अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सुमतिराय की कविता

सुमतिराय के मन में काफ़ी दिनों से जो ऊहापोह चल रहा था, वह आज एक निश्चय में बदल गया।

दरअसल सुमतिराय को कविताएँ लिखने का शौक़ है।उनकी कवितायें अनेक स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में जब तब छप भी जाती हैं।

उनके विचार में कविता आंतरिक भावों का उद्रेक होती है। उनका मानना है कि हम बहुत कुछ देखते, सुनते हैं, उनसे प्रभावित होते हैं, इन्हीं का प्रतिफल जो भावोद्रेक होता है और वह जब जनपक्षीय होकर प्रस्तुत होता है, वही कविता है।

सुमतिराय जनपक्षीय विचारधारा के तो हैं ही सो अपने अभिव्यक्त भावों को ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर लेते हैं वही उनकी कविता हो जाती है।

कल उन्होंने जो कविता लिखी थी उसे आज फिर पढ़ा, पहले वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ सुधारीं, फिर विराम चिह्नों को गति और लय के अनुसार व्यवस्थित किया, आज कुछ प्रतीक भी बदले, कुछ कमज़ोर लग रहे पदों को भी बदला। अब वे संतुष्ट लग रहे थे।

किसी बड़ी पत्रिका में छपने की चाह थी सो चले जा रहे थे अपने आज के निश्चय के अनुसार नगर के तथाकथित स्थापित कवि महोदय जो स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर भी हैं, के घर की ओर। पहुँचे तो वे कविवर बाहर ही मिल गए। दुआ-सलाम हुई। सुमतिराय ने अपनी ताज़ा-तरीन कविता दिखाने का ज़िक्र किया तो दोनों बैठक में पहुँचे।

कविवर सुमतिराय की कविता रहे थे। सुमतिराय उनके चेहरे के बनते-बिगड़ते भावों को सूक्ष्मता पूर्वक निहार रहे थे।

कविता समाप्त ही। उन कविवर की नाक ऊपर को सिकुड़ी, फिर होंठ आगे की ओर हुए फिर कुछ चौड़े हो गए।

"उफ्फ ! सुमति जी आपकी कविता काफ़ी कमज़ोर है और मैं सच कहूँ तो यह कि कविता का कोई तत्त्व इसमें दृष्टिगोचर ही नहीं है। थोड़ी मेहनत करिए। आप लिख तो सकते हैं, आप में संभावनाएँ हैं।"

इसके बाद सुमतिराय कभी यह कविता, कभी वह कविता लेकर उन कविवर के पास अनेक बार गए पर कविवर को उनकी कोई कविता जँची नहीं।

एक सप्ताह बीत गया। किसी विशेष कारण से कुछ परेशान से सुमतिराय आज फिर जाना चाहते थे कविवर के घर। काग़ज़ पर कविता उतारी चल पड़े कविवर के घर की ओर।

पहुँचे तो कविवर की पत्नी ने दरवाज़ा खोला। वे बैठक में बैठ गए।

"साहब पूजा कर रहे हैं, बस उठने ही वाले हैं।"

सुमतिराय चौंके। घोर मार्क्सवादी हमारे ये कविवर और पूजा!... उन्होंने अपना सिर झटका.... ख़ैर भावनाएँ अपनी अपनी....।

कुछ ही क्षण बाद कविवर उपस्थित होते हैं। नमस्कार का देन-लेन, अब कविता देखने की बारी।

कविवर मन ही मन कविता पढ़ते गए। हर बार की भाँति उनकी भाव-मुद्राएँ बनती-बिगड़ती रहीं। अंत में बोले, "भाई सुमतिराय जी आपकी यह कविता तो बिल्कुल ही बेकार है। आपकी पिछली दो-तीन कविताएँ पढ़कर मुझे लगने लगा था कि आप में काफ़ी सुधार हो रहा है और आप धीरे-धीरे अच्छा लिखने लगेंगे लेकिन आज तो आप एकदम बेकार कविता लिख लाये।"

"लेकिन...लेकिन सर, यह मेरी कविता नहीं है। यह तो अमुक कवि की कविता है जो इस वर्ष एम.ए. प्रथम वर्ष के 'आधुनिक काव्य' प्रश्न पत्र के पाठ्यक्रम में है।... दरअसल सर,एम ए की शिक्षा न होने के कारण मुझे अपने विभाग में अगली पदोन्नति नहीं मिल पा रही है।इसलिए मैंने इस वर्ष स्वाध्यायी छात्र के रूप में हिंदी साहित्य में एम ए प्रथम वर्ष का फॉर्म भरा है।इसलिए मैं तो अपने पाठ्यक्रम की इस कविता की उचित व्याख्या समझने के लिए आपके पास आया था।अपनी कविता दिखाने नहीं।" 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

कविता - क्षणिका

बच्चों के मुख से

डायरी

कार्यक्रम रिपोर्ट

शोध निबन्ध

बाल साहित्य कविता

स्मृति लेख

किशोर साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं