अनुवाद पर सार्थक पुस्तक
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. दीपक पाण्डेय15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
पुस्तक का नाम: साहित्यिक अनुवाद चिंतन के आयाम
लेखक: प्रो. सुरेश सिंहल
प्रकाशक: राइजिंग स्टार्स, शाहदरा दिल्ली
अभी हाल ही में भारतीय लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अँग्रेज़ी अनुवाद ‘Tomb of Sand’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला। हर हिंदी प्रेमी इस समाचार से गौरवान्वित है कि यह हिंदी की पहली कृति है जिसके अँग्रेज़ी अनुवाद को यह सम्मान मिला है। अनुवाद की सार्वभौमिकता और स्वीकार्यता ने विश्व के ज्ञान-विज्ञान के प्रसार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है और सृजनात्मक क्षेत्र में अनुवाद विश्व में अपनी उपयोगिता को सिद्ध कर रहा है।
विश्व संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का बड़ा हाथ रहा है और वह आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही सम्भव हो पाया है। ग्लोबलाइज़ेशन और संसाधनों की उपलब्धता के कारण पाश्चात्य देशों के साहित्य का भारतीय भाषाओं में और भारतीय साहित्य के यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद की समृद्ध परंपरा विद्यमान है और यह प्रक्रिया निरंतर चल रही है। जहाँ इस प्रक्रिया ने पूर्व-पश्चिम के अंतर और पार्थक्य की पुरातन धरणा को ध्वस्त किया है वहीं एक-दूसरे को विभिन्न संस्कृतियों से जुड़ने के साधन उपलब्ध कराए हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि अनुवाद भाषाओं और संस्कृतियों के बीच, बौद्धिक उपलब्धियों के बीच तथा अध्यात्म और विज्ञान के बीच संवाद का सेतु माना जाता है।
पश्चिम में अनुवाद सिद्धांत की चिंतन परंपरा के संबंध में कहा जाता है कि अनुवाद का अस्तित्व प्राचीनकाल से ही विद्यमान था परन्तु इस दिशा में व्यवस्थित कार्य करने का श्रेय पाश्चात्य विद्वान् एलेग्ज़ेंडर फ़्रेज़र टिटलर को जाता है। इस संबंध में भारतीय अनुवाद परिषद् के अध्यक्ष प्रो. पूरनचंद टंडन का कथन महत्त्वपूर्ण है, जहाँ वे लिखते हैं, “पश्चिम में अनुवाद परंपरा पिछले दो हज़ार वर्षों से निरंतर तथा सतत रूप से कार्यरत और सजीव रही है। परन्तु अनुवाद कला-विषयक पुस्तक-पुस्तिकाएँ 1791 से ही अस्तित्व में आनी शुरू हुईं और इस दिशा में एलेग्ज़ेंडर फ़्रेज़र टिटलर की पुस्तक ‘ऐस्सेज ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ़ ट्रांसलेशन’ मील का पत्थर साबित हुई।” भारत में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अनुवाद चिंतन की ओर सैद्धांतिक स्तर पर विचार-विमर्श प्रारंभ हुआ पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राचीनकाल में हिदुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था बहुत ही उन्नत और श्रेष्ठ थी तभी तो अनेक साम्राज्य अपने राजपुत्रों को शिक्षा के लिए यहाँ भेजते थे और निश्चित ही उनकी यह शिक्षा अनुवाद के बलबूते ही पूरी होती होगी। इस इतिहास के पन्नों में न जाकर हम पाते हैं कि भारत में अनुवाद सिद्धांत पर आर. रघुनाथ राव की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ़ ट्रांसलेशन, ए क्रिटिकल स्टडी’ 1990 में प्रकाशित हुई और आज इस क्षेत्र में अनेक पुस्तकें उपलब्ध हो गईं हैं। आज अनुवाद के महत्त्व को समाज ने स्वीकारा है और यही कारण हैं कि अनुवाद को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा गया है। वैश्विक स्तर पर अनुवाद विषय का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है और इस दिशा में अत्यधुनिक संसाधनों का समन्वय कर ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की अवधारणा को पुष्ट किया जा रहा है।
वर्तमान परिदृश्य में अनुवाद स्वतंत्र व्यवसाय एवं आजीविका का साधन बन गया है। वैश्विक बहुभाषिकता ने अनुवाद की उपादेयता को सिद्ध कर दिया है। आज के वैज्ञानिक युग में नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों, प्रणालियों ने अनुवाद के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति का संचार किया है। आज अनुवाद मानव-जीवन के हर क्षेत्र में सक्रियता से महत्त्वपूर्ण हो गया है। शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, प्रशासन, विधि, प्रोद्योगिकी, संचार, जनसंचार, चिकित्सा, रक्षा आदि सभी में अनुवाद अनिवार्य साधन-संसाधन बनकर मानव कल्याण में अपनी उपादेयता को सिद्ध कर रहा है।
अनुवाद के विविध् आयामों के, उसके स्वरूप एवं समस्याओं के गंभीर निरूपण-विवेचन की आवश्यकता के उद्देश्य को लेकर प्रो. सुरेश सिंहल ने ‘साहित्यिक अनुवाद चिंतन के आयाम’ पुस्तक योजना को शोधपरक रूप में क्रियान्वित किया है जो प्रशंसनीय और सराहनीय कार्य है। पुस्तक में बीस से अधिक प्रकरण विस्तार से विश्लेषित किए गए हैं जो अनुवाद के विद्यार्थी और इस क्षेत्र से जुड़े बौद्धिक जगत का मार्ग प्रशस्त करने के सामर्थ्य से परिपूर्ण हैं। विषयों का सैद्धांतिक और व्यावहारिक विश्लेषण सहज और सर्वग्राह्य बन पड़ा है। लेखक ने परिश्रम से अनुवाद विषय पर विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है। मैं उनके श्रम के प्रति नतमस्तक हूँ और लेखक को हार्दिक बधाई देता हूँ।
डॉ. दीपक पाण्डेय
सहायक निदेशक
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय (भारत सरकार)
नई दिल्ली
मोबाइल: 8929408999
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