जीवन और संघर्ष
काव्य साहित्य | कविता डॉ. नवीन दवे मनावत1 Mar 2019
उलझे-सुलझे
लम्हों में
जीवन की भागदौड़ में
न जाने कितने अतीत गुज़ारें
हमने आज तक
फिर वही
यक्ष प्रश्न हमारे समक्ष
आ पहुँचता है
कि आदमी आख़िर टूटता क्यों है?
बिखरता क्यों है?
जीवन इतनी
पराकाष्ठा में पहुँच जाता है
जिसकी परिकल्पना
नहीं करना चाहता है आदमी
नहीं करना चाहता है
उससे समझौता
पर जीवन में
अचानक घेर देती
उदासी
तबाह करने के लिये
विनष्ट करने के लिये
उत्तर-दक्षिण ध्रुव
सम अंधकार में
पा लेता है अपने को
आदमी
खोजना चाहता है
जिजीविषाओं को
हर पल
हर व्यक्तित्व मे
आखिर मिलती है बुनी हुई वही
रस्सी
जिससे टाँगना चाहता है
अपनी संपूर्ण जिजीविषाओं को
यही है यक्ष प्रश्न
हमारे समक्ष
आज भी.......
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
Ashok Bishnoi 2019/04/05 06:40 PM
Nice sir
Kamlesh kumar 2019/03/03 08:33 AM
क्या गजब लिखा है ।
Vasudev 2019/03/01 05:45 PM
उत्कृष्ट
Vasudev 2019/03/01 05:44 PM
उत्कृष्ट
मनजीत बिश्नोई 2019/03/01 02:24 AM
बहुत ही सुन्दर लिखा है
Manajeet Pooniya 2019/03/01 02:16 AM
बहुत खूब लिखा है सरजी।
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
Nãrpãt Dewãsï Pur 2019/05/16 01:00 AM
बहुत ही खूब....।।