माँ
काव्य साहित्य | कविता विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'1 Jun 2019
माँ
सुबह बनके
जगाती है
सबको
चिड़िया सी
चहकती
फुलवारी सी
महकती
फिर दोपहर
बन जाती
सबको भोजन
खिलाती
फिर स्वयं खाती
ढलती दोपहरी
की तरह
बिन ज़िरह
बन जाती साँझ
करती स्वागत
अपने काम से
आने वालों का
केवल मुस्कराकर
सबको खिलाकर
फिर कुछ पाकर
बन जाती निशा
बुझ जाती
दिये की भाँति
फिर बनने के लिए
अगली सुबह ...
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