अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सर्वजन हिताय का शुभारंभ ‘वनगमन’

समीक्षित पुस्तक: वनगमन
लेखक: गोवर्धन यादव
प्रकाशक: साहित्यभूमि गुरद्वारा रोड, नई दिल्ली-110059
संपर्क: sahityabhoomi@gmail.com
आईएसबीएन: 978-93-91161-22-4
मूल्य: ₹695/-

भारतीय समाज और संस्कृति में रामायण महत्त्वपूर्ण कृति है और रामकथा मानवता एवं विश्व कल्याण की भावना को अभिव्यक्ति देती है। रामकथा के विविध प्रसंगों और पात्रों पर साहित्यिक रचना की सुदीर्घ परम्परा विद्यमान है जिसका प्रारंभ बाल्मीकि रचित महाकाव्य ‘रामायण’ और जैन साहित्य परंपरा से देखा जा सकता है। कालांतर में भारत की कई भाषाओं, उपभाषाओं और लोकभाषाओं में रामकथा लिखी गई हैं, इन रचनाओं ने न केवल रचनाकारों को नई साहित्यिक दृष्टि दी है, बल्कि जन मानस को भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन के विविध पक्षों से प्रेरणा लेने के लिए का भी प्रेरित किया है। मध्ययुग में तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ ने उसमें विद्यमान आदर्शों और मूल्यों के कारण लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तो ध्वस्त किये ही, साहित्यिक मानदंडों के आधार पर अपनी अनुपमेयता से वैश्विक स्वीकृति भी प्राप्त की। 

रामकथा की लोकप्रियता इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि आज सदियों बीत जाने पर भी श्रीराम के चरित्र का गुणगान करती अनेक कृतियाँ लिखी जा चुकी हैं और वर्त्तमान में भी लिखी जा रही हैं, फिर भी उस विषय पर पाठकों की रुचि और उत्सुकता आज भी यथावत बनी हुई है। शायद ही विश्व का कोई ऐसा चरित्र होगा जिसको विश्व की इतनी अधिक भाषाओं में यत्किंचित परिवर्तन के साथ लिखा गया हो या उसका अनुवाद किया गया हो। रामकथा से जुड़ाव का मूलभूत कारण श्रीराम के चरित्र में देवत्व की बजाय उन मानवीय गुणों का होना है जो किसी समाज और देश को आदर्श बनाते हैं।

रामकथा श्रीराम का मात्र जीवन चरित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन का एक मेनिफ़ेस्टो या आचार संहिता है जो समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए है। यही कारण है कि रामकथा से जुड़ा प्रत्येक प्रसंग अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है और देश, काल और समय की परिधियों को तोड़कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो गया है। 
रामकथा से जुड़े विविध प्रसंगों पर साहित्य की विविध विधाओं में विभिन्न कालखंडों से रचनाएँ की जा रही हैं और यह क्रम आज भी बना हुआ है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते  हुए श्री गोवर्धन यादव ने ‘वनगमन’ उपन्यास लिखकर पाठकों और साहित्यिक ख़ेमे में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है। यह उपन्यास साहित्य-भूमि प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। गोवर्धन यादव ने इस उपन्यास में श्रीराम के जीवन से संबंधित एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण चिर-परिचित घटना  को लेखनीबद्ध किया है जो श्रीराम के वन-गमन से जुड़ी हुई है। रामकथा से संबंधित सभी कृतियों में इस प्रसंग का वर्णन मिलता है लेकिन गोवर्धन यादव ने अपनी सूक्ष्म और मौलिक दृष्टि से इस प्रसंग को एक नया औपन्यासिक धरातल दिया है। जहाँ सभी उस सुबह की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिसमें राम का राज्याभिषेक होना था लेकिन कैकेयी के राजा दशरथ से राम के लिए चौदह वर्ष के वनवास और भरत के लिए राजगद्दी माँगते ही समस्त अयोध्या पर दुर्भाग्य के काले बादल छा जाते हैं और ख़ुशियों पर ग्रहण लग जाता है। घटनाक्रम आगे बढ़ता है और श्रीराम को वल्कल धारण करके अपनी पत्नी तथा प्रिय भ्राता के साथ वन गमन के लिए निकल जाना पड़ता है। 

राज्याभिषेक की घोषणा के पश्चात श्रीराम माता कैकेयी के भवन जाते हैं और उन्हें अपने अवतार का प्रयोजन बताते हुए मानव कल्याण के इस उद्देश्य में अपना साथ देने के लिए मनाते हैं । उपन्यासकार ने इस प्रसंग को उठाकर बड़ी ही ख़ूबसूरती से कैकेयी को सर्वथा कलंक मुक्त करने का प्रयास किया है और माता के प्रेम और त्याग को महिमा मंडित किया है। यह सर्व विदित है कि कैकेयी राम को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थीं उन्हें कभी यह ध्यान भी नहीं रहा कि उनकी कोख से राम ने जन्म नहीं लिया है। तभी तो राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर वे अत्यंत प्रसन्न होती है जबकि वह जानती थी कि राजा दशरथ ने उनके पिता महाराज अश्वपति को वचन दिया था कि कैकेयी की कोख से जन्मा राजकुमार ही उनका उत्तराधिकारी होगा और सरयू के पावन तट पर बसी अयोध्यापुरी का सम्राट होगा। राम के प्रति कैकेयी के प्रेम को रामचरित मानस में इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:

कौशल्या सम  सब महतारीं। रामहि सहज सुभाय पियारीं॥ 
मोपर करहिं सनेहु विसेषी। मैं करि प्रीति परीक्षा देखी॥  
जो विधि जन्म देइ करि छोहू। होहिं राम सिय पूत पतोहू॥  
प्राण ते अधिक राम प्रिय मोरें। तिन्हके तिलक छोभु कास तोरें॥  

उधर श्रीराम भी अपनी सभी माताओं में सबसे अधिक प्रेम कैकेयी से ही करते थे, माता-पुत्र के इस प्रेम की अभिव्यक्ति विविध प्रसंगों में यत्र-तत्र देखी जा सकती है। 
श्रीराम माँ से आशीर्वाद लेकर निकल पड़ते हैं सनातन धर्म की रक्षा के लिए, मानवता के कल्याण के लिए और उच्चतम आदर्शों की स्थापना के लिए। इस यात्रा में उनके सहभागी हैं नारी आदर्श की प्रतिमूर्ति माता सीता और अपने अग्रज श्रीराम के लिए सुख-शैय्या का त्याग करने वाले शेषावतार लक्ष्मण। श्रीराम इस यात्रा में अकेले नहीं हैं, उन्होंने अपने साथ समाज के दीन-हीन तबके को लिया है जो सदैव से वंचित-उपेक्षित माना जाता रहा है। श्रीराम प्रतीकात्मक रूप से उनसे सहयोग लेकर न केवल अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं, बल्कि उन्हें समाज के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध करते हुए उनमें आत्म स्वाभिमान की भावना पैदा करते हैं। श्रीराम के चरित्र का अनूठापन उन्हें जन-जन से जोड़ता है और उन्हें मानव से ईश्वरत्व प्रदान करता है। 

अयोध्या से लेकर चित्रकूट तक की इस सरस और सहृदयी यात्रा में पाठक प्रकृति के नैसर्गिक साहचर्य से अभिभूत होता है। उपन्यासकार ने प्रकृति और मनुष्य के आत्मीय संबंध और उनके महत्त्व को जन कल्याण के लिए अनिवार्य बताया है। हिंदीजगत में कृति का निश्चित ही स्वागत होगा और पाठक वर्ग द्वारा उसे सराहा जाएगा, इसमें संदेह नहीं। 

मैं गोवर्धन यादव जी को इस अनुपम कृति के लिए बधाई और शुभकामना देता हूँ और कामना करता हूँ कि वे अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध करते रहें। 

डॉ. दीपक पाण्डेय
सहायक निदेशक
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

बात-चीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं