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आत्मिक ज्ञान

परम रोज़ की तरह पूजा आदि से निवृत हो दफ़्तर के लिये रवाना हो गया। कुछ ही क्षण में वापिस घर आया और फ़्रिज में से बोतल निकालकर पानी पीने लगा। 

पत्नी ने हैरान होकर पूछा, “आप वापिस क्यों आए? कुछ भूल गये हो क्या?”

“अरे! कुछ भी भूला नहीं हूँ।”

“तो फिर क्यों आए वापिस?”

“जैसे ही मैं घर से निकला रास्ते में एक विधवा मिल गई।”

“तो क्या हुआ?”

“तुम्हें पता है विधवा सामने मिलती है तो अपशुकुन होता है, काम बिगड़ जाता है।”

“अरे! आप भी पढे़-लिखे होकर अंधविश्वास में पड़ रहे हो। ऊपर से एक-एक घंटे पूजा-अनुष्ठान करते हो।”

“तुम अबोध हो...! तुम्हें कुछ पता नहीं इन बातों का।”

“अरे! ये बोध-अबोध का प्रश्न नहीं है। आत्मिक ज्ञान व मानवीय संवेदना की बात है। हम भी इंसान, वह भी इंसान, उल्टा हमें उस विधवा को संबल देना चाहिए। जब आप वापिस मुड़े उस समय उसको कितना मानसिक आघात लगा होगा। विधवा क्या मर्ज़ी से बनी, सब भाग्य का खेल है।”

पत्नी थोड़ा पास जाकर बोली, “मुझे लगता है आपका पढ़ना, पूजा अनुष्ठान आज व्यर्थ हो गया!”

पत्नी की बात को वह गहराई से सुन रहा था तथा मन ही मन लज्जित महसूस कर रहा था।

पत्नी ने समझाया, “हम इंसान ही अगर अबल व्यक्तियों से घृणा और उपेक्षा करेंगे तो भगवान की पूजा अनुष्ठान दिखावा है। मानवता की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। हम आडंबर व अंधश्रद्धा में इस थोड़े से जीवन को नष्ट कर रहे हैं। आज वैज्ञानिक युग में मानव अंतरिक्ष व पाताल की तह तक चला गया है और हम बुराईयों के भक्त बन रहे हैं। आज के युग में पढ़ा-लिखा ही अगर ऐसी विचारधारा रखे तो, अनपढ़- पढे-लिखों में फ़र्क?”

“वाक़ई तुमने मेरी आँखें खोल दीं। मुझे गर्व है कि तुम मेरी जीवनसाथी हो!”

परम ने जब पत्नी को धन्यवाद दिया तब उसकी आँखों से करुणा की बूँद टपकी उस विधवा के लिये और प्रेम की लहर उमड़ी पत्नी के आत्मिक ज्ञान के लिये।

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