मेला
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. नवीन दवे मनावत15 Feb 2020 (अंक: 150, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
मोहन पन्द्रह साल बाद गाँव आया। मोहन के लिये वह गाँव कम और शहर ज़्यादा हो गया था मतलब पूरा ख़ाका ही बदल गया था।
थोड़ी ही देर बाद मोहन का मित्र चंदु उसे मिलने आया और उसने पूछा, "अरे! मोहन कैसा है तू, कब आया शहर से क्या हाल चाल है ...?"
"यार मोहन अपने शहर में मेला लगा है, चलो देखने चलते हैं।"
मोहन ने सोचा मेला तो गाँव में लगता था... मतलब... गाँव शहर कब हो गया?
दोनों मित्र मेला देखने चले तो क्या देखते हैं कि मेला स्थल की काया ही पलट गई। पंद्रह साल पहले एक किलोमीटर पहले ही मेले की रौनक़ शुरू हो जाती थी। बेचने हेतु भारी संख्या पशु आदि आते थे व कच्ची सड़क के दोनों तरफ़ पेड़ होते थे। वे सब सब कहाँ गये? और मेला एक सीमित क्षेत्र में कैसे हो गया?
मोहन चिंतन करने लगा, तभी चंदु ने पूछा, "इतना कहाँ खो गया यार! पता है अब मेला छोटा हो गया है। बढ़ते मशीनीकरण से पशु अब नहीं आते। अरे! धुआँ नहीं दिखता तेरे को? यहाँ फ़ैक्ट्रियाँ लग गई हैं। मेला इनके नीचे दब गया है। और अपना गाँव शहर बन गया है।"
चंदू के स्वभाव और बातों में भी भिन्नता आ गई थी। मोहन क्षुब्ध हो पुन: अपने शहर चला गया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं