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पत्थर बोलते हैं – में समाज के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति 


पुस्तक का नाम: पत्थर बोलते हैं 
रचनाकार: राजेन्द्र यादव ‘आजाद’
प्रकाशन: राइजिंग स्टार्स, मौजपुर, दिल्ली 110053 
मूल्य: ₹ 600/-
पृष्ठ: 228

राजेन्द्र सिंह यादव की नवीनतम पुस्तक ‘पत्थर बोलते हैं’ समसामयिक लेखों का संग्रह है। सभी लेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हो चुके हैं जिसकी स्वीकारोक्ति लेखक ने ‘अपनी बात’ के अंतर्गत की है। संग्रह के सभी आलेख एक-दूसरे से भिन्न प्रकृति के हैं जो समाज के विविध पक्षों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। लेखक ने अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए इन्हें रचा है और मनुष्य के जीवन से सम्बद्ध व्यापारों को चित्रित किया है। 

साहित्य मानवीय प्रयास का प्रतिफल है। साहित्य सृजन मानवीय स्वभाव की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति की आदिम एषणा है, जिसे अरविन्द ने ‘मानव-मानस की अतुल शक्तिमयी अभिव्यक्ति की पिपासा’ कहा है। अरविन्द के शब्दों में साहित्य ‘विराट अनुभूति की सौभाग्यशालिनी अभिव्यक्ति’ है। साहित्य मानवीय संवेदना, कल्पना और अभिव्यंजना का प्रस्फुटन है। यह जन और पर्यावरण, जीवन और जगत के प्रति व्यक्ति का मानसिक और भावात्मक प्रकाशन है। साहित्य की मूल चेतना और भावना अथवा आधार, मानव और समाज की उन्नति है। मानव समाज द्वेष, घृणा, शोषण और अमानवीय कर्मों को त्याग कर प्रेम त्याग और समत्व के आधार पर ही विकास की ओर बढ़ता है। इस भौतिक जीवन का लक्ष्य सभी को दुःख और पीड़ा से मुक्ति देना, अपने सुख और सुविधाओं को प्राप्त करना ही नहीं है, अपितु आत्मा के विकास से परम सत्ता को जानना और अखंड आनंद या सुख प्राप्त करना भी है। अतः साहित्य इस पक्ष को पोषित करता है जिस कारण साहित्य में मानव और मानव समाज के हित की कामना पल्लवित होती है। साहित्यकार जिस साहित्य की रचना करता है उसकी जड़ें समाज से ही विषय-वस्तु प्राप्त करती हैं और उसी से गहरी जुड़ी होती हैं। एक लेखक समाज में जीता है और समकालीन परिस्थितियाँ उसके वैचारिक दृष्टिकोण को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक सभी परिवेश व्यक्ति और समाज को प्रभावित करते हैं। 

‘पत्थर बोलते हैं’ संग्रह में चौरासी आलेख शामिल हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक राजनैतिक, आर्थिक आदि मुद्दों से सम्बन्धित हैं और एक सजग व्यक्तित्व की समाज-सापेक्ष संवेदना को अभिव्यक्त करते हैं। लेखक ने अनेक लेख सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित किए हैं जिनका सीधा सरोकार समाज में रहने वालों के जीवन से है और आम व्यक्ति उनसे किसी न किसी तरह रूबरू होता है। सामाजिक समस्याएँ क्या हैं अगर इस पर बात करें तो हम पाते हैं कि सामाजिक समस्यायें वास्तव में वे दशाएँ होती हैं जो सामाजिक मूल्यों को चुनौती देती हैं, समाज का महत्त्वपूर्ण भाग उनसे दबाव या तनाव को महसूसता है, वे उस दबाव के कारण को जानते है और यह विश्वास करते हैं कि सामूहिक प्रयासों से इस दबाव को दूर किया जा सकता है। वर्तमान में मानव समाज के सामने अनेक सामाजिक समस्याएँ हैं जिनसे वह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में दो-चार हो रहा है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, साम्प्रदायिकता, वर्ग-भेद, अपराध, साइबर अपराध, बाल शोषण, परिवारों का विघटन, मादक पदार्थों का सेवन, घरेलू हिंसा, पर्यावरण प्रदूषण, आत्महत्या आदि अनेक सामजिक समस्याएँ हम सभी को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। लेखक राजेन्द्र सिंह यादव संवेदनशील व्यक्ति हैं और समाज के उत्थान को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन में लगे हैं। समाजिक समस्याओं पर आपके लेख आम नागरिक को जागरूक रहने की प्रेरणा देते हैं। 

‘जहरीला पर्यावरण’ लेख में उन्होंने पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कारकों की चर्चा करते हुए आवागमन के संसाधनों और उद्योग धंधों से प्रदूषित होते वातावरण पर गंभीर चिंतन किया है और आगाह किया है कि वातावरण में ज़हरीली गैस मानव के लिए घातक हैं। समाज में महिलाओं के प्रति जो नकारात्मक दृष्टिकोण है उस पर भी लेखक ने बेबाकी से विचार रखे हैं। इस संग्रह में ‘शंका की शिकार महिलायें, अत्याचार की चपेट में नारियाँ, रक्षक बने भक्षक, विवाह व्यापारीकरण, सामूहिक विवाह समारोह’ आदि लेख शामिल हैं। ‘अवयस्कों का यौन शोषण, बाल मज़दूरों का शोषण’ नशे के दीवाने, नीम-हकीमों के ख़तरे’ जैसे लेख भी समाज में व्याप्त अमानवीय व्यवहार के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं और समाज से इन अमानवीय कृत्यों को समाप्त करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। व्यक्ति की महत्वाकांक्षा और राजनीति में व्याप्त विसंगतियाँ भी समाज को झकझोरती हैं। लेखक जहाँ शिक्षा के व्यावसायीकरण पर ‘शिक्षा बिके बाज़ार में’ लेख लिखा है वहीं ‘शिक्षक’ लेख में वर्तमान संदर्भ में शिक्षक को अपडेट रहने का संदेश भी दिया है और लिखा है—‘वर्तमान की आवश्यकता शिक्षक को स्वयं वैज्ञानिक सोच पैदाकर बालक में नए विचारों का आग़ाज़ करने की आवश्यकता है जिससे राष्ट्र में ऊर्जावान, निष्ठावान, ज्ञानवान एवं कर्तव्यनिष्ठ नागरिक पैदा हों और राष्ट्र का उत्थान करें तथा ‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते की पुष्टि सम्भव हो सके।’ (पृष्ठ-200) 

संग्रह में अनेक लेख सामाजिक व्यवस्था को कमज़ोर करती राजनीति पर आधारित हैं। इन लेखों में प्रमुख हैं—‘प्रेस पत्रकार और राजनीति का बदलता स्वरूप, उग्रवाद के चंगुल में देश, लोकतंत्र को कमज़ोर करती जातीय राजनीति’ आदि। ‘रथ यात्रा जहाँ राजनीति’ में लेखक ने राजनैतिक परिदृश्य के सम्बन्ध में लिखा है—“सभी भारतवासियों को एकता के धागे में बाँधने वाले इंसान की आवश्यकता है इस देश को भ्रष्ट व बेईमान राजनेताओं की नहीं।” 

‘पत्थर बोलते हैं’में अनेक लेख भारतीय सांस्कृतिक पक्षों पर आधारित हैं और लेखक ने इन लेखों में चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया है। इन आलेखों को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि हम उस स्थान या परिवेश को देख रहे हैं। भारत की समृद्ध वास्तुकला से सम्बन्धित अनेक लेख हैं। ‘अशोक स्तम्भ’ में भारत के राष्ट्रीय चिह्न पर विस्तार से लिखा है। अन्य लेखों में नूरगढ़ का सेवा आश्रम, बेजोड़ प्रतिहार कला की वीरान नगरी: आभानेरी, दौसा का क़िला एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर, अजबगढ़, तंत्र विद्या एक वीरान बस्ती, जैन तीर्थ श्री महावीरजी प्रमुख हैं जिसमें ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विवरण मिलता है जो प्रवाहपूर्ण भाषा में पढ़ने को मिलते हैं। 

कला एवं संस्कृति पर अनेक लेख जहाँ इस संग्रह को रोचक, पठनीय बनाते हैं वहीं नई जानकारी से पाठकों को रूबरू कराते हैं। ‘पत्थर बोलते हैं’ में जयपुर-आगरा राजमार्ग पर सिकंदरा चौराहा है जहाँ करौली के पहाड़ों से निकलनेवाले लाल पत्थर से लाजबाब शिल्पकारी का उद्योग विकसित हुआ है। लाल पत्थर से बनी कलाकृतियाँ लोगों को विस्मृत करती हैं तभी लेखक इन्हें ‘पत्थर बोलते हैं’ की उपमा देता है। दम तोड़ती दौसा की कला, एक अनूठी याद छोड़ जाता है दौसा का बसंत पंचमी मेला, पतंग जहाँ आकाश, मरुभूमि का लोकनृत्य, पीतल बोलता है, शिल्पकारों की ज़िन्दगी बेजान है, बेजान मिट्टी में जान फूँकते कुम्भकार, गाडिया लुहार आदि ऐसे अनेक लेख हैं जिनमें लेखक ने भारतीय कला और संस्कृति के विस्तृत विवरण को आम पाठक तक पहुँचाया है। 

राजेन्द्र सिंह यादव ने भारतीय त्योहारों पर आधारित लेख भी इस पुस्तक में संकलित किए हैं, दीपावली पर आधारित एकाधिक आलेख हैं। इसके साथ ही आमजन के जीवन में प्रयुक्त होने वाले अनेक संसाधनों को बहुत ही उत्कृष्टता से अभिव्यक्त किया है। इन संसाधनों पर आधारित लोकसाहित्य को भी लेखों में स्थान देकर रोचक बनाया है। छाज, इंजन, चाकी, चंगेरी, केटली, बिलाई, लैम्प, दराती, कुल्हाड़ी, ताँगा, ऊँट आदि संसाधनों का सचित्र वर्णन संग्रह में नवीनता लाते हैं। समग्रतः देखा जाए तो यह लेख संग्रह पाठकों को निश्चित ही पसंद आयेगा। इन लेखों में लेखक का समाज सापेक्ष विश्लेषण समाज को नई दिशा देने में सहायक होगा। इन लेखों में अभिव्यक्त भावों/विचारों के माध्यम से राजेन्द्र सिंह यादव भारतीय संस्कृति की निम्न अवधारणा को पुष्ट करते हैं:

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयः। 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥

डॉ. दीपक पाण्डेय                 
केंद्रीय हिन्दी निदेशालय             
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार             
नई दिल्ली                     
Email: dkp410gmail.com

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टिप्पणियाँ

बुद्धि प्रकाश महावर 'मन' 2022/12/22 06:11 PM

आदरणीय की सजीव पुस्तक 'पत्थर बोलते हैं' एवं प्रस्तुत समीक्षा सटीक , मार्मिक एवं व्यंग्यात्मक है। कोटि कोटि बधाई।

यादवराजेन्द्र 2022/12/21 06:54 PM

बेहतरीन

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