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यूनिकोड ने हिंदी में नियमित लेखन का अवसर दिया : अनुराग शर्मा 

अनुराग शर्मा अमेरिका में रहकर भारतीय भाषा, साहित्य और संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं और इस उद्देश्य में नवीन तकनीक और प्रोद्योगिकी का भरपूर प्रयोग कर रहे हैं। हिंदी कहानी, कविता लेखन में भी आपकी विशेष रुचि है। आपने इंटरनेट पर 24 घंटे चलने वाले भारतीय रेडियो स्टेशन ‘पिटरेडियो’ की स्थापना की। ‘पॉडकास्ट कवि सम्मलेन’, ‘शब्दों के चाक पर’, ‘सुनो कहानी’ और ‘बोलती कहानियाँ’ जैसे स्वर-आकर्षण कार्यक्रमों का संचालन कर चुके अनुराग जी ने ‘विनोबा भावे के गीता प्रवचन’ तथा ‘प्रेमचंद की कहानियों की ऑडियोबुक’ को स्वर दिया है। साहित्यिक अभिरुचि के साथ-साथ समाज-सेवा में भी सक्रियता से जुड़े हैं –‘तिब्बत के मित्र’, ‘यूनाइटेड वे’ एवं ‘निरामिष’ जैसे सामाजिक संगठनों में सहभागी हैं। पिट्सबर्ग के एक सांस्कृतिक संस्थान में अहिंदीभाषियों को हिंदी का प्रशिक्षण देते हैं। मासिक पत्रिका ‘सेतु’ के हिंदी और अंग्रेज़ी संस्करणों के संस्थापक, प्रकाशक तथा प्रमुख संपादक हैं।

अनुराग जी कहानियों और कविताओं में भारतीय संस्कृति के बिंब-प्रतिबिंब भरे हैं। उनका प्रवास के संबंध में उनका मानना है– “यायावरी या आप्रवास मानवजाति के लिए कोई नई घटना नहीं है। मानवता का इतिहास हिज्रतों का इतिहास है। कारण बदलते हैं, गंतव्य बदलते हैं, लेकिन चरैवेती-चरैवेती का आग्रह मनुष्य को, सभ्यता को और संसार को गतिमान बनाए रखता है।” भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर पदस्थ डॉ. दीपक पाण्डेय द्वारा अनुराग शर्मा से लिया साक्षात्कार सभी हिंदी प्रेमियों के लिए—

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी आप अमेरिका में रहकर हिंदी के प्रचार-प्रसार में कार्य कर रहे हैं। कृपया भारत से अमेरिका के प्रवास की स्थितियाँ एवं उद्देश्य के संबंध में जानकारी दीजिए?

अनुराग शर्मा–

कहानी लम्बी है यथासम्भव संक्षेप का प्रयास कर रहा हूँ। 

मैं केनरा बैंक के 1988 के अधिकारियों के बैच में चतुर्थ स्थान पर था और डेढ़ सौ के समूह में सबसे अल्पवय भी। मेरी प्रसिद्धि किसी से न नथने वाले तथाकथित खेलों की टीम को कार्यकुशल बनाने में थी। जब बैंकिंग में रहा तो कई पुरानी रिकवरियाँ कराईं –भूलों से लेकर घोटालों तक। बाद में जब आईटी के क्षेत्र में काम कर रहा था तो दिल्ली की अधिकांश शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण, एटीएम आदि की स्थापना के साथ-साथ उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान की पहली शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का आधार बना। अनेक नये सॉफ़्टवेयर पैकेज तैयार किये। बैंक के लिये दिन के चौबीसों घंटे और सप्ताह के सातों दिन नियमित कार्य किया है। व्यक्तिगत रूप से बैंक के अंदर अपने क्षेत्र में बहुत प्रसिद्धि पायी। कठिन परिस्थितियाँ, भरपूर चुनौतियों, अनेक विरोधाभास होते हुए भी कार्य संतोष बहुत रहा। तेलुगु भाषी सहकर्मिणी से बेंगलोर में परिचय और बाद में विवाह भी हुआ। केनरा बैंक के मूल कथन, “कार्य के लिये सेवा, सेवा के लिये कार्य” को समझा और उनकी पत्रिका श्रेयस में पहली बार पढ़े कठोपनिषद के निम्न कथन को जीवन में निरंतर अपनाया–

श्रेयश्चप्रेयश्चमनुष्यमेतः,तौसम्परीत्यविविनक्तिधीरः,
श्रेयोहिधीरोऽभिप्रेयसोवृणीते, प्रेयोमन्दोयोगक्षेमाद्वृणीते।

वहाँ सेवा और कर्मठता की एक प्राचीन परम्परा होते हुए भी समय के साथ-साथ लालफीताशाही, कुछ अधिकारियों के तानाशाही रवैय्ये और ऊपर से ज़ारी बेतुके सरकारी बाबूशाही निर्णयों के कारण निर्वाह कठिन से कठिनतर होता गया। धीरे-धीरे सूचना प्रौद्योगिकी विभाग का नेतृत्व भी छितर गया और वहाँ भी अजीबो-ग़रीब कार्य होने लगे। जैसे मुझे उस सिस्टम की ट्रेनिंग लेने के लिये बैंगलोर बुलाया गया जिसका निर्माता मैं था। मेरी विनम्र प्रकृति दिल्ली के सामान्य-व्याप्त नियमतोड़, स्वार्थी और उद्दण्ड वातावरण से वैसे भी मेल नहीं खाती थी। केनरा बैंक की नीतियों के अनुसार दो वर्ष ग्रामीण शाखा में कार्य प्रोन्नति की आवश्यक शर्त थी। सो कुल मिलाकर मन बैंक से बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ़ने लगा। पिताजी के रिटायरमेंट, बहनों के विवाह और बेटी के जन्म के बाद मैं कार्य में अति-व्यस्त होते हुए भी एक ऐसे स्थैर्य के दौर में था जब मन किसी भी परिवर्तन के लिये तैयार था। बैंकिंग आईटी में केनरा बैंक शीर्ष पर था। कई सीनियर मित्र बैंक छोड़ चुके थे, कुछ तैयारी में थे। एक समय में मेरे पास एक भारतीय बैंक में आई-टी प्रबंधक के पद के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात, साइप्रस औरआयरलैंड में नौकरियों के आमंत्रणपत्र थे। अमेरिका निवासी परिजन भी मेरा कार्यवृत्त अपने परिचय के क्षेत्र में पहुँचा चुके थे। वहाँ से एक ऑफ़र हाथ में था। अमेरिका में परिजनों की उपस्थिति पत्नी के लिये भी आह्लादकारी थी और मेरे जैसे स्वतंत्रमना के लिये अमेरिका भारत का वह स्वरूप था जो हम भारत में धीरे-धीरे खोते जा रहे थे। हमारे लिये यह बेटियों के लिये असहनीय होते जा रहे उत्तर-भारतीय महानगरीय परिवेश से स्वयं बचकरअपने भारतीय मूल्यों को भी बचाये रखने का एक अवसर था।

1988 की गर्मियाँ – दिल्ली में घंटों के लिये बिजली चली जाना उतना ही सामान्य था जितना जनजातीय चोरों के पारिवारिक दलों द्वारा रात में घरों में घुसकर चोरी-डकैती के साथ क्रूर हत्यायें करना। एक रात आँख खुली तो पूरे घर को तहस-नहस पाया। आभूषण, चाँदी के बर्तन, बटुए, क्रेडिट कार्ड आदि तो गये ही, सुबह बेटी के लिये दूध मँगाने के लिये साले को फोन करना पड़ा। चोरी तो चोरी, उसके बाद मकान-मालिक, निवासी-संघ से लेकर पुलिस तक के व्यवहार ने अक्षम और भ्रष्ट भारतीय तंत्र और दिल्ली के शिक्षित, सम्पन्न, संकीर्ण, और अति-स्वार्थी मध्यवर्ग के प्रति पहले से पनप रही वितृष्णा को और बढ़ा दिया। घर बदलकर एक गेटेड-गार्डेड सोसाइटी में चले गये। तीन महीने के भीतर ही वहाँ हमारी एक रात की अनुपस्थिति में चोरी हुई और जो एक स्टीरियो पहली चोरी से बच गया था, राजन-साजन मिश्र बंधुओं की एक सीडी के साथ वह भी ख़ुदा को प्यारा हुआ। पहले अनुभव के कारण इस बार पुलिस के साथ पूरी कड़ाई से पेश आये और उन्होंने पहले के मुक़ाबले अपनी जाँच मुस्तैदी के साथ वैज्ञानिक तरीक़ों से की, लेकिन मकान-मालिक और निवासी-संघ के मठाधीश यहाँ भी पिछली सोसाइटी जैसे ही लीचड़, मूर्ख और गिरे हुये निकले। मन भारत से भर चुका था। नौकरी से त्यागपत्र का नोटिस दिया। संसार की भ्रष्टतम संस्थाओं में से एक लखनऊ विकास प्राधिकरण में एक स्ववित्त पोषित घर मेरे नाम था जिसका पूर्ण भुगतान दशक पहले कर दिये जाने के बाद न तो निर्माण हुआ था न किसी भी पत्र का कोई उत्तर आया था। लखनऊ स्थित छोटे भाई ने रोज़ वहाँ जाकर पहले फ़ाइलें निकलवाईं, फिर मैंने वहाँ पहुँचकर छह दिन लगातार सुबह से शाम तक चपरासियों से लेकर अधिकारियों तक सभी से अनुरोध से लेकर झगड़े तक किये तब जाकर छठे दिन की संध्या पर मेरा वह घर जो वे कभी मेरा नहीं करने वाले थे, वापस उन्हें सरेंडर हुआ और चैक छपा। हाथी निकल चुका था लेकिन ईडीपी विभाग के प्रबंधक भटनागर द्वारा उसकी पूँछ रोकने की कोशिश में मामूली बहसा-बहसी हुई और अगले दिन यूको बैंक जाकर पता लगा कि भटनागर जी अपना खेल खेल चुके थे और वह चेक लखनऊ विकास प्राधिकरण के जिस खाते का था उसका बेलेंस शून्य ही रहता था। चैक कैश हुए बिना उस घर के लिये लिया हुआ ऋण नहीं चुकता, जो मेरे त्यागपत्र-स्वीकृति की आवश्यक शर्त थी और मेरे जैसे सन्मार्गी के पास अपना कोई ख़ज़ाना न था, जो मेरी वार्षिक ग्रॉस आय से भी अधिक बड़े ऋण को चुका पाता। दुविधाकाल में केनरा बैंक के कार्यकाल में कमाई सदाशयता काम में आई और लखनऊ के मित्रों ने त्यागपत्र की तिथि से पहले चैक का भुगतान करवाकर, मेरा ऋण खाता बंद कराकर बकाया मेरे पास भिजवा दिया और मैं अमेरिका निकल गया। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

हिंदी-लेखन के प्रति आपका लगाव कैसे पैदा हुआ?

अनुराग शर्मा– 

दीपक जी, बताते हुए गर्व होता है कि हिंदी मेरी मातृभाषा है। आज भी याद करके मुस्कान आ जाती है, जब नानाजी को समाचारपत्र पढ़ते देखते समय मैंने हिज्जे करके पढ़ा था, “हिंदू शैतान।” तब तक अर्धाक्षर पढ़ना नहीं सीखा था जो उस दिन नानाजी ने बताकर पत्र का शीर्षक ठीक किया – हिन्दुस्तान। जम्मू में पाँचवीं कक्षा में पढ़ी पण्डित सुदर्शन की “हार की जीत” पहली कहानी थी जिसने मुझे प्रभावित किया था। दशहरे-दीवाली की लम्बी छुट्टी से पहले प्राचार्या के आह्वान पर हाईस्कूल तक के लड़के-लड़कियों की सम्मिलित सभा में उठकर मंच पर चला गया था और पर्वों के ऊपर पूरा-पूरा एक्स्टेम्पोरी भाषण देकर जब चुप हुआ तो हॉल तालियों से गूँज उठा था। पाँच रुपये नक़द इनाम मिला जिसमें से दो रुपये की एक बाल पॉकेट बुक ‘घसियारे की बेटी’ ख़रीदी और घर पहुँचने तक बस में पूरी पढ़ ली। बाल भारती, इंद्रजाल कॉमिक्स आदि से परिचय तभी हुआ था। भारत में निवास तक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रत रहा। किशोरावस्था में लिखना आरम्भ किया लेकिन कहीं भेजने से पहले अपने लेखन का प्रोफेशनल मूल्यांकन चाहता था। अपनी पहली कहानी बरेली कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ. ज्योतिस्वरूप को दिखाने पर वे इतने प्रसन्न हुए कि उसे पत्रिका के लिये माँग लिया। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी पुरस्कृत हुआ और मंच पर अभिनय भी किया। रचनाओं के संबंध में उपेंद्रनाथ अश्क़ से संक्षिप्त पत्राचार भी हुआ। लेकिन कॉलेज पूरा करते-करते मेरी पहली नौकरी लग गयी और उसके तीन वर्ष में दूसरी। नौकरी में पहले तो लिखने का समय ही नहीं मिला, दूसरे सेवा-नियमों ने प्रकाशन अति-कठिन बना दिया। दस-बारह साल दिल्ली में रहा। साहित्य अकादमी, तथा अनेक ख्यातिनाम प्रकाशनों के सामने से सैकड़ों बार गुज़रा लेकिन कभी भीतर जाने का समय नहीं मिला। कम्प्यूटर विभाग का मेरा एक दशक का कार्यकाल दिल्ली प्रेस से दो भवन छोड़ कर ही था। उनके सारे वाहन मेरे कार्यालय के सामने की सरकारी ज़मीन पर ही खड़े होते थे। लेकिन वह मेरे जीवन का व्यस्ततम काल था जिसमें अपनी सुध-बुध के लिये कोई स्थान न था। कथा-काव्य-आलेख, सब मन को गूँथते थे, एक सूटकेस भर काग़ज़ थे जिनके परिष्करण का समय और प्रकाशन की स्वतंत्रता न थी। जीवन के वे 14-15 वर्ष मेरे अंतर के साहित्यकार का अज्ञातवास थे।

अमेरिका आने के बाद हिंदी साहित्य तक पहुँच कम हुई लेकिन साहित्य और हिंदी के प्रति लगाव निरंतर बना रहा। अज्ञातवास के बाद यह वनवास का आरम्भ था जिसमें मिली स्वतंत्रता की कार्यरूप परिणति पहले अंग्रेज़ी ब्लॉग लेखन, फिर स्ट्रीमिंग मीडिया और तत्पश्चात यूनिकोड आने पर हिंदी में नियमित लेखन में हुई। ब्लॉग लेखन मेरे लिये अभ्यास का समय था लेकिन मेरा ज़ोर हिंदी ब्लॉगिंग में प्रामाणिकता लाने पर था जिसमें मैं बहुत हद तक सफल रहा। हाँ, नियमित प्रकाशन का आरम्भ तब हुआ ब्लॉग लेख राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छपने लगे। पत्र-पत्रिकाएँ रचनाएँ मँगाने लगीं, पुस्तकों के प्राक्कथन के अनुरोध आने लगे, और धीरे-धीरे पहचान भी बनने लगी। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

कृपया आप अपनी शिक्षा के बारे में जानकारी दीजिए।

अनुराग शर्मा– 

मैंने 1985 में गणित, भौतिकी और रसायन विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की थी और उसके बाद गणित में एमएससी करने की योजना बनाई थी। गणित और भौतिकी मेरे प्रिय विषय रहे हैं। गणित को मैं सर्वाधिक सत्यनिष्ठ विषय समझता हूँ इसलिये उसे अत्यधिक गहराई से समझना चाहता था। 1985 में ही मेरी नौकरी लग गयी। विश्वविद्यालय ने एक बेतुका नियम उद्धृत करके मुझे एक ही विकल्प दिया कि मैं नौकरी छोड़कर नियमित छात्र के रूप में एमएससी (गणित) में प्रवेश लूँ। उनके अनुसार (उस समय) एमएससी का छात्र प्राइवेट नहीं हो सकता था और नियमित छात्रों के लिये संध्या या सप्ताहांत कक्षाओं का प्रावधान नहीं था। मेरे जैसे भूमि-व्यवसाय-धन-आरक्षण आदि सुविधाओं से हीन व्यक्ति के लिये नौकरी अति आवश्यक थी, इसलिये आगे पढ़ाई की बात उचित समय के लिये टाल दी। जिस समय में बिहार में तथागत अवतार तुलसी को कक्षाएँ जम्प करके प्रयोगशाला देखे बिना बीएससी और एमएससी कराई जा रही थी उसी समय के उत्तर प्रदेश में मेरे गणित के स्नातकोत्तर के लिये प्रयोगशाला का नियम उद्धृत किया गया। तथागत की तरह मेरा किसी मुख्यमंत्री से परिचय नहीं था तो बात रफ़ा-दफ़ा हो गयी। नौकरी मेरी प्राथमिक आवश्यकता थी सो की। बाद में बैंकिंग संस्थान से लेकर माइक्रोसॉफ़्ट तक अनेक प्रमाणपत्र लिये, बहुत सा स्वाध्याय भी किया और समय मिलने पर सूचना प्रौद्योगिकी और प्रबंधन में स्नातकोत्तर किया। कार्य-संबंधित कोर्स और सदस्यताएँ तो एक अनिवार्यता थीं, सो चलती रहीं। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी आपने हिंदी साहित्य को कंप्यूटर तकनीक से जोड़ने का स्तुत्य कार्य किया है। आपने प्रेमचंद एवं अन्य लेखकों की प्रसिद्ध कहानियों को एक क्लिक में सुनाने योग्य बनाया है। आपको हिंदी साहित्य को तकनीक से जोड़ने की प्रेरणा कहाँ से मिली?

अनुराग शर्मा–

तकनीक मेरा व्यवसाय है, और उसमें मैं कुशल और अनुभवी हूँ। सोचता था कि जिस प्रकार विदेश में बैठकर मैं हिंदी साहित्य से दूर हूँ वैसे न जाने कितने लोग होंगे। इसी प्रकार जो अहिंदीभाषी हिंदी बोल-सुन सकते हैं परंतु देवनागरी पढ़ नहीं सकते, वे भी ऑडियो का आनंद उठा सकते हैं। दृष्टिबाधा वालों के लिये भी ऑडियो उपयोगी है। लेकिन सर्वप्रमुख कारण यह था कि मेरे अपने स्वाध्याय में आईटी, गणित, और भौतिकी से संबंधित ऑडियो सीडिओं का भरपूर योगदान रहा था। हिंदी साहित्य के क्षेत्र की इस कमी को भरने में मैं सक्षम था। पिट्सबर्ग निवासी मित्र आदरणीय भीष्म देसाई की प्रेरणा और सहयोग से उनके साथ मिलकर मैंने विनोबा भावे के गीता प्रवचनों के आठ-आठ घंटों के हिंदी और गुजराती संस्करण तैयार किये, इंटरनैट पर डाले और सीडी बनाकर परिचितों में बाँटीं। प्रेमचंद की हिंदी में तैयार पहली ऑडियो सीडी शैलेश भारतवासी और सजीव सारथी का प्रक्रम रही। मेरी ओर से ये कार्य निस्वार्थ सेवाप्रकल्प के रूप में आज भी जारी हैं। वाचन के लिये जिन मित्रों का सहयोग बीच-बीच में मिलता रहा है, उनका हृदय से आभारी हूँ। रेडियो प्लेबैक इंडिया की वैबसाइट का प्रबंधन कैनेडा निवासी मित्र अमित तिवारी द्वारा चुपचाप किया जाता रहा है, जो उनका हिंदी जगत को एक बड़ा निस्वार्थ योगदान है।अमित हों या देसाई जी, मेरी प्रेरणा वे सभी उदारमना मित्र हैं जो किसी न किसी सेवाकार्य में निस्वार्थ भाव से चुपचाप लगे हैं।

डॉ. दीपक पाण्डेय– 

साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। इस संदर्भ में साहित्य-लेखन से आपका क्या उद्देश्य है?

अनुराग शर्मा– 

दीपक जी, मैं इस कथन से सहमत होते हुए भी यह मानता हूँ कि समस्त साहित्य समाज का दर्पण नहीं होता है। साहित्य लेखकों की निजी सीमाओं के भीतर उनकी अभिव्यक्ति होती है। रचनाकार के ज्ञान, विवेक, चिंतन आदि का विस्तार जितना अधिक होगा, साहित्य उतना अधिक सार्वभौमिक, और कालातीत होगा। सीमित साहित्यकार की रचनाएँ एक सीमित समाज, देश, काल की सीमित झलक देती हैं। कई बार वह झलक भी सत्य नहीं होती। भारत के विभाजन का साहित्य ही देख लीजिये, कितना सीमित और संकीर्ण है। मानवता के इतिहास में घटी इतनी बड़ी दुर्घटना और उसकी पाशविक वृत्तियों और उसके बाद भी बच सकी मानवता को हिंदी साहित्य में तनिक भी न्याय नहीं मिला, क्यों? क्या इसलिये कि उसमें बेघर किये, काटे, मारे, जीवित जलाये गये लोग समाज का अंग नहीं थे? हिंदी साहित्य में विभाजन की बात चलने पर ले-देकर मंटो सहित दो-चार लेखकों के नाम गिना दिये जाते हैं। क्या मंटो हिंदी लेखक थे? क्या भारत विभाजन के बाद वे धर्म-निरपेक्ष और लोकतांत्रित भारत को छोड़कर विभाजन और ख़ून-ख़राबे के ज़िम्मेदार पाकिस्तान में नहीं चले गये थे? क्या निजी स्वार्थ के लिये भारत छोड़कर पाकिस्तान चुनने वाला व्यक्ति विभाजन जैसे विषय के साथ न्याय कर सकता है?

मेरे विचार में उत्कृष्ट लेखन की आत्मा निष्पक्षता में बसती है। विभिन्न वादों में से किसी से जुड़कर प्रचारात्मक लेखन करना मेरे लेखक की मृत्यु है। लेखक का दूसरा गुण उसकी प्रामाणिकता है। मैं उन विषयों पर नहीं लिखता जिनकी मुझे जानकारी नहीं, या जहाँ मुझे तथ्यों की जगह कल्पना डालनी पड़ी। मेरा लेखन सहानुभूतिपरक भी नहीं है। मैं अपने पात्रों को इसलिये नहीं मारता कि पाठक की सहानुभूति मिले। कुछ लेखक साहित्य में अपशब्दों की वकालत इस आधार पर करते हैं कि वे वही लिखते हैं जो उनके पात्र बोलते हैं। मैं इस सोच के विरुद्ध हूँ। अव्वल तो सृजनात्मक लेखन किसी समाचार-पत्र की रिपोर्ट नहीं दूसरे ऐसी रिपोर्टों में भी भाषा की शालीनता का ध्यान रखा जाता है। 
मैं चाहता हूँ कि मेरा लेखन पाठक को उसके समय का पारितोषिक दे। यह पारितोषिक अनेक रूपों में हो सकता है। पाठक हृदय में कुछ अच्छा प्रतीत करे, कुछ नया जाने, कुछ नया सीखने की इच्छा करे, किसी अदृश्य को देखे, कुछ अधिक सक्षम हो, किसी बुराई से बचे। वह समाज के लिये उपयोगी सिद्ध हो, उसका आज उसका कल निखारने वाला बने। मैंने छोटे से जीवन में अनेक जन्मों के अनुभव जिये हैं जिनमें खट्टे, मीठे, चरपरे, नमकीन तो हैं ही विषैले अनुभव भी हैं। मेरे अनुभवों में सुख–दुःख, लाभ–हानि, जय–पराजय, उदारता–छल, देव–दानव सब उपस्थित हैं। इन अनुभवों ने मुझे अपनी आयु से कहीं वृद्ध, अपनी शक्ति से कहीं अधिक वीर, और अपनी क्षमता से कहीं अधिक उदार बनाया है। मैं उन सब अनुभवों की प्रतीति अपने पाठकों को कराना चाहता हूँ, परंतु अनुभवों के अंतर की पीड़ा का कष्ट अनुभव किये बिना। मैं पात्रों के और कुछ हद तक पाठक के कष्ट से भी परिचित हूँ। मैं चाहता हूँ कि साहित्य पढ़ने के बाद पाठक के घाव भरें, और वह अच्छा महसूस करे। मेरे विचार से साहित्यकार ही नहीं, हर विवेकवान मनुष्य का दायित्व है कि वह शब्द प्रकाशित होने से पहले उनके परिणामों को समझे। मेरा लेखन हर आयुवर्ग को पोषित करने वाला है। उसमें ईर्ष्या, द्वेष, शिकायत नहीं, प्रेम और समृद्धि है, टूटन नहीं बंधन है, स्वतंत्रता है, उच्छृंखलता नहीं।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

साहित्य समाज के लिए कैसे उपादेय हो सकता है? कृपया अपनी प्रतिक्रिया दीजिए?

अनुराग शर्मा–

साहित्यकार, प्रकाशक, प्रसारक अपने-अपने दायित्व समझें। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना से कार्य करें। व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से ऊपर उठें, अच्छे साहित्य को प्रमोट करें। मैं साप्ताहिक कथावाचन में अपने-पराये का भाव लाये बिना सदा यह अवश्य देखता हूँ कि यह कथा कैसा संदेश दे रही है। रेडियो स्टेशन के लिये गीत या कार्यक्रम आदि चुनते समय भी मेरा ध्यान उनकी गुणवत्ता पर रहा है। साहित्यकारों के साक्षात्कारों में भी मैंने लीक से हटकर ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे हैं, जिनपर शायद ध्यान नहीं दिया जाता है, या लोग जान-बूझकर असुविधा से बचते हैं। सेतु की संपादकीय नीति के निषेध भी बहुत स्पष्ट हैं। मैंने अपने व्यावसायिक जीवन में पाया है कि असुविधा का सामना किये बिना आप जीवन व्यतीत तो कर सकते हैं लेकिन उपयोगी सृजन नहीं कर सकते। लगभग वही अनुभव साहित्य का है जो भरे पेट के वाग्विलास से कहीं आगे की बात है।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी आपने भारत से दूर रहते हुए इंटरनेट पर 24 घंटे चलने वाले रेडियो-स्टेशन 'पिट रेडियो' का संचालन किया है। आपके मन में रेडियो स्टेशन स्थापित करने की योजना कैसे बनी और इसका उद्देश्य क्या था?

अनुराग शर्मा–

पहला उद्देश्य तो आप्रवासी भारतीय समुदाय को भारतीय साहित्य, संगीत, और संस्कृति से जोड़े रखने का था। कुछ और करने की तुलना में यह करना मेरे लिये सरल था। थोड़े से धन, समय और योजना से यह कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया। देसाई जी ने इस कार्य में आर्थिक सहयोग दिया था।

लता मंगेशकर जी ने लगभग सभी भारतीय भाषाओं में गाया है। क़िस्मत के खेल निराले गाने वाले रवि मलयालम फ़िल्मों में बॉम्बे रवि के नाम से प्रसिद्ध हैं। संस्कृत की धार्मिक रचनाओं को स्वर देने वाले येसुदास मलयालम भाषी ईसाई हैं। हिंदी संगीत को समृद्ध करने वाले मन्नाडे, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, जुथिका रॉय, शान, अभिजीत आदि सब बंगलाभाषी हैं। भारत विविध संस्कृतियों, भाषाओं, जातियों और पंथों / सम्प्रदायों का देश है। जब फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में ये सभी कलाकार भारतीय हैं तो सारे इंटरनैट स्टेशन हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बंगाली क्यों हैं? यह सोचकर मैंने पिटरेडियो को ‘पिट्सबर्ग से भारतीय रेडियो’ की थीम से आरम्भ किया था। ढाई-तीन साल जमकर अकेले चलाया। जब अन्य कार्याभार विशेषकर मेरी स्नातकोत्तर शिक्षा और बेटी की समय न देने की शिकायत बीच में आई तो एक भी वॉलंटीयर न मिलने के कारण बंद करना पड़ा लेकिन आवाज़ और रेडियो प्लेबैक इंडिया के माध्यम से साहित्य और संगीत के पॉडकास्ट अभी भी जारी हैं।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आप तकनीक के साथ हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में निरंतर कार्य कर रहे हैं। वर्तमान समय सोशल मीडिया, फ़ेसबुक, ट्विटर का है, आप इन माध्यमों की साहित्य को क्या उपादेयता मानते हैं? 

अनुराग शर्मा–

मैं अति-व्यस्त और कुछ हद तक रिज़र्व प्रकृति का व्यक्ति हूँ। मैंने सोशल मीडिया को बहुत उपयोगी पाया है। लेकिन हिंदी के अधिकारी संस्थान और विद्वान उस दर्शन से वंचित हैं। हिंदी के तथाकथित युगपुरुष भी, जोकि आजकल थोक में हैं, आत्मप्रशंसा और आत्मप्रचार में लीन हैं। हिंदी में सोशल मीडिया का उपयोग राजनैतिक प्रचार, शिकवे, कुंठा के उद्गार के लिये हो रहा है उतना हिंदी की प्रगति के लिये नहीं। बिल्कुल फ़िज़ूल सी जानकारी – जो कि कई बार भ्रामक, या असत्य भी हो– उस पर प्रशंसा के पुल बाँधे जा रहे हैं, जो हिंदी के सामान्य लेखक के अल्पज्ञान का संकेत है। हिंदी का लेखक अपने लिखे के अतिरिक्त कुछ और नहीं पढ़ता इसलिये उसे ही प्रचारित करता रहता है, वह भी बीसियों त्रुटियों के साथ। 

हाल ही में मैंने लखनऊ निवासी वरिष्ठ लेखिका ‘दीपक शर्मा’ की चार-पाँच कहानियाँ पढ़ीं और अचम्भित हुआ कि हिंदी में उन जैसा लेखन भी हुआ है। सीमित शब्दों में, पूरी प्रामाणिकता के साथ, दिल पर सीधी चोट। कोई लाग-लपेट नहीं, शिल्प और शैली के मामले में किसी भी भाषा के लेखन की तुलना में कोई कमी नहीं। लेखिका का परिचय ढूँढ़ना आरम्भ किया तो इतना पता लगा कि उनकी 19 पुस्तकें छप चुकी हैं। वे दशकों से प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरंतर लिख रही हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर उनका कोई ज़िक्र नहीं था। लखनऊ के लेखकों की चर्चा में भी नहीं। मेरे जैसे प्रवासी तो उनके बारे में जान ही नहीं सकते थे। तब मैंने उनसे बात की, सेतु में हिंदी में उनकी तीन कहानियाँ, अंग्रेज़ी में एक अनुवाद और एक साक्षात्कार प्रकाशित किया। इस प्रकार हमने एक उत्कृष्ट लेखिका को उस स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जिसे सोशल मीडिया में बिखरे आत्ममोह ने पूर्णतः उपेक्षित रखा था। महात्मा गाँधी संस्थान मॉरिशस के आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान का ही उदाहरण लें। भारत और मॉरिशस के संयुक्त उद्यम द्वारा स्थापित आप्रवासी हिंदी के इस सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार का कोई समाचार सोशल मीडिया पर नहीं है। मॉरिशस में ही स्थित विश्व हिंदी सचिवालय की फ़ेसबुक वाल या उनकी वैबसाइट पर भी विजेताओं के बारे में एक टिप्पणी तक नहीं है। सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम है और अन्य भाषाओं में उसका भरपूर प्रयोग हो रहा है किंतु हिंदी में नहीं। हिंदी में यह भी एक और भोंपू मात्र बनकर रह गया है क्योंकि हिंदी में गुणवत्ता कराह रही है। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी आप 'सेतु' पत्रिका का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। तकनीक, साहित्य और बैंकिंग क्षेत्र में व्यस्तता के बावजूद भी संपादन और प्रकाशन के क्षेत्र में आने की प्रेरणा और प्रोत्साहन कहाँ से मिला? कृपया विस्तार से बताइए। 

अनुराग शर्मा–

पठन-वाचन में रुचि बालपन से थी। दस-बारह वर्ष की आयु में मैंने ‘अनुराग प्रकाशन’ की कल्पना की थी। माचिस की डिब्बी जैसी नोटबुक्स की कल्पना भी की थी जो आपकी जेब में हर समय आपके साथ हों। एक विचार यह भी था कि जीवन में जितना सम्भव है वह सब अच्छी प्रकार सीखूँ। आपको शायद आश्चर्य हो कि स्विमिंगपूल, तालाब, या नदी-नहर तक कोई पहुँच न होने के कारण मैंने सामान्य भौतिकी ज्ञान और कुछ पुस्तक पत्रिकाओं की सहायता से घर में पानी के बिना ही तैरना सीखा था। जब पहली बार स्विमिंगपूल में उतरा तो मैं पहले से ही तैरना जानता था।

छात्रजीवन में मित्रगण अपने नोट्स से लेकर रिसर्च पेपर तक मुझसे सम्पादित कराते रहे हैं। भाषण और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेता रहा हूँ। हिंदी कहानियों के ऑडियो बनाते समय छपाई की त्रुटियों के कारण अक़्सर पढ़ते-पढ़ते ही उनको सम्पादित करते रहना पड़ा है। मेरे वास्तविक कार्य में भी संवाद और सम्पादन की भूमिका सदा रही है। मितभाषी हूँ, एक अक्षर भी व्यर्थ नहीं छोड़ना चाहता। समाज को अपनी ओर से यथासम्भव योगदान देने की प्रेरणा तो पूर्वजों, गुरुओं, और उदारमना मित्रों की है। अमेरिका आने के बाद कुछ समय एक चिकित्सा-तंत्र में भी काम किया था। तब उनके रक्तदान कार्यक्रम में दो-तीन वर्ष तक नियमित रूप से हर दो मास में रक्तदान करता रहा था। धन-धान्य, वस्त्रादि से भी जो कुछ हो सके करता हूँ लेकिन मेरा मुख्य कौशल लेखन, सम्पादन, प्रस्तुति, प्रकाशन, संवाद आदि में होने के कारण इस क्षेत्र में मैं स्वयं भी पूर्ण आनंद लेते हुए अपनी सेवा दे सकता हूँ, देता हूँ।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आप 'सेतु' पत्रिका के हिंदी और अंग्रेज़ी दो संस्करण प्रकाशित करते हैं। इन दोनों संस्करणों में क्या भिन्नता होती है।

अनुराग शर्मा–

सेतु के दोनों संस्करण मासिक हैं, दोनों ही साहित्य और कला के वाहक हैं, यही उनकी समानता है। वे दोनों एक दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र हैं। उनके सम्पादन मण्डल, लेखक, पाठक, प्रभावक्षेत्र, विषयक्षेत्र आदि सब एक दूसरे से अप्रभावित हैं। हमारा प्रयास दोनों संस्करणों की गुणवत्ता और प्रामाणिकता उच्च रखने का है। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आप हिंदी और अंग्रेज़ी में सामान अधिकार से सृजन कार्य कर रहे हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि आपको किस भाषा में लिखने में अधिक संतुष्टि मिलती है?

अनुराग शर्मा–

हिंदी मेरी मातृभाषा है। सामान्य जीवन के विषयों पर हिंदी में लिखना, सोचना मेरे लिये स्वाभाविक है। मेरे साहित्य की स्वाभाविक भाषा हिंदी और शोध या विमर्श की स्वाभाविक भाषा अंग्रेज़ी है। अनेक विषय और पृष्ठभूमि ऐसे हैं जिन पर हिंदी में लिखना कठिन है। हिंदी में प्रामाणिकता लाना मेरा भागीरथ प्रयत्न है। मैं चाहता हूँ कि हिंदी समृद्ध हो, उसमें वैज्ञानिक सोच का विस्तार हो। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपका लघुकथा संग्रह 'छोटी सी बात' पढ़ा, इसकी कथाएँ रोचक और समसामयिक लगती हैं। आपका लघुकथा-लेखन की ओर झुकाव कैसे हुआ?

अनुराग शर्मा– 

लघुकथा संक्षिप्त विधा है, मेरे जैसे अल्पभाषी के लिये लघुकथा लिखना स्वाभाविक है। कोई विषय, कुछ मनःस्थितियाँ किसी विधा-विशेष के लिये उपयुक्त होते हैं। मूलतः कथा-लेखक होते हुए भी कभी व्यस्तता के कारण, तो कभी अन्य कारणों से कभी त्वरित रचना की इच्छा हो, या लिखने में अधिक समय लगाना सम्भव न हो तब मैं लघु कृतियों जैसे शेर, दोहे, या लघुकथा का सृजन करता हूँ। मेरी अधिकांश लघुकथाएँ कार चलाते समय बनी हैं और उनके पहले ड्राफ़्ट डैश-माउंटेड फ़ोन पर बोलकर लिखे गये हैं।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

हिंदी साहित्य में लघुकथा को सातवें दशक की उपलब्धि माना जाता है, जबकि भारतीय मीमांसा में पंचतंत्र की कहानियाँ, पौराणिक आख्यानों और अन्य बोधकथाओं में लघुकथाएँ व्याप्त हैं। हमने तो दादी/नानी और बड़ों से ये कथाएँ बचपन से सुनी हैं। इस संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?

अनुराग शर्मा–

मैं लघुकथा विशेषज्ञ तो नहीं लेकिन यह सत्य है कि भारतीय परिवेश में, संस्कृत से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं तक किसी न किसी रूप में लघुकथा का अस्तित्व रहा है। विधा की उपस्थिति सदा से थी, आज हमने उसके मानक निर्धारित कर दिये हैं।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपकी 'क्लाउड 2068' और 'आस्तिक' नए परिवेश और कथ्य से संबंधित हैं। इस प्रकार की प्रेरणा कहाँ से मिली?

अनुराग शर्मा–

सभ्यता इतनी पुरानी है और विभिन्न भाषाओं का साहित्य इतना समृद्ध कि वर्तमान लेखक के लिये कुछ नया कहना बहुत कठिन है। सम्भावना है कि हम जो कुछ लिख रहे हैं, वह कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पहले कहा जा चुका होगा, विशेषकर मानवीय संबंध, भावनाएँ या सरल और घिसे-पिटे विषयों में कुछ नयापन नहीं है। मेरा प्रयास है कि लेखन में नये प्रयोग हों, कहे के साथ अनकहा भी हो। प्रचलित वादों, और फ़ैशन में चल रहे विमर्शों से बचकर मैं उन विषयों पर लिखना चाहता हूँ जिन पर कम कार्य हुआ है। कुछ विषयों के लिये पाठकवर्ग कम है, संपादकवर्ग की स्वीकृति नहीं है लेकिन फिर भी, जिन्हें बात समझ आ जाये उनके लिये ऐसी कृतियाँ अपूर्व आनंददायक हो सकती हैं। एक संपादक मित्र ने एक बार कुछ अलग सा मँगाया तो मैंने ‘मैजेस्टिक मूँछें’ भेज दी। उन्होंने प्रकाशित तो की लेकिन अगली माँग के साथ-साथ यह भी कहा, “इस बार कुछ सरल सा भेजना।” एक अन्य संपादक मित्र फ़ेसबुक पर साप्ताहिक चर्चा के लिये लघुकथाएँ चुनते हैं, उन्हें ‘आस्तिक’ भेजी थी, तो उन्होंने नहीं लगायी, शायद उन्हें लगा कि हिंदी का सामान्य पाठक अभी ‘आस्तिक’ का भाव समझने के लिये तैयार नहीं है।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी लघुकथा लेखन में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

अनुराग शर्मा–

अमेरिका में यदि आप किसी भारतीय ढाबे में जायें और वहाँ ताज़े बने समोसे, गुलाबजामुन, या जलेबी देखकर उन्हें खाने बैठें तो आशंका यह है कि खाने के बाद आप मुँह के ख़राब स्वाद को भला-बुरा कहते हुये शिकवा करेंगे कि ये वाहियात चीज़ क्यों खाई। कमी समोसे या जलेबी की नहीं, बल्कि उन लोगों की है जो पाककला को मामूली काम समझकर कुछ और करने के बजाय ढाबा खोल लेते हैं, “अरे खाना बनाने में क्या है, हर घर में बनता है।” लघु-विधाओं की बड़ी त्रासदी यह है कि बहुत से लोग लघुता को महत्त्वहीन, मामूली, प्रचुर उत्पाद समझकर उनमें इस प्रकार हाथ आज़मा रहे हैं, मानो अमेरिका में देसी ढाबा चला रहे हों। वे यह भी भूल जाते हैं कि अच्छा पाठक हुए बिना अच्छा लेखक हो पाना असंभव भले न हो कठिन तो है ही।

पहली बात जो साहित्य की हर विधा में सत्य है, और लघुकथा पर भी लागू होती है, वह है अनुभव। जिनके अनुभव सास-बहू की खटपट, अवज्ञाकारी संतान, या रिश्वत तक ही सीमित हैं, उनसे किसी बेहतर कृति की आशा व्यर्थ है। अख़बार से ख़बरें पढ़कर लघुकथा नहीं बनाई जाती। जिनके आस-पड़ोस में, सात पीढ़ियों में कोई सैनिक नहीं हुआ, वे सैन्य वीरता की कथाएँ नहीं लिख सकते। जिनके विमर्श, वाद, आदर्श या क्रांतियाँ अनुभव से नहीं बल्कि किसी पुस्तक के गद्य, सुनी-सुनाई बातों, या किसी के प्रवचन से जन्मी हैं उनकी रचनाएँ सतही, झूठी या नक़ली ही होंगी। अच्छे लेखक के अनुभव, और ज्ञान के क्षेत्र विस्तृत होते हैं। वह अपनी निजी मान्यताओं से ऊपर उठकर वास्तविक परिवेश का निष्पक्ष और सजीव चित्रण करने में सक्षम होना चाहिये। लघुकथा ‘छोटी सी बात’ है। उसमें कम शब्दों के बीच बड़ी बात निकलकर सामने आनी चाहिये। और वह बड़ी बात साधारण कथन, मान्यता, अवलोकन, या विश्वास से कहीं अधिक बड़ी होनी चाहिये। एक पृष्ठ या एक पद्यांश में पाठक को चमत्कृत करने के लिये गहन अभ्यास, अनुभव, और समर्पण की आवश्यकता है।

लघुकथा के क्षेत्र में प्रचुर लेखन हो रहा है लेकिन अनेक लघुकथा लेखकों को पूर्णविराम लगाना तक नहीं आता। हंस पक्षी और हँसने का अंतर उनके लिये महत्वहीन है क्योंकि उन्हें चंद्रबिंदु का ज्ञान भी नहीं है। र पर उ और ऊ की मात्राओं में उनके लिये कोई अंतर नहीं। स्रोत और स्तोत्र दोनों को स्त्रोत ही लिखते हैं, स्त्रोत ही बोलते हैं। अपने कार्यक्षेत्र के प्रति यह लापरवाही, यह उदासीनता घातक है। हम जो कार्य करने बैठे हैं उसमें समर्पण न हो तो हम न अपना हित कर रहे हैं न अपने पाठकों का। नये लेखक सोपानबद्ध प्रयासों से अपना लेखन निखार सकते हैं। पहले चरण में हिंदी लेखन, व्याकरण, शब्द-सम्पदा का ज्ञानार्जन किया जाये। दूसरे चरण में विश्व भर से समृद्ध साहित्य पढ़कर उसकी विशेषताओं को पहचाना जाये। तीसरे चरण में अपने अनुभव और ज्ञान के क्षेत्र विस्तृत किये जायें, उनमें प्रामाणिकता लाई जाये। इनके पालन के बाद लेखन की बारी आनी चाहिये। और उस चरण में भी प्रतिदिन एक ड्राफ्ट 21 पत्रिकाओं को मास मेल करने के साथ-साथ 13 फ़ेसबुक और 19 वाट्सऐप समूहों में पोस्ट करने के बजाय शांतचित्त होकर उसका पुनरावलोकन करके उसमें अपेक्षित सुधार किये जायें, तब शायद हमारा लेखन सही दिशा की ओर चलेगा। हम जौहरी नहीं हों तो कोई रत्न मिलने पर उसका मूल्यांकन जौहरी से कराते हैं। लेखन में भी यह बात सत्य है। मूल्यांकन की क्षमता भी अनुभव और ज्ञान से ही जन्मेगी, तब तक अन्य विशेषज्ञों की सलाह लेनी चाहिये, और उनके उद्गारों से सीखने का प्रयास करना चाहिये। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपको 'अनुरागी मन' कहानी संग्रह के लिए महात्मा गाँधी संस्थान, मॉरीशस का 'आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान' मिला, बहुत-बहुत बधाई। यह सम्मान पाकर कैसा महसूस कर रहे हैं, यह सम्मान आपकी सृजनात्मकता को गति देने में कैसे सहायक होगा?

अनुराग शर्मा–

धन्यवाद दीपक जी! हिंदी में आप्रवासी साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान मिलना मेरे लिये अति-प्रसन्नता की बात है। भारत और मॉरिशस दो सरकारों की संयुक्त और अंतरराष्ट्रीय प्रख्यात संस्था का इतना बड़ा सम्मान मॉरिशस संसद की स्पीकर के हाथों पाना किसी के लिये भी गौरव का विषय होना चाहिये। मुझे अपने कार्य-संबंधी, पारिवारिक, और सामाजिक दायित्वों के कारण लेखन के लिये अल्प-समय ही मिलता था, उस सृजनात्मक गति की स्थिति में तो विशेष बदलाव नहीं आया है। लेकिन इस सम्मान के बहाने मॉरिशस के विराट हिंदी समुदाय और उनके द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये किये जा रहे प्रयत्नों से परिचित हुआ। अपनी भाषा, संस्कृति, और धर्म को बचाये रखने के लिये वहाँ के भारतवंशियों द्वारा किये गये संघर्ष को पहचाना। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि अनेक नये मित्रों के अतिरिक्त वहाँ अभिमन्यु अनत जैसे प्रख्यात साहित्यकार के दर्शन का सौभाग्य मिला जिन्हें मैं बचपन से ही देखना चाहता था। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपकी कहानियों में सरलता और प्रवाह है जो पाठक को बाँधने में सक्षम है, इस संदर्भ में कहानी-कला पर आपके क्या विचार हैं? 

अनुराग शर्मा–

किशोरावस्था में जब मैंने कथालेखन आरम्भ किया था तब से ही गुणवत्ता के बारे में बहुत सजग था। उसके बाद भी लम्बे समय तक अपना लेखन विशेषज्ञों, मित्रों और परिचितों को आलोचना के लिये प्रस्तुत करता रहा हूँ। पहले ड्राफ़्ट से संतुष्ट होना तो दूर की बात है, कई कहानियों पर वर्षों कार्य किया है।अनुरागी मन मैंने 1984 में लिखी थी लेकिन उसका प्रकाशित स्वरूप 2011 में सम्पन्न हुआ। जहाँ यह एक कथा में चौथाई शताब्दी बिताने का उदाहरण है वहीं 30 मिनट में लिखी गयी ‘मैजेस्टिक मूँछें’ एक प्रकार से मेरी प्रतिनिधि रचना है क्योंकि उस मानसिक हलचल को मेरे अतिरिक्त और कोई उस तीव्रता से लिख नहीं सकता था।

सरल, सहज और सटीक संवाद एक श्रमसाध्य कला है। लेखक को अपने मन की बात अपने शब्दों द्वारा पाठक, या श्रोता के मन तक अपने मूल रूप और मात्रा में पहुँचाने में माहिर होना चाहिये। लेखक को शत-प्रतिशत सटीक संवाद के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। विषद शब्दावली, भाषा पर पकड़, उसके क्षेत्रीय रूपों के अंतर आदि की समझ लेखन का एक ऐसा पक्ष है जो लेखन शैली सशक्त करता है। लेखन के मर्म तक पाठक की पहुँच, लेखक के कौशल की कसौटी है। मेरा प्रयास सरल भाषा में कथानक को कम से कम शब्दों में, बिना किसी व्यवधान के सामने लाने का है। सामान्यतः कथानक के लिये वही पृष्ठभूमि चुनता हूँ जिसकी मुझे गहन जानकारी है। यदि विषय अलग है तो पहले उस विषय से परिचित होता है। सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करता। लेखन में जितने भी संदर्भ आते हैं उनके विषय में अध्ययन करता हूँ और लेखन में आये संदर्भ से कहीं अधिक आगे तक की प्रामाणिक जानकारी लेता हूँ। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

'खून दो', 'खाली प्याला', 'कौमी एकता' आदि कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को भीतर तक स्पर्श करती हैं? आपके अनुसार कहानी पाठक की संवेदनशीलता को कैसे जागृत करती हैं?

अनुराग शर्मा–

भाव मानव की विशेषता हैं। हम लोग भावुक प्राणी हैं। दयावान हों या क्रूर, स्वार्थी हों या परमार्थी, अधिकांश व्यक्ति समय आने पर, परिस्थितियाँ बनने पर भावों में बह जाते हैं। भाव तो पाठक के मन में पहले से है, लेकिन जब वह कथानक में अपने अंतर के भाव का अनुरनन पाता है तब उसका मन उद्वेलित होता है। मृत्यु हमें उद्विग्न करती है, प्रेम हमारे लिये आह्लादकारी है। पात्र का संघर्ष पाठक को अपने किसी संघर्ष की याद दिला सकता है।
मेरे विचार से एक अच्छा लेखक अपने पाठक की अनकही कहता है। सर्वप्रिय कथाओं में पाठक की अनकही कथा शामिल होती है। हार की जीत (सुदर्शन) हो या उसने कहा था (गुलेरी), ईदगाह (प्रेमचंद) हो या न हन्यते (मैत्रेयी देवी) पाठक स्वयं को, या किसी अपने को वहाँ देखता है। वह कथा के पात्रों के रोचक जीवन के रोमांच की अनुभूति अपने जीवन में चाहता है। पाठक की भावनायें भुनाना कोई कठिन काम नहीं है। लेकिन एक सहृदय लेखक अपने पाठक की भावनाओं का शोषण नहीं करता। बल्कि वह पाठक को अपने अंतर की पीड़ा के गर्त में डुबोने से बचता है। वह अपना दर्द अपने पाठक पर नहीं थोपता। यदि पीड़ा उस कृति-विशेष की माँग या उद्देश्य है, और उसे वर्णित न करने का कोई मार्ग नहीं है तो भी वह टीस की तीव्रता तो कम कर ही देता है। यदि हम लेखक को अपनी पीड़ा से बचाकर उसके हृदय के कोमल भावों को जगा सकें तो वह हमारे लेखन की सफलता है। एक सक्षम लेखक का संवाद सदाशयता-पूर्ण होता है, और सम्पूर्ण भी।

एक साधारण लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। लेकिन समर्थ लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानते हैं, वही उनका कौशल है।
उपेंद्रनाथ अश्क के शब्दों में कहूँ तो, “मनगढ़ंत कथा की चूलें ढीली रह जाती हैं।” 'खून दो', 'खाली प्याला', और 'कौमी एकता', तीनों ही सत्यकथाएँ हैं। ये हमारे बीच रोज़ घट रही हैं, इनके पात्र हमारे पड़ोसी, मित्र, या परिजन हैं इसलिये पाठक सरलता से इनसे जुड़ जाता है। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

गुरु-शिष्य, कृतज्ञता, विमोचन, साहित्य सम्मान कहानियाँ साहित्य-समाज की अराजकता और नैतिकता के ह्रास से संबंधित हैं? इन कहानियों के माध्यम से समाज को सन्देश देना चाहते हैं?

अनुराग शर्मा– 

हिंदीभाषी समाज और साहित्य, दोनों की स्थिति को आप मुझसे अधिक अच्छी प्रकार समझते हैं। मेरी तुलना में आप इन दोनों के अधिक निकट हैं। एक समूह या समुदाय के रूप में हिंदी के साहित्यकारों, सम्पादकों और प्रकाशकों की स्थिति किसी भी प्रकार से विश्वस्तरीय नहीं कही जा सकती है। ओम थानवी के कार्यकाल में मेरी ब्लॉग पोस्ट कई बार जनसत्ता में छपीं, जानकारी देना तो दूर, कभी मेरी अनुमति भी नहीं ली गयी। भारत के बाहर किसी भी भाषा में जो व्यवहार पूर्णतः अनैतिक और अस्वीकार्य है, वह हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सामान्य समझा जाता है। गॉसिप के लिये मशहूर एक अधेड़ अनुवादक फ़ेसबुक पर एक प्रतिष्ठित कवयित्री के बारे में अनाप-शनाप पोस्टें लिख रहा था। एक पोस्ट पर किसी ने टिप्पणी की कि उस पोस्ट को ईव टीज़िंग माना जा सकता है। एक प्रसिद्ध हिंदी लेखिका ने उस टिप्पणी के उत्तर में कटाक्ष करते हुए कहा, “किस उम्र तक ईव माना जायेगा?” यह हाल तो फेसबुक की पब्लिक पोस्ट्स का है, कल्पना कीजिये कि बंद कमरों के बीच ऐसे लोग क्या सोचते और क्या करते रहे होंगे। ऐसा व्यवहार किसी भी सभ्य समाज में मान्य नहीं है फिर प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकारों के बीच क्यों सामान्य हो?

बीबीसी हिंदी सहित अनेक वैब पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ जहाँ शायद ही एक पृष्ठ ऐसा मिले जो त्रुटिहीन हो। आकाशवाणी के उद्घोषक हों या दूरदर्शन के वाचक, न वे हिंदी बोल सकते हैं, न उन्हें देश के इतिहास-भूगोल की पर्याप्त जानकारी है। 

ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया के उत्थान के साथ कुछ ऐसे दुकानदारों का भी उत्थान हुआ है जो हमारी “छपास-वृत्ति” के दोहन में लगे हैं। वैनिटी पब्लिशिंग कोई नई बात नहीं। लेकिन ईमेल द्वारा 100 लोगों की कविताएँ मँगाकर, उनकी गुणवत्ता समझे या सम्पादित किये बिना एक संकलन छपवाकर उस पर संपादक के रूप में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखकर दस-दस प्रतियाँ उन्हीं 100 लोगों को बेच देना बड़ा धंधा बन गया है। अच्छा लेखन भी अभिव्यक्ति वार्धक्य के इस युग में इन सम्पादकों-प्रकाशकों के कारण टके सेर भाजी, टके सेर खाजा हुआ जा रहा है। कुछ तथाकथित हिंदी साहित्यकार तो अपनी संस्था में संयुक्त राष्ट्र तक का अनधिकृत टैग तक लगाये हुए हैं। कुल मिलाकर हिंदी-साहित्य की स्थिति अति-गम्भीर है। शोषक-शोषित दोनों मिलकर स्तरीय साहित्य के तख़्तापलट की क्रांति में जी-जान से जुटे हुए हैं।

अच्छा साहित्यकार होने से पहले हमें अच्छा व्यक्ति होना चाहिये। मुझे हिंदी साहित्यिक क्षेत्र का यह पतन स्वीकार्य नहीं। मैं इससे व्यथित हूँ और इस विषय में जागृति फैलाता रहूँगा।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

अनुराग जी आपकी कहानियों का अंत अन्य कहानीकारों से आपके लेखन को विशेष बनाता है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

अनुराग शर्मा–

आपकी बात सच है। कहानी लिखते समय मैं इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ कि वह किसी भी बिंदु पर प्रिडिक्टेबल न हो। कथा के जिस बिंदु पर पाठक को यह पता चल गया कि आगे क्या होगा, मेरे विचार से उस कथा को वहीं समाप्त हो जाना चाहिये। कहानी जीपीएस नहीं है कि पाठक को पहले से पता हो कहाँ जाना है और कितनी देर लगेगी। इसके विपरीत कहानी किसी अज्ञातलोक की रोमांचक यात्रा जैसी होनी चाहिये जिसमें पाठक का पोत हर बार एक नये संसार की खोज कर सके। मेरी कई रचनाएँ लम्बे समय से इसीलिये अपूर्ण पड़ी हैं क्योंकि उनका ‘अनुरागी’अंत अभी नहीं सोच सका हूँ।

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आप साहित्य लेखन में निजता की क्या भूमिका मानते हैं ? 

अनुराग शर्मा–

महाभारत जैसे अपवाद छोड़ दें तो, छापेखाने से सिनेमा तक के ज़माने में पाठक का लेखक से संवाद एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या कि लेखक या पाठक से मिल सके। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अँधेरे में रखता है। लेखन में निजता का सम्मान लेखक का प्राथमिक कर्तव्य है। कोई भी परिपक्व लेखक अपनी कृतियों को व्यक्तिगत द्वेष या अपने किसी अभियोग की सफ़ाई के लिये प्रयोग नहीं करेगा। मन्नू भण्डारी की ‘उसने कहा था’ में यदि आप मुख्य पात्रों का लिंग-परिवर्तित कर दें तो कोई भी पाठक उन्हें पहचान लेगा। लेकिन इस एक छोटे से परिवर्तन से मन्नू जी ने पात्रों की निजता कुछ सीमा तक बचाये रखी। एक अच्छे लेखक को एक अच्छे व्यक्ति, और एक अच्छे नागरिक का कर्त्तव्य निभाना चाहिये और अपने पात्रों की निजता का पूर्ण सम्मान करते हुए किसी भी प्रकार के संकेत देने से बचना चाहिये। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपकी कुछ कहानियाँ आपके कार्य-क्षेत्र से जुड़ी प्रतीत होती हैं जिनमें संस्मरण का आभास होता है जैसे – गरजपाल की चिट्ठी, जाके कभी न परी बिवाई, असीम आदि। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

अनुराग शर्मा–

मेरी जो कहानियाँ मेरे कार्यक्षेत्र से जुड़ी प्रतीत होती हैं वे वास्तव में किसी भी अन्य कार्यक्षेत्र की पृष्ठभूमि में रची जा सकती थीं। लेकिन मैंने अपने कार्यक्षेत्र की पृष्ठभूमि इसलिये चुनी क्योंकि मैं उस पृष्ठभूमि से परिचित हूँ और उसके तथ्यों के साथ न्याय कर सकता हूँ। मैंने पहले प्रामाणिकता की बात की है, यह उसी प्रामाणिकता की बात है। जहाँ तक संस्मरण की प्रतीति की बात है, उसके कई कारण हैं। एक तो यह कि कहानी के सरलीकरण के उद्देश्य से, पात्रों की संख्या कम करने हेतु, तथा रचना को ‘उसने उससे कहा’ जैसे अस्पष्ट वाक्यों से बचने हेतु मेरी कई रचनाओं का पात्र ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ कई बार रचना में संस्मरण का आभास लाता है। इसके अतिरिक्त विषयवस्तु और पृष्ठभूमि की प्रामाणिकता भी कथा में सत्यकथा का प्रभाव लाते हैं। मेरी कथाओं में वर्णित अनुभव वास्तविक हैं और यथावत प्रस्तुत किये गये हैं, यह तथ्य भी कई कथाओं में संस्मरण की अनुभूति का एक कारण है। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आजकल नया क्या लिख रहे हैं और उनकी विषय-वस्तु क्या है? 

अनुराग शर्मा– 
दीपक जी, सेतु संपादन में काफ़ी समय लगता है सो अपने लेखन में कटौती हो जाती है। दो उपन्यास बहुत दिनों से अधूरे पड़े हैं। उन पर फिर से काम आरम्भ किया है। सौ पृष्ठों के लघुकथा संकलन के लिए एक अच्छे प्रकाशक की खोज में हूँ। आलेख और कहानियाँ तो लिखता ही रहता हूँ। 

डॉ. दीपक पाण्डेय–

आपने संवाद के लिए अपना समय दिया इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपकी क़लम से निरंतर पढ़ने/ मनन करने के विषय मिलते रहें, शुभकामनाएँ।

अनुराग शर्मा–

आपके समय और विवेचन के लिए आभार। शुभकामनाएँ।
******
परिचय
अनुराग शर्मा
जन्म: रामपुर, उत्तरप्रदेश (भारत)
शिक्षा: बी.एस.सी., प्रोद्योगिकी और प्रबंधन में स्नातकोत्तर
प्रकाशित पुस्तकें: अनुरागी मन(कथा संग्रह); छोटी सी बात(लघुकथा संग्रह); पतझड़ सावन वसंत बहार(सम्पादित काव्य संकलन); इंडिया ऐज़ एन आईटी सुपरपॉवर(अंग्रेज़ी शोधग्रंथ)
साझा संकलन: देशांतर(प्रवासी काव्य संग्रह, हिंदी अकादमी दिल्ली), प्रवासी स्त्री लेखन –  विमर्श के विविध आयाम (शोध आलेख संग्रह), सेतु- कथ्य से तथ्य तक (लघुकथा समीक्षा), पड़ाव और पड़ताल खण्ड (लघुकथा संकलन), साक्षात्कारों के आईने में  (प्रवासी साक्षात्कार), पाँच कहानियाँ (कहानी संग्रह), अमरावती पोयटिक प्रिज़्म  2018 (बहुभाषीसंग्रह), ट्रिब्यूट टु दामिनी –एसर्बिक एंथॉलॉजी (2013 में निर्भया को अंतर्राष्ट्रीय लेखक समुदाय की श्रद्धांजलि)
ऑडियोबुक्स: सुनो कहानी(प्रेमचंद कहानियों की पहली ऑडियो बुक),विनोबा भावे के गीता प्रवचन
प्रकाशनाधीन (सन् 2021): लघु-विस्तार (एकल लघुकथा संग्रह); ‘प्रवासी पुरुष लेखन: विमर्श के विविध आयाम’ (साझा शोध आलेख संकलन: सिंह व बैरवा); भारतेत्तर देशों में हिंदी भाषा एवं साहित्य (साझा शोध आलेख संकलन: कोल्हारे); पंथी को छाया मिले (कथा संकलन: संपादक–प्रणु शुक्ला); प्रतिनिधि कविताएँ (काव्य संकलन: संपादक–संजीव कुमार); प्रतिनिधि लघुकथाएँ (लघुकथा संकलन: संपादक–रामकुमार घोटड़)
सम्पादन: जून 2016 से पिट्सबर्ग से प्रकाशित मासिक, सेतु के संस्थापक, व मुख्य संपादक
शिक्षण: चिन्मय मिशन, मनरोविल में आबाल-वृद्ध कक्षाओं को दो वर्ष तक हिंदी का शिक्षण, अमेरिका की प्रतिष्ठित ड्यूक विश्वविद्यालय की हिंदी कक्षाओं को सम्बोधित करने के लिये आमंत्रित 
सम्मान:

  • मॉरिशस संसद की स्पीकर द्वारा महात्मा गांधी संस्थान का प्रथम ‘आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान’ 2016

  • भाष्य गौरव सम्मान 2016-2017

  • सेवा कल्याण सम्मान 2018

  • विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस की एकांकी प्रतियोगिता में पुरस्कृत

अन्य:

  • अब तक छह सौ से अधिक गद्य, व पद्य रचनाएँ देश-विदेश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 

  • हिंदी साहित्यकारों के साक्षात्कार। 

  • चौबीसों घण्टे चलने वाले स्ट्रीमिंग रेडियो स्टेशन पिटरेडियो की स्थापना। 

  • तीन सौ से अधिक हिंदी कहानियों का ऑडियो प्रसारण। 

  • अनकही कहानी (कहानी जानी अनजानी), संस्मरण (रचनाकार), कहानी (ईकल्पना), संगीतबद्ध कविता (हिंदयुग्म-आवाज़) की प्रतियोगिताओं के निर्णायक मण्डल के सदस्य।

  • भारतीय बैंकिंग संस्थान से बैंकिंग उन्मुख हिंदी परीक्षा का प्रमाणपत्र 

  • अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की आजीवन सदस्यता। ‘तिब्बत के मित्र’, ‘यूनाइटेड वे’ एवं ‘निरामिष’ जैसे सामाजिक संगठनों की सदस्यता। सन् 2005 की सुनामी में एक लाख डॉलर की सहायता राशि जुटाने वाली समिति के सक्रिय सदस्य।

ईमेल: setuhindi@gmail।com
 

साक्षात्कार कर्ता 

डॉ दीपक पाण्डेय 
सहायक निदेशक, केंद्रीय हिंदी निदेशालय 
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार 
नई दिल्ली 
मोबाइल- +91-8929408999
ईमेल- dkp410@gmail।com
 

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