अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भिखारी

सरकारी दफ्तर में अपना काम निपटा, मैं जल्दी-जल्दी स्टेशन आया। गाड़ी एक घंटे विलम्ब से आ रही थी। मैंने घर से लाये परांठे निकाले और खाने लगा। तभी एक भिखारी जो हड्डियों का ढाँचा मात्र था मेरे पास आकर, हाथ फैला कर चुपचाप खड़ा हो गया। भिखारी के एक हाथ में पहले से ही माँगी गई, रोटियों से भरी एक बड़ी पॉलिथिन की थैली मौजूद थी। एक बार तो मुझे लगा कि इसने इतनी रोटियाँ माँग रखी हैं फिर ये, अब क्यों माँग रहा है? मैंने बेमन, भिखारी को एक परांठा दे दिया। वो फिर सामने खाना खा रहे एक दम्पति के पास जाकर खड़ा हो गई। दम्पति ने उसे कहा- "यहाँ आके क्यों खड़े हुए हो, खाना खाने दो, आ जाते हैं ना जाने कहाँ-कहाँ से" वो भिखारी फिर, किसी तीसरे के पास जाके खड़ा हो गया भीख माँगने, इस बीच मेरा खाना पूरा हुआ मैं स्टेशन के बाहर प्याऊ पर ठण्डा पानी पीने गया तो मैं क्या देखता हूँ कि वही भिखारी कुत्तों, सुअरों को माँगी हुई रोटियाँ समभाव से खिला रहा है और वे सभी जानवर पूँछ हिला-हिला कर उस भिखारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं। इस दृश्य को देखकर कुछ देर के लिये तो मैं पानी पीना ही भूल गया फिर मैंने पानी पिया और वापस स्टेशन पर ट्रेन की प्रतीक्षा में आके बैठ गया। थोड़ी देर बाद वही भिखारी, मुझसे कुछ दूरी पर एक सवारी के पास खड़ा दिखाई दिया जो खाना खा रही थी ...

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

गीत-नवगीत

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

दोहे

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं