा प्रभाव डालता है कि उसे मानवाधिकारों की रक्षार्थ अपने हाथ खोलने ही पड़ते हैं।

साहित्य में मानवाधिकारों की दशा और दिशा पर प्रकाश डालने का काम वर्तमान में ही नहीं... कबीर, रहीम, संत रैदास ...और भी न जाने कितने लोगों द्वारा लोक-साहित्य के ज़रिए सदियों से होता आ रहा है। ज्ञान, परम्परा या विचार के विकास का प्रश्न मूलत: शिक्षा पर केन्द्रित है किंतु साहित्य केवल उपलब्ध शैक्षिक ज्ञान का सम्‍प्रेषण ही नहीं बल्कि मानव-मानव के अनुभव पर भी विस्‍तार पाता है। हमारे संत कवि इसके प्रमाण हैं, जिन्होंने शैक्षिक ज्ञान के आधार पर नहीं...अपने अनुभव के आधार लोक-साहित्य की रचना की थी। जो आज भी प्रासंगिक है और आगे भी रहेगी। दरअसल साहित्य एक प्रकार का आत्‍मसृजन है जो मानवीय संवेदनाओं और गरिमा को एक साथ जोड़कर उसे अपने अस्तित्व और दायित्व के निर्वहन की पहचान करवाता है।

एक समय था कि मानवाधिकारों के हनन और दलन की बात कविता में ज़्यादा होती थी, गद्य साहित्य का इस ओर सहयोग या तो था ही नहीं, या फिर ना के बराबर था। वर्तमान में जबकि साहित्य की अनेक शाखाएँ पनप रही हैं... गद्य साहित्य में भी मानवाधिकारों की चर्चा खुलकर की जा रही है। विशेषकर "दलित साहित्य", "अम्बेडकरी साहित्य", "जनवादी साहित्य" , "बहुजन साहित्य" व "मूलनिवासी साहित्य" के उद्‌भव के साथ-साथ कविता में ही नहीं... गद्य साहित्य में भी मानवाधिकारों को विषय बनाया जा रहा है। किंतु आज भी मानवाधिकारों से जुड़े प्रश्न कविता में ही ज़्यादा स्पेस पा रहे हैं। इस बारे में में डॉ. दयाराम कहते हैं कि मानव-मूल्यों व मानवाधिकारों का आपसी घनिष्ठ सबंध है। मानवाधिकार संविधान देता है और उनका संरक्षण मानव-मूल्य करते हैं। वर्तमान समय में मानवाधिकार साहित्य चिन्तन का प्रमुख विषय है। आधुनिक हिन्दी कविता मानव को मूल्य बोध करवाते हुए, भारतीय संस्कृति के साथ जीवन यापन का संदेश देती है। कविता मानव-मूल्यों के संरक्षण के माध्यम से मानवाधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के दायित्व का निर्वाह करती है। कविता का धरातल मानवीय है, जिसका ध्येय सत्य, अंहिसा, करुणा, मैत्री और विश्व-बंधुत्व के साथ ही मानवाधिकार के महामंत्र-स्वतंत्रता, समता और न्याय का आह्वान है। भारतीय जीवन-मूल्यों से ओतप्रोत हिन्दी कविता मानव को समरसता, समानता के मार्ग पर प्रशस्त करती है।

भारतीय समाज में पूँजीपति ज़मींदार शक्तिशाली लोग कमज़ोर तथा ग़रीब लोगों का शोषण करते हैं उनसे दुर्व्‍यवहार करते हैं। आर्थिक कुचक्र ने समाज को बुरी तरह कुचल दिया है। स्त्री, औरत, दलित व बच्चों की हरेक स्तर पर अनदेखी हो रही है और उन्हें समाज में हाशिए पर रख कर, उनके अधिकारों का सरेआम हनन हो रहा है। ऐसे में साहित्यकार का दायित्व और भी बढ़ जाता है कि साहित्यकार समाज में व्याप्त अव्यवस्था पर और भी ज़ोरों से अपनी क़लम को शक्ति प्रदान करे। किंतु आजकल साहित्यकार और साहित्य के मायने जैसे कुछ-कुछ बदलते जा रहे हैं। संजय कुन्दन के अनुसार आज के साहित्कार साहित्यबाज़ की भूमिका में आते जा रहे हैं। अक़्सर साहित्यकार, यह सोचकर परेशान रहते हैं कि उनका लिखा कोई पढ़ भी रहा है कि नहीं।...अब इनसे कोई पूछे कि आज की भागदौड़ की ज़िंदगी में किसके पास इतना टाइम है कि तुम्हारा लिखा पढ़ेगा। अब लिखने वाले हो गए हैं हज़ारों। पढ़ने वाले उतने हैं नहीं। फिर कौन किसको पढ़ेगा। कुछ साहित्यकारों का यह भी मानना है कि अगर रचना में दम होगा तो लोग खोजकर पढ़ेंगे। किंतु साहित्यबाज़ साहित्यकारों का कहना है कि अब वो ज़माना गया जब लोग पाठक की भूमिका में पाए जाते थे। अब रचना का समय नहीं है, आज रचनाकार का समय है। लोग रचनाकार को जानते हैं, रचना को महत्त्व नहीं देते। साहित्यबाज़ों का मानना है कि हमें देखो, हमारा नाम हर किसी की ज़ुबान पर है। लेकिन यदि किसी से हमारी पुस्तक का नाम पूछा जाए तो लोग बगले झाँकने लगते हैं। किसी को हमारी रचना के बारे में कुछ भी पता नहीं, फिर भी समकालीन लेखकों में हमारा नाम है। जानते हो क्यों? जो हमारा नाम लेते हैं, उन्होंने शायद ही हमें पढ़ा हो। बिना पढ़े हमें महत्वपूर्ण रचनाकार मानते हैं। क्योंकि आज लेखक को ख़ुद को स्थापित करना पड़ता है। लेखकों, संपादकों, आलोचकों आदि की आँख में उँगली डालकर बताना पड़ता है कि देख मैं भी हूँ।...अब यह जानने की बात है कि यह कैसे किया जाता है। इसके लिए हमेशा फ़ेसबुक पर मँडराते रहना पड़ता है। सीनियर हो या जूनियर, सभी लेखकों की हर टिप्पणी, फोटो आदि को लाइक करना पड़ता है। अब जैसे किसी वरिष्ठ लेखक ने अपनी फोटो डाली तो तुरंत कमेंट किया, "आप तो छा गए सर।" या "आपकी उम्र का तो पता ही नहीं चलता।" वे जो अंट-शंट लिखते हैं, उनके पक्ष में खड़ा होना पड़ता है। यह सब कोई भी कर सकता है। फ़ेसबुक पर तुम जिसको लाइक करोगे, वह भी तुमको लाइक करेगा। सबकी कविताओं को बिना पढ़े लाइक और शेयर करते जाओ। फिर हर साल एक किताब लाओ। किताब आने से पहले उसके बारे में रोज़ फ़ेसबुक पर कुछ बताओ। कवर बन जाए, तो उसे फ़ेसबुक पर डालो। फिर कुछ वरिष्ठों से उसका लोकार्पण करवाओ। यह कोई कठिन काम नहीं है। पुस्तक मेले में कुछ बुज़ुर्ग लोकार्पण करने के लिए लालायित रहते हैं। वे आसानी से उपलब्ध हो जाएँगे। लोकार्पण की तस्वीरें कई दिनों तक फ़ेसबुक पर डालते रहो। उसके बाद भी उसकी चर्चा जारी रखो। कभी फोटो डालो कि गाँव का एक बुज़ुर्ग तुम्हारी किताब पढ़ रहा है। कोई छात्र तुम्हारी किताब पढ़ रहा है। फिर साहित्य के किसी इवेंट मैनेजर को पकड़ो। वह उस पर गोष्ठी रखवा देगा। तुम जिनकी पोस्ट लाइक करते रहे हैं वे सब तुम्हारी किताब पर बोलने ज़रूर आएँगे, बिना उसे पढ़े हुए ही। बस! हो गया काम... बन गए आप नामचीन लेखक। इस तरह एक साहित्यबाज़ साहित्यकार बन जाता है और साहित्य का मूल उद्देश्य/ प्रयोजन पीछे रह जाता है।

इस बाबत फ़ेसबुक पर आए फूलचंद गुप्ता जी की अधोलिखित पंक्तियाँ का उल्लेख करना मुझे उचित ही लगता है। फूलचन्द जी कहते हैं- “सामाजिक यथार्थ से कटा हुआ लेखन अव्वल तो साहित्य होता ही नहीं। किंतु, दुराग्रह के चलते क्षण भर के लिए उसे यदि साहित्य मान भी लिया जाए तो भी वह लेखन पानी के उन बुलबुलों के सदृश्य होता है जो वर्षा के दिनों में क्षण भर में जन्म लेते हैं और दूसरे ही क्षण फूट कर ख़त्म हो जाते हैं। उस लेखन का कोई भविष्य नहीं होता। वह क्षण जीवी होता है। जो लोग साहित्य को फ़क़त मनोरंजन का साधन समझते हैं, मुझे उनसे कुछ नहीं कहना। वे अपनी मान्यताओं और धारणाओं के साथ अपनी दुनिया में ख़ुश रहें। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन जो लेखन को संजीदा कार्य समझते हैं, जो लेखन को जीवन से जोड़कर देखते हैं और जो लेखन को समग्र मानव जीवन व मानव जाति को सुशील एवं संस्कारी बनाने के लिए एक बेहतरीन साधन के रूप में स्वीकार करते हैं, उनसे मुझे कुछ कहना है। 

"मित्रो! बेहतरीन साहित्यिक कृतियाँ हमारे विश्व की बेहतरीन धरोहर हैं। इतिहास गवाह है कि सामाजिक परिवर्तन में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। अच्छा साहित्य हमारी सुंदर दुनिया को अधिक सुंदर बनाता है। हमारे सुसभ्य, संस्कारी और संस्कृतिमय होने का प्रमाण हमारी साहित्यिक कृतियाँ ही तो हैं। मित्रो! साहित्य फ़ुर्सत में समय पास करने के लिए या दिल बहलाने के लिए लिखे गए मन के गुबार की उल्टी (Vomitting) का नाम नहीं है। समय पास करने के लिए फ़ुर्सत के क्षणों में साहित्य पढ़ा तो जा सकता है किंतु साहित्यिक लेखन परिश्रम, समर्पण और साधना की अपेक्षा रखता है। लिखने के लिए खून जलाना पड़ता है। अन्य कार्यों में साहित्य को वरीयता देना होता है। जीवन के शेष कार्य गौण हो जाते हैं , बस! साहित्य ही मुख्य हो जाता है। कहने का मतलब यह है कि साहित्यिक लेखन मन बहलाने के लिए शाम को भरे पेट समुद्र के किनारे टहलना नहीं है। शेरो-शायरी हो या कविता कहानी या साहित्य की किसी भी विधा में अभिव्यक्ति, लेखक को ध्यान रखना होगा कि उसके लेखन में अपने समय और समाज की समस्याएँ और चुनौतियाँ मौजूद हैं कि नहीं। अवाम के सुख-दुख और पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है कि नहीं। हमारे साहित्य में हमारे समाज की धड़कन सुनाई देनी चाहिए। पाठकों को चमत्कृत कर देने वाले शब्द-जाल, घुमावदार, लच्छेदार भाषा में प्रस्तुत निजी जीवन की अभिव्यक्ति साहित्य नहीं हो सकती। पराशक्तियों में विश्वास और अंधश्रद्धा भजन कीर्तन तो हो सकता है, साहित्य नहीं। व्यक्तिगत हितों की चिंताओं की चर्चा नहीं सामाजिक समूह के कल्याण के संघर्ष का नाम साहित्य है। व्यक्तिगत भावों और कल्पनाओं को साहित्य नहीं कहा जा सकता। साहित्य में कोई शोर्ट कट सफलता का मार्ग नहीं होता। साहित्य में झूठ और मक्कारी भी नहीं चलती। जो लोग कहते हैं कि हम शोहरत या प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं लिखते, वे झूठ बोलने वाले लोग हैं। उनके लिए साहित्य खट्टा अंगूर से अधिक कुछ नहीं। सच्चाई यह है कि लेखक प्रसंशा का भूखा होता है और वाह-वाह सुनना उसे अच्छा लगता है। पाठकों द्वारा स्वीकार किया जाना और मान्यता प्राप्त करना भी लेखक की प्रेरणा का एक मुख्य नहीं तो गौण स्रोत है।”

यथोक्त के आलोक में कहा जा सकता है कि साहित्यबाज़ों ने साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्नों को सूली चढ़ा दिया है। और तो और ऐसे साहित्यबाज़ों के चक्कर में पड़कर नवोदित साहित्यकारों के भविष्य भी चौपट हो जाता है। वो भी बस नाम कमाने के लिए कुछ भी अनाप-शनाप लिखने की राह पर चल पड़ते हैं। सारांशत: कहा जा सकता है कि ऐसे साहित्यबाज़ों को तवज्‍जो न देकर साहित्यकारों को इमानदारी से मानव हित में क़लम को साधना चाहिए, अन्यथा गिरते मानवीय मूल्य और भी रसातल में चले जाएँगे। 

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