माँ पर लिखूँ कविता
काव्य साहित्य | कविता डॉ. नवीन दवे मनावत1 Dec 2019 (अंक: 145, प्रथम, 2019 में प्रकाशित)
मैं,
माँ पर कविता लिखूँ
ये दबाव बार-बार दे रही है कविता
रात-दिन कोसती है
कि तुम कवि नहीं हो
अगर हो तो गढ़ो शब्दों की माला
जिससे सुशोभित हो जाऊँ
करो उसकी पीड़ा पर अनुसंधान
बहाओ काग़ज़ पर वेदना के आँसू
और
एक आदेश दो!
उस क़लम को
जिससे झलकता है कविकर्म
मैं हर प्रश्न पर
मौन था!
कि कैसे लिखूँ माँ पर
क्योंकि मेरी कविता के शब्द
और मनोविकार निश्चित सीमा तक है।
मेरी संवेदना लौकिकता पर ही हावी है
जब क़लम आतुर हो लिखने को
बैठ जाती है और
कभी-कभी मधुर झिड़की से
सजग भी करती है,
शरीर में उत्साह भर देती है
पर जब लिखता हूँ
माँ पर कविता
तो झगड़ा हो जाता है
काग़ज़, क़लम और शरीर का
तब मुझे
करने लगते हैं इनकार
मेरे शब्द
ऐसा दुस्साहस मत करना
मैं लाचार हो
देख रहा था इनके
अन्तर्द्वन्द्वी युद्ध को
मैं अब समझ गया
कविता की रूह को
क्योंकि वह होना चाहती है
सुशोभित
माँ पर कविता लिखवाकर
पहनना चाहती है
शब्दों की माला
और आत्मसम्मान करना चाहती है
कवि का
कविता हँस कर बोलनी लगी
कठिन कर्म है
माँ पर कविता लिखना
मैं सदियों से कर रही इंतज़ार
कि कोई लिखे माँ पर
पर बीच में ही टूट जाती है
शब्दों की माला
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