अजीब-चमक
कथा साहित्य | लघुकथा विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'27 Oct 2014
दीपावली के अगले दिन अल-सुबह जब मैंने दो बच्चों को अपने घर के बाहर चले हुए पटाखों के कचरे में कुछ ढूँढते हुए देखा तो मेरा माथा चकरा गया। मैंने पूछा- "ऐ बच्चो! तुम सुबह-सुबह यहाँ क्या कर रहे हो।"
वो डर कर जाने लगे। मैंने उन्हें रोका और कहा- "डरो मत, बताओ।"
वो कहने लगे –"अंकल जी, पटाखे ढूँढ रहे हैं।"
"बेटे, तुम्हें, इस कचरे में क्या मिलेगा? क्या तुमने, कल रात पटाखे नहीं चलाये?"
वे बोले- "नहीं, अंकल जी, हमारे पापा गरीब हैं। परन्तु ये देखो, हमने अब तक पाँच-छ: मकानों के सामने से ये पटाखे बीन लिए हैं।"
बालक अपनी-अपनी जेब से बीने हुए पटाखे निकाल कर बताने लगे।
"देखो, ये दो चकरी, तीन छोटे पटाखे, ये अधजला अनार।"
मुझे उन बालकों के चेहरों पर एक अजीब सी चमक दिखाई दे रही थी परन्तु पता नहीं, मेरे चेहरे की चमक को क्या हो गया था...
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