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नीरजा माधव की पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ बौद्धिक जगत की प्रेरणापुंज रचना 

समीक्षित पुस्तक: हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास (1857–1947)
लेखिका: नीरजा माधव
प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन
मूल्य:
पृष्ठ संख्या: 240
एमज़ॉन लिंक: हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास (1857–1947)

भारतीय साहित्य लेखन परंपरा का दीर्घकालीन इतिहास है और इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे आदिग्रंथ हैं, ताड़पत्र और भोजपत्रों में लिपिबद्ध ग्रंथों की उपलब्धता है। आज यह लेखन परंपरा वैज्ञानिक युग से तालमेल बैठाते हुए तकनीकी रूप से समृद्ध हो चुकी है और साहित्य से संबंधित नए-नए प्रकाशन उपलब्ध हो रहे हैं। इसी क्रम में डॉ. नीरजा माधव की महत्त्वपूर्ण कृति ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास (1857-1947)’ सामने आई है। इस पुस्तक में डॉ. नीरजा जी ने सात सर्गों में (नान्दी पाठ, नवजागरण की प्रभाती, स्त्री लेखन:नये क्षितिज से परिचय, इतिहासकारों की बाज़ीगरी, कंठ से कंठ तक उद्घोष यात्रा, स्वतंत्रता की साधिकाएँ, अन्त में –) अनुसंधानपरक जानकारी बौद्धिक जगत तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है और समाज को हिंदी साहित्य के इतिहास के अनछुए पक्षों पर पुनर्विचार कर नए सिरे से हिंदी साहित्य के इतिहास को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया है। 

डॉ. नीरजा माधव की रचनात्मकता के अनेक फलक हैं। आपके लेखन में भारतीय समाज और संस्कृति के बहुविध विषय अभिव्यक्त हुए हैं। आपने उपन्यास, कहानी, निबंध, कविता, आलोचना, शोध आदि विधाओं में साहित्य-सृजन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। वर्तमान में भी आप भारतीय संस्कृति के वैभव, राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक अवमूल्यन विषयों पर सक्रिय रूप से गंभीर लेखन कार्य में व्यस्त हैं। आपके बहुचर्चित उपन्यास हैं: यमदीप, तेभ्य स्वधा, गेशे जम्पा, अनुपमेय शंकर, अवर्ण महिला कांस्टेबल की डायरी, ईहा मृग, धन्यवाद सिवनी, रात्रिकालीन संसद, देनपा: तिब्बत की डायरी, त्रिपुरा आदि। लगभग सभी उपन्यास नए कलेवर और वातावरण से पाठकों को अवगत कराते हैं तथा समाज के उत्थान के लिए पाठकों को प्रेरित कर जागरूक मानसिकता के साथ समाज-कल्याण की भावना का प्रतिपादन करते हैं। नीरजा जी ने अपनी कहानियों से भी हिंदी पाठकों को प्रभावित किया है और सशक्त कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बनाई है। आपके प्रकाशित कहानी संग्रहों में: चिटके आकाश का सूरज, अभी ठहरो अंधी सदी, आदिम गंध तथा अन्य कहानियाँ, पथदंश, चुप संतारा रोना नहीं, वाया पांडेयपुर चौराहा, पत्थरबाज़, प्रेम संबंधों की अन्य कहानियाँ आदि लोकप्रिय हुए हैं। कहानियों में समाज के ताने-बाने के विविध पक्ष सहज एवं सरल रूप में अभिव्यक्त हुए हैं जिसके कारण पाठक उनकी संवेदनाओं के मर्म तक पहुँचकर कथा से तादात्म्य स्थापित कर पाता है। हिंदी विद्वान प्रो. बच्चन सिंह ने लिखा है, “नीरजा की कहानियों में न जटिलता है और न शैलीगत प्रयोग। वे सहज भाव से गँवई के शब्दों को उठाती हैं और उन्हीं से अपनी कहानियों का ताना-बाना बुनती हैं।” (सृजन के आयाम-ब्रिजबाला सिंह, यूनिवर्सिटी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ-188) 

निबंध लेखन में नीरजा जी के गंभीर चिन्तन-मनन दृष्टिकोण का परिचय मिलता है अब तक आपके प्रकाशित निबंध संग्रह हैं: चैत चित्त मन महुआ, साझी फूलन चीति, यह राम कौन है, भारत का सांस्कृतिक स्वभाव। ‘प्रथम छंद से स्वप्न’, ‘प्रस्थानत्रयी’ नामक आपके दो कविता संग्रह प्रकाश में आए हैं। समाज-सापेक्ष विषयों को विविध विधाओं में अभिव्यक्त कर डॉ. नीरजा जी समाज के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में नीरजा माधव भारतीय सांस्कृतिक गरिमा और गौरव की अनुकूल परंपरागत भूमि से संपृक्त साहित्यकार हैं और मानवीयता के सभी पहलुओं का गहनता से चिंतन-मनन पर विश्वास रखती हैं। 

नीरजा जी सृजनात्मक साहित्य में अनुसंधानपरक लेखन को वरीयता देती हैं तभी तो उनका साहित्य पाठकों को नए धरातल पर सोचने को विवश करता है। जिनमें तथ्यात्मकता और यथार्थ का सम्मिश्रण होता है। ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ भी डॉ. नीरजा माधव की अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति का ही परिणाम है जिसकी स्वीकारोक्ति उन्होंने पुस्तक के प्राक्कथन में की है और यह कथन पुस्तक की प्रेरणाभूमि भी है। वे लिखती हैं–“म. प्र. राजभाषा प्रचार समिति, भोपाल की ओर से ‘नब्बे वर्ष की नारियाँ और हिंदी साहित्य’ विषय पर व्याख्यान देने का आमंत्रण मिला। उस दिन मैंने सोचा भी न था कि यह विषय मुझे एक इतिहास-ग्रन्थ लिखने के लिए विवश कर देगा। . . . विषय पर जब तक पूरी पकड़ न हो, वक्तव्य के लिए तब तक मैं अपने आपको तैयार नहीं मानती। अस्तु, इतिहास की बहुचर्चित पुस्तकों की दीया-बाती लेकर मैं नब्बे वर्ष की नारियों का अस्तित्व और योगदान तलाशने बैठी तो आश्चर्यजनक ढंग से उन्हें अनुपस्थित पाया। बस गिनती के दो-चार नाम गिनवाने वाली शैली में पाकर मैं हतप्रभ थी। बंग महिला, उषा देवी मित्रा, होमवती देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा और महादेवी वर्मा। नब्बे वर्षों के कालखंड में मुश्किल से नौ स्त्री रचनाकारों के नाम भी न मिल सके मुझे। . . . अब नब्बे वर्ष के कालखंड पर अपने ढंग से पड़ताल करने की मेरी इच्छा और बलवती होती गई। शायद आधे इतिहास की इस शृंखला में कुछ नयी कड़ियाँ जुड़ सकें। इस प्रक्रिया में ही समझ आया कि पुरातत्वविदों को टूटे फूटे प्राचीन मृन्भाण्डों या भग्नावशेषों में अन्वेषण के नयेपन का कौन सा रस मिलता है, जो वे दिन-रात इस शुष्क व्यापार में सर खपाते रहते हैं। खोज के उसी रस का पान करते हुए मैंने आर्य भाषा पुस्तकालय, केंद्रीय लाइब्रेरी बी एच यू, तिब्बती विश्वविद्यालय सारनाथ सहित न जाने कितने हिंदी के प्राचीन संस्थानों (जहाँ-जहाँ कुछ सामग्री उपलब्ध होने की आशा थी) की जीर्ण-शीर्ण, दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों की पुरानी गंध नथुनों में भरते हुए इस कालखंड की तीन दर्जन से अधिक लेखिकाओं को उनकी रचनाओं के साथ ढूँढ़ निकाला।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 9-10) 

नान्दी पाठ सर्ग के अंतर्गत लेखिका ने ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ की पूर्वपीठिका को प्रस्तुत किया है जिसमें भारत के सामजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक ढाँचे को समाहित करते हुए 1887-1947 के कालखंड में स्त्री लेखिकाओं के योगदान को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। वैदिक काल में भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष का समान आदर सम्मान था, समाज में विदुषियों की कोई कमी नहीं थी तभी तो यह मान्यता प्रचलित रही—‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’। मंत्रदृष्टि देवियों जैसे: अदिति, रोमशा, लोपामुद्रा, घोशाला, आपला, विलोमा, मैत्रेयी, गार्गी, ब्रम्ह्वादिनी, सावित्री, विश्वम्भरा आदि की रचनाएँ वैदिक साहित्य की धरोहर हैं। मध्यकाल में विपरीत स्थितियों/परिस्थितियों ने स्त्रियों की प्रतिभा और कुशलता को कुप्रथाओं की ज़ंजीरों में जकड़ने का भरसक प्रयास किया और समाज पुरुष प्रधानता की ओर अग्रसर हुआ। इसके विस्तार में न जाकर हम पाते हैं कि लेखिका ने आलोच्यकाल में देश की स्थितियों/ परिस्थितियों के आधार पर ‘नारियों की भूमिका और हिंदी साहित्य’ को चार महत्त्वपूर्ण स्तंभों के रूप में देखने का प्रयास किया है:

वे नारियाँ जो प्रत्यक्षत:1857 और उसके आगे भी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ी हुई थीं। 
वे नारियाँ, जो आन्दोलन के साथ ही अपने रचनाकर्म से भी भारतीय जनमानस को उत्प्रेरित कर रही थीं। 
वे नारियाँ, जो आन्दोलन से प्रत्यक्षत: न जुड़कर केवालापने सृजन यज्ञ के द्वारा स्वतंत्रता देवी का आह्वान कर रही थीं और 
वे नारियाँ, जो अशिक्षा और वर्जनाओं की चारदीवारी में रहते हुए भी अपने वाचिक सहित और लोककला के द्वारा जनजागरण का कार्य कर रही थीं।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 17-18) 

भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में पुरुषों के साथ-साथ नारी शक्ति ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी तभी तो भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, असगरी बेगम हजरत महल, ईश्वरी देवी, उषा देवी, आशा देवी, शोभा देवी शर्मा, बख्तावारी देवी, हबीबा, मामकौर, शान्ति घोष, सुनीति चौधरी, दुर्गा भाभी, सुशीला देवी, भगिनी निवेदिता जैसी अनेक वीरांगनाओं के नाम अमर हो गए हैं। इनके साथ ही देश के गाँव-गाँव की नारियाँ भी लोकसाहित्य के माध्यम से वीरांगनाओं के साथ ‘जागते रहो’ जैसा उद्घोष कर रहीं थीं। लेखिका ने वाचिक परंपरा में पूर्वजों (माँ, दादी, नानी) से प्राप्त लोकगीतों की धरोहर को प्रस्तुत किया है। नीरजा जी ने इस काल में साहित्यलेखन में मल्लिका, श्रीमती हरदेवी, बंग महिला, यशोदा देवी, स्वर्णकुमारी, मानद देवी, रुक्मिणी देवी, शैलकुमारी, प्रियंवदा देवी, होमवती देवी, उषा मित्रा, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा की रचनाओं की चर्चा करते हुए साहित्यप्रेमियों को अनुसंधान के लिए प्रेरित किया है। वे आह्वान करती हुई लिखती हैं—“नब्बे वर्ष की झलमल आभा का द्वार उढ़का हुआ है, आवश्यकता है नयी रोशनी के लिए द्वार खोलें और साक्षात्कार करें इस युग के स्त्री रचनाकारों से, स्त्री शक्ति से, उसके शौर्य और बलिदान से, उनके सृजन के एकांत से।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 30) 

‘नवजागरण की प्रभाती’ नामक अध्याय में डॉ. नीरजा माधव ने हिंदी की संक्षिप्त विकासयात्रा को सुगठित रूप से प्रस्तुत किया है। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में भारतीय भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियों आदि की उपादेयता व उर्वरता का महत्त्वपूर्ण योगदान की चर्चा करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों में देश को एकसूत्र में बाँधने और नवजागरण में हिंदी की भूमिका को रेखांकित किया है। हिंदी की समृद्धि में सक्रिय साहित्यकारों/रचनाकारों के समर्पण और उनके प्रतिभाकर्म की परिचयात्मक जानकारी प्रस्तुत की है। 

‘स्त्री लेखन: नये क्षितिज से परिचय’ में डॉ. नीरजा माधव ने 1857-1947 की कालावधि की अनेक लेखिकाओं से हिंदी पाठकों को अवगत कराया है साथ ही अनुसंधान के लिए नए विषय की प्राककल्पना शोधार्थियों को दी है। विषय की गहराई से खोजबीन करने में लेखिका ने पाया है कि—“जब अनेक इतिहास-ग्रंथों और ग्रंथकारों से मेरी मौन मुठभेड़ हुई तो प्रतीत हुआ कि अनेक स्त्री रचनाकार कभी इतिहास से इसलिए छूट गए कि वे किसी संप्रदाय अथवा ‘रानी-कवि-वंश-परंपरा’ से उद्भूत थे तो कुछ को इसलिए सायास छोड़ दिया गया कि उनकी रचनाओं में साहित्यिक कला कौशल की अपेक्षित विशेषताएँ न थीं। कुछ गुमनामी में रहने के कारण इतिहास में दर्ज न हो सकीं तो कुछ को जानबूझ कर अनदेखा कर दिया गया। कुल मिलाकर हिंदी साहित्य के इतिहास को आधा-अधूरा लिख-लिखाकर पूरा मान लिया गया . . . इतिहास और रचनाधर्मिता की पारस्परिकता एक-दूसरे को अपनाने में है, छोड़ने में नहीं।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 43) 

नीरजा माधव सजग अध्येता और समर्थ साहित्यकार हैं तभी उनके सोचने-विचारने की प्रक्रिया आम लोगों से भिन्न है। वे तथ्यों की सत्यता को गहराई से जानने को उत्सुक होती हैं और लेखनी से पाठकों में भी यही उत्सुकता पैदा करती हैं। 1857-1947 की कालावधि में स्त्री लेखिकाओं के साहित्य का अध्ययन करने के लिए उन्होंने 1857-1900 तक की रचनाकारों को मल्लिका मंडल और 1900-1947 की लेखिकाओं को महादेवी मंडल के अंतर्गत रखा है।

लेखिका ने कठिन परिश्रम से आलोच्यावधि की अनेक रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से चर्चा की है, यह चर्चा साहित्य जगत के लिए नया आयाम बन सकती है। इस अध्याय में अनेक स्त्री रचनाकारों जैसे: प्रताप कुंवरिबाई, मल्लिका देवी, हरदेवी, राजरानी देवी, रूपकुमारी चंदेल, गिरिराज कुंवरि, महारानी वृषभानु कुंवरि, कमलाबाई किबे, गुजराती बाई बुन्देलबाला, ब्रह्मचारिणी चंदाबाई पंडिता, श्रीमती गोपाल देवी, प्रियंवदा गुप्ता, उषा देवी मित्रा, बंग महिला (राजेन्द्र बाला घोष), महादेवी वर्मा, शिवरानी देवी, तोरण देवी शुक्ल ‘लली’, राजकुमारी चौहान, कुमारी रेहाना बहन तैयबजी, चन्द्रावती लखनपाल, सुभद्रा कुमारी चौहान, होमवती देवी, कमला चौधारी, चंद्रवती ऋषभसेन जैन, रामेश्वरी देवी गोयल, सत्यवती शर्मा, पुरुषार्थवती, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, तारा पांडे, विद्यावती कोकिल, शकुंतला सिरोठिया, हीरादेवी चतुर्वेदी, रामेश्वरी देवी ‘चकोरी’, शान्ति अग्रवाल, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, चंद्रमुखी ओझा, शान्ति मेहरोत्रा, कुमारी शकुन्तला शर्मा, मुन्नी देवी भार्गव, मंदा देवी, यशोदा देवी, आदि स्त्री रचनाकारों के बारे में और उनके साहित्यिक अवदान के बारे में विस्तृत चर्चा की है। यह अध्याय पुस्तक को पठनीय और उपयोगी बनाता है। स्त्री रचनाकारों की रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए डॉ. नीरजा माधव ने लिखा है—“इतिहास से ओझल इन लेखिकाओं के बारे में इतना तो स्पष्ट है कि जब पुरुष लेखक उपन्यासों, कहानियों में तिलिस्म ढूँढ़ रहे थे, उस समय ये लेखिकाएँ अपने साहित्य में आदर्श समाज के निर्माण की नींव रख रही थीं। इन लेखिकाओं के बारे में साहित्येतिहास की चुप्पी अनायास थी या सायास, यह एक प्रश्न है—1857-1947 की कालावधि में महिला रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी साहित्य-साधना में रत दिखाई पड़ती है। अपने-अपने ढंग से ये नवजागरण की प्रभाती गाती हैं और अपनी रचनाओं से उदबोधन का कार्य करती हैं।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 143-146) 

‘इतिहासकारों की बाजीगरी’ चतुर्थ सर्ग में इस बात को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया कि जहाँ समाज का एक वर्ग, पुरुष अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति से अनेक रचनाओं का सृजन कर सकता है पर दूसरा वर्ग, स्त्री कैसे समसामयिक परिदृश्य से संवेदना शून्य रह सकता है? किसी दुर्भावनावश, अज्ञानतावश स्त्री रचानाकारों के साहित्य-सृजन से हिंदी साहित्येतिहास लेखक दूरी बनाए रहे। हिंदी साहित्य के इतिहास पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. नरेंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं पर सभी ने 1857-1947 की कालावधि में स्त्री लेखिकाओं के साहित्य अवदान की अनदेखी की है सिर्फ़ इतिहास के एकांगी न होने के लिए दो-चार स्त्री रचनाकारों को शामिल कर लिया है। वास्तव में डॉ. नीरजा जी ने हिंदी जगत को ऐसा ज्वलंत विषय दिया है, जिस पर बौद्धिक जगत के सभी वर्गों-चाहे लेखक हो या पाठक, आचार्य हों या विद्यार्थी, सरकार हो या संस्थाएँ सभी को इस विषय पर गंभीरता से विचार-विमर्श/अनुसंधान करना आवश्यक और अनिवार्य हो जाता है ताकि हिंदी साहित्य के इतिहास को संपूर्णता से प्रस्तुत किया जा सके। 

पंचम सर्ग ‘कंठ से कंठ तक उद्घोष यात्रा’ में लोकसाहित्य में स्त्री रचनाकारों की भूमिका की जानकारी दी है। लेखिका ने स्वीकार किया है कि “वाचिक परंपरा की ही अनविच्छिन्न शृंखला है हमारा लोक साहित्य, जो अधिकांश स्त्रियों द्वारा रचित और कंठ से कंठ तक की अविराम यात्रा का साक्षी है।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 171) भारतीय समाज में प्राचीन समय से पर्व और त्योहारों का आधिक्य रहा है और इनमें सांस्कृतिक आयोजन की परंपरा रही है जिनमें स्त्रियों की प्रतिभागिता सबसे अधिक होती रही है। इस प्रतिभागिता ने लोकसाहित्य की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। यह लोकसाहित्य तत्कालीन स्थितियों-परिस्थितियों से संबद्ध होता है और स्त्री रचनाकार समसामयिकता से सराबोर लोकसाहित्य की रचना करती रही हैं। लोक जीवन में रचे-बसे लोकगीत जैसे सोहर, नकटा, दादरा, झूमर, होरी, बन्ना, गारी आदि प्राचीनकाल से अब तक अस्तित्व में हैं और समाज का अंग बने रहेंगे। भोजपुरी, ब्रज, अवधी, बुन्देलखंडी, मैथिली, राजस्थानी आदि ने अपने लोकसाहित्य से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है, लेखिका ने विस्तार से सोदाहरण इसकी जानकारी दी है। 

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में देश के स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी एकजुट होकर देशप्रेम की भावना से अपना-अपना योगदान दे रहे थे उनमें भारतीयता की भावना का संचार हुआ। इस क्रम में भारतीय स्त्रियों का त्याग, समर्पण, सक्रिय योगदान भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। डॉ. नीरजा माधव ने ‘षष्ठ सर्ग: स्वतंत्रता की साधिकाएँ’ में विवेच्य काल 1857-1947 की वीरांगनाओं/साधिकाओं के अमूल्य योगदान और साहसिक कार्यों का संक्षिप्त लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इनमें रानी चेन्नमा, रानी भवानी, भामाबाई, महारानी लक्ष्मीबाई, मैना, बेगम जीनत महल, ईश्वर कुमारी, माता तपस्विनी, बेगम हजरतमहल, रानी अवंतीबाई, अजीजन, सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गाँधी, जानकी देवी बजाज, श्रीमती तोट्टाकाट्टू इक्कावम्पा, मातंगिनी, पार्वती देवी, लाडोरानी जुत्शी, सावित्री देवी, उषा मेहता, बहुरिया रामस्वरूप देवी, कमला कुमारी, उर्मिला शास्त्री, कमला नेहरू, मैडम कामा, सुशीला देवी, दुर्गा देवी बोहरा, भगिनी निवेदिता, एनी बेसेंट, सुनीति चौधरी, शान्ति घोष आदि पर पठनीय जानकारी उपलब्ध की है। इसके साथ ही उन्होंने अन्य वीरांगनाओं का भी स्मरण किया है जिनमें: सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई, मोतीबाई, असगरी बेगम, शोभा देवी शर्मा, हबीबा, बख्तावरी, मामकौर, स्वर्ण कुमारी देव, श्रीमती कादम्बिनी गांगुली, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, विजय पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, वासंती देवी, उर्मिला देवी, मणि बेन, श्रीमती नेली सेनगुप्ता, मृणालिनी देवी आदि अनेक वीरागानाएँ शामिल हैं। लेखिका ने वीरांगनाओं के व्यक्तित्व के संदर्भ में लिखा है, “उन्हें अलग-अलग देखा जाए तो क्रान्ति और आत्मोत्सर्ग की एक अविच्छिन्न धारा सी प्रतीत होती है। कुछ वीरांगनाओं को अलग-अलग करके देखने के बाद लगा कि इनकी लम्बी शृंखला की अनवरतता को पकड़ने की कोशिश की जाए तो संभवतः अधिकांश को समेटा जा सके।” (‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’–डॉ. नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 227) 

अंत में लेखिका का आह्वान है भारतीय इतिहास में स्त्रियों की प्रतिभा, कौशल और रचनात्मकता की विस्तृत जानकारी शामिल कर ऐतिहासिक पूर्णता प्रदान करने का प्रयास किया जाना चाहिए। समग्रत: कहा जा सकता है कि ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ पुस्तक पाठकों को नई संकल्पनाएँ और उनपर शोधात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करेगी। 

डॉ. दीपक पाण्डेय
सहायक निदेशक
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार
नई दिल्ली
ईमेल–dkp410@gmail.com 

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