होली की आग
काव्य साहित्य | कविता डॉ. नवीन दवे मनावत15 May 2019
होली की आग
वही रहती है
जो चूल्हे की
जो हवन कुंड की
और निर्दोष
जलती नारियों की देहाग्नि
जो भभकती है
आज समाज में
(अनवरत जल रही है)
होलिका की भाँति
हवि बनने को आतुर हैं
आज की अबलाएँ
चिंतन विलक्षण है?
पर सच है।
आग वही है
जो आतंक से
आती धूमाग्नि के सदृश विकराल;
आग वही जो
बेज़ुबान की ज़ुबान खोलने पर
आतुर है।
पर धूम रहित अग्नि है।
आज की आग
बस आग है
जो जलाती है
केवल और केवल
मानवता को
उस असुर की तरह
जो केवल मुख खोले
निरीह आग का प्रदर्शन करता है।
और भस्म करता है
संपूर्ण आह! को
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं