आज फिर बाहर चाँदी बिछी है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अमिता शर्मा1 Apr 2015
आज फिर बाहर चाँदी बिछी है
आज फिर बिखरी धवल सी हँसी है
फिर से मुझे इस मफ़लर ने गर्माया है
नज़ारा वो सारा नज़र फिर से आया है
सब याद आया है
माँ का लिहाफ़ में सिमट के आना
फिर से वो ऊन के गोले बनाना
फँदे के ऊपर फँदे ही फँदे
सिलाइयाँ उलझाना सिलाइयाँ सुलझाना
सब याद आया है
हर सिलाई पर हाथों से मापते जाना
हर सिलाई पर हल्के से खींचते जाना
रजाई में सभी का लिपटते चले आना
रजाई घटाना रजाई बढ़ाना
कोने दबाना वो कोने उठाना
सब याद आया है
मूँगफली गज्जक की पंजीरी की महक
तरानों फ़सानों की चहक चहक
सब याद आया है
अचानक छुटकू का खिल-खिल खिलाना
शरारती हो ऊन उठा भाग जाना
माँ का हाँफना पीछे पीछे
पूरे घर का चक्कर लगाना
कमरे का हँसी से गले तक नहाना
सब याद आया है
माँ, सभी कुछ याद है
अच्छे से याद है
फिर वही मफ़लर पहना आज है
तुम नहीं हो
तुम्हारे वो चार दिन चार पहर पास है मेरे
तुम्हारा प्यार, तुम्हारा दुलार,
गरमा रहा है सर्द उच्छ्वास मेरे
आज फिर बाहर चाँदी बिछी है
आज फिर बिखरी धवल सी हँसी है
फिर मुझे इस मफ़लर ने गर्माया है
माँ तेरा दुलार बहुत याद आया है
बहुत बहुत बहुत याद आया है . . .
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