अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ताँका संग्रह में शब्दों का महात्म्य: ‘शब्द-शब्द संवाद’

जो आँगन में 
बंदूकें उगायेंगे 
वे एक दिन 
अपनी बंदूकों से 
आप मारे जायेंगे। 

ये पंक्तियाँ डॉ. रामनिवास ‘मानव’ के ताँका संग्रह ‘शब्द-शब्द संवाद’ में अभिव्यक्त गहन संवेदनाओं की एक बानगी है जो समाज के प्रति उनकी सरोकारिता को व्यक्त करती है, वहीं समाज को जागृत करने की संवेशनशील हृदय की महती भूमिका का निर्वहन भी करती हैं। इस संग्रह की कविताओं का प्रतिपाद्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ है, जिसके माध्यम से वे व्यक्ति के विविध प्रसंगों को बड़ी ही बेबाकी से समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। डॉ. रामनिवास ‘मानव’ साहित्य की गद्य-पद्य दोनों विधाओं में समान अधिकार से सृजनरत हैं। आपने कहानी, लघुकथा, समीक्षा के साथ-साथ अपनी प्रिय विधा कविता को विविध काव्यरूपों से समृद्ध किया है और गीत, ग़ज़ल, बालगीत, मुक्तक, दोहा, द्विपदी, त्रिपदी, हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका आदि काव्यरूपों में काव्य रचा है और रच रहे हैं। मानव जी ने भिन्न-भिन्न काव्यरूपों में काव्य-रचना ही नहीं की बल्कि हिंदी काव्य को नूतन काव्य रूपों से जोड़ा भी है, यह आपका हिंदी जगत को अविस्मरणीय योगदान है। वास्तव में वे अपनी सृजनात्मकता से समाज के सच्चे प्रहरी के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।

‘शब्द-शब्द संवाद’ की कविताओं पर विचार करने से पूर्व ताँका काव्यरूप की संक्षिप्त जानकारी अनिवार्य हो जाती है—ताँका जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य विधा है जिसे नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के मध्य प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। ताँका काव्य में क्रमश: 5+7+5+7+7 =31 वर्णों की पाँच पंक्तियाँ होती हैं। ताँका की रचना दो कवि मिलकर करते रहे। भारत में प्रश्नोत्तर शैली में वाचिक लोक छंदों बम्बुलिया आदि की सुदीर्घ परंपरा रही है। इनमें दो अलग-अलग स्थानों, सामान्यत: खेतों के मचान पर एक-दूसरे से अनजान गायक टेर (आवाज़) सुन कर ही सहभागी हो जाते थे। बम्बुलिया में वर्ण या मात्रा के स्थान पर लय प्रधान होती है जबकि ताँका में एक कवि पहले भाग में 5+7+5=17 ध्वनिखण्डों की रचना करता था, तो दूसरा कवि दूसरे भाग में 7+7=14 ध्वनिखण्डों की रचना कर छंद को पूर्ण करता था। फिर पूर्ववर्ती 7+7 ध्वनिखंड को आधार बनाकर अगली शृंखला में 5+7+5=17 ध्वनि खंड प्रस्तुत करता था और यह क्रम चलता रहता था। सूत्रबद्धता के कारण ऐसी शृंखलाओं में ताँका की संख्या शताधिक तक भी पहुँच जाती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था। ताँका की पाँच पंक्तियों और 5+7+5+7+7 =31 ध्वनिखण्डों (सामान्यत: वर्णों) के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। ताँका का शाब्दिक अर्थ लघुगीत अथवा छोटी कविता है। सार्थकता, माधुर्य, लालित्य, बिम्ब, प्रतीक आदि काव्यगुण ताँका के लिए अनिवार्य तत्व हैं। रामनिवास ‘मानव’ ने ताँका काव्य रूप के सम्बन्ध में भी अपने विचार इन पंक्तियों में व्यक्त किए हैं:

पंक्तियाँ पाँच
पर लिखते सांच 
तभी तो ताँका
लिखकर हमने 
मूल्य स्वयं का आँका। 

इस ताँका संग्रह में संकलित कविताओं का भावबोध सामाजिक सरोकारों से गहरे तौर पर जुड़ा है, एक-एक ताँका समाज के किसी न किसी पक्ष की यथार्थ अभिव्यक्ति में सफल हुआ है। तभी तो यह अहसास होता है कि इन कविताओं में अभिव्यक्त कथ्य हमारे जीवन का ही हिस्सा है। कवि ने इन्हीं भावों को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है:

भरी व्यथा है
मेरे शब्द-शब्द में 
लगे तभी तो 
मेरी हर कविता 
जैसे आत्मकथा है। 

कवि का हृदय बहुत संवेदनशील है क्योंकि उनके व्यक्तित्व में आम आदमी के जीवन से जुड़े विकट संघर्ष हैं यही संघर्ष गहन चिंतन बनकर कविताओं का भावबोध बन गया है, जो व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनके काव्य में रूपायित होता है। उन्होंने अपने लेखन की प्रेरणा के सम्बन्ध में कहा भी है:

भावना-लोक 
अनुपम-अनूठा 
जहाँ केवल 
सुंदर है सत्य
शेष सब झूठा। 

आज समाज में सत्य के स्थान पर झूठ का बोलबाला हो गया है, इस कथन पर भी डॉ. मानव ने अनेक ताँका सृजित किए हैं। जैसा सभी जानते हैं कि सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है ‘सते हितम्’ यानी सभी का कल्याण। इस कल्याण की भावना को हृदय में बसाकर ही व्यक्ति सत्य बोल सकता है। एक सत्यवादी व्यक्ति की पहचान यह है कि वह वर्तमान, भूत अथवा भविष्य के विषय में विचार किये बिना अपनी बात पर दृढ़ रहता है। मानव स्वभाव में सत्य के प्रति अगाध श्रद्धा एवं झूठ के प्रति घृणा के भाव आते हैं। जिस समाज में व्याप्त था कि ‘सत्य ही शिव है’, आज उसी सच की दमक क्षीण होती जा रही है और झूठ का वर्चस्व होता जा रहा है। वैसे सच का बोलबाला, झूठ का मुँह काला वाली बात हम सबकी ज़ुबान पर चढ़ी है। दादी की कहानियों से लेकर दैनिक संदर्भों तक हम मानते थे कि भूत और झूठ के पैर नहीं होते हैं और दोनों ही सच की रोशनी के सामने ठहर नहीं पाते हैं। पर पिछले कुछ दशक से हम अनायास ही झूठ के साथ होते जा रहे हैं। सच का चेहरा हमारे लिए धूमिल हो गया है और झूठ दमकने लगा है। उसकी चमक हमें पसंद आने लगी है। डॉ. रामनिवास ‘मानव' इस भाव को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं, कुछ उदाहरण देखिए:

कहाँ है गीता
नाप रहे सच को
अब तो वही 
है हाथों में जिनके    
यहाँ झूठ फीता।     

♦     ♦     ♦

हावी है झूठ
अब तो सच पर
सच यही है। 
अब झूठ जो कहे
बस वही सही है। 

सत्य को सिद्ध करने के लिए अनेक कठिनाइयों से जूझना पड़ता है और इसी पीड़ा से ग्रसित रहे हैं बड़े बड़े नाम जिनका उल्लेख डॉ. मानव के निम्न ताँकाओं में मिलता है:

हों चाहे गाँधी
ईसा या सुकरात
सच के लिए
यहाँ सबने सहे
घात और आघात। 

आत्मबल और विश्वास को सफलता की सीढ़ी माना जाता है। हर तरह के अभावों के बावजूद अगर किसी व्यक्ति के अंदर अपने को साबित करने का विश्वास है, यानी वह आत्मविश्वास से लबरेज़ है, तो उसे क़ामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। आत्मविश्वास एक ऐसा मंत्र है, जिसके आगे सारे संकट दूर हो जाते हैं। दृढ़ इच्छाशक्ति वाले के सामने मुसीबतों के पहाड़ भी सपाट मैदान की तरह बन जाते हैं और जिनके पास इसकी कमी होती है वह छोटी-मोटी समस्याओं से भी इतने घबरा जाते हैं कि उससे बचने के उपाय ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ख़ुद ही अपने आस पास के लोगों के लिए मुसीबत बन जाते हैं। इतिहास गवाह है कि कई लोगों ने केवल अपने आंतरिक ताक़त के बल पर ही साम्राज्य क़ायम किया। इसी भाव को कवि ने अपनी निम्न कविताओं में अभिव्यक्त किया है:

बैसाखियों के 
सहारे जो चलते 
जीवन भर 
कभी छू नहीं पाते 
वे पर्वत शिखर॥

जीवन में कठिन परिश्रम से जो अनुभव मिलता है उससे जीवन आनंदमय हो जाता है और वह हर परिस्थितियों से सामंजस्य बैठा सकता है ये सीख कवि ने इन पक्तियों में आबद्ध की है:

जिसने सीखा 
मरकर भी जीना 
आया उसी को 
सच में यहाँ जीना 
अमृत-विष पीना॥

समाज में प्रचलित अनेक काले कारनामे लोगों के जीवन को दूषित कर रहे हैं जैसे भ्रष्टाचार, आतंकवाद, शोषण आदि आदि। कवि ने इन सब पर गंभीर वैचारिक दृष्टि से विचार किया है और लिखा है:

भ्रष्टाचार हो
या हो आतंकवाद
नहीं इनका
रंग, जाति, या धर्म 
फिर कैसा विवाद। 

♦     ♦     ♦

प्रश्न है बड़ा
दुष्टा महँगाई का
किसी दैत्य सा
जनता के सम्मुख
मुँह बायें जो खड़ा। 

मनुस्मृति में मनु नारी के विषय में लिखते हैं—‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।’  पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी का रूप बड़ा विकृत है। वह अपने आपको अबला समझकर बैठी आँसू बहाती है या सौन्दर्य की प्रतिमा बनी बैठी है। महादेवी वर्मा ने आज की नारी का इस प्रकार चित्रण किया है, “हमारे ज़माने में हम लोग रक्त चन्दन तिलक मस्तक पर लगाकर जब शराब की दुकानों पर धरना देने जाती थीं तो बड़े से बड़ा पियक्कड़ भी शरद ऋतु के पत्तों की तरह काँप उठता था। आज की आधुनिकाओं से कहो ज़रा धरना देकर देखें, तो जो शराब नहीं पीते, वे भी मधुशाला में आ जाएँगे। कैबरे से लेकर बीड़ी, साबुन और ब्लेड, तौलियों के विज्ञापनों तक में आज की नारी स्वयं को तथा अपनी देहयष्टी को और अपनी चितवन मुस्कान को व्यंजन की तरह इस प्रकार परोस रही है कि स्वयं एक व्यंजन मात्र बनकर रह गयी है।” डॉ. मानव जी का भी चिंतन महादेवी वर्मा की विचारधारा का अनुगमन करता है तभी वे लिखते हैं:

हुई है हावी
अब प्रतिभा पर
सुंदर देह। 
बनी भोग्या है नारी
कहाँ ममता नेह! 

♦     ♦     ♦

आज की नारी
ग्लैमर के रंग में
रंगी है सारी
तभी उसका रूप
लगता है विरूप

समाज में लिंगानुभेद जन्म से ही किया जाता है जो बहुत ही गंभीर समस्या है। समाज में कन्या भ्रूण हत्या जैसा जघन्य अपराध हो रहा है। इस समस्या पर ‘मानव’ जी ने बहुत ही गंभीरता से ये बातें लिखीं हैं और नारी को सचेत किया है कि इस समस्या के दुष्परिणामों को समझे:

गर्भ में हत्या 
करे कन्या भ्रूण की 
आज की नारी। 
बनी माँ ही हत्यारी 
संकट यही भारी॥

जिस कथ्य को संवेदनापूर्ण अभिव्यक्ति कवि ने दी है उसी विषय पर सरकार ने भी कन्या भ्रूण हत्या और बेटियों के प्रति समाज में होने वाले भेदभाव को लेकर वैधानिक प्रावधान भी बना दिए हैं और वर्तमान सरकार तो “बेटी बचाओ बेटी बढ़ाओ” का अभियान चला रही है। जिसके माध्यम से भ्रूण हत्या के अपराध से जनता को जागरूक किया जा रहा है और परिवार में बेटियों को बेटों के बराबर के हक़ की बात, उसे पढ़ने के पर्याप्त अवसर मिलें, नारी जीवन में उन्नति के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने के लिए क़दम उठाए हैं। कवि ने कन्या भ्रूण हत्या को महापाप कहते हुए लिखा है:

है महापाप 
कन्या भ्रूण की हत्या। 
सोचिए आप 
कब तक समाज 
ढोयेगा यह पाप। 

नारी शोषण बहुत बड़ी सामाजिक समस्या है। कवि ने नारी की सुरक्षा न कर पाने के लिए सरकार और पुलिस विभाग को कटघरे पर खड़ा किया है और वे लिखते हैं:

नारी-चीत्कार 
न सुनती पुलिस
न सरकार। 
बढ़ रहे हैं नित्य 
तभी तो बलात्कार। 

आज समाज में व्यक्ति की मानसिकता आत्मकेंद्रित होकर स्वार्थमय हो गई है और इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज, परिवार में दूरियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। साहित्यकार डॉ. मानव जी ने अपनी कविताओं में इस बात को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कुछ पंक्तियाँ देखिए:

खिंची दीवारें
घर-आँगन जब
बँटे हैं सारे। 
टूटे रिश्तों के धागे 

♦     ♦     ♦

पुत्र न भ्राता
जोड़े यहाँ सबको
स्वार्थ का नाता। 
सधे स्वार्थ जिससे
सिर्फ़ वही सुहाता। 

लोकतंत्र में नेता/ राजनेता जनताके पहरेदार माने जाते हैं पर समाज में यथार्थ कुछ और ही है। कवि हृदय नेताओं पर टिप्पणी करता है:

अंधे बहरे
सब नेता ठहरे
फिर भी देखो
है सर्वत्र उन्हीं के
परचम फहरे। 

♦     ♦     ♦

पहनी खादी 
मिली लूट-पाट की 
खुली आज़ादी। 
तभी बने जो नेता
हैं अवसरवादी। 

किसी भी देश/प्रदेश की सुशासन व्यवस्था जनता के प्रतिनिधियों और सरकार पर केंद्रित होती है, अगर दोनों की दक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगता है तो चारों ओर की व्यवस्था चौपट हो जाती है। मानव जी ने बहुत ही गंभीर तथ्यों को निम्न ताँका कविताओं में चित्रित किया है:

निर्लज्य नेता
अक्षम सरकारें
भ्रष्ट व्यवस्था। 
हुई तभी देश की 
बदहाल अवस्था। 

♦     ♦     ♦

मिली आज़ादी 
तभी खुले घूमते
आतंकवादी। 
शिखंडी सरकारें 
हुई सोने की आदी। 

देश में सामाजिक सौहार्द जाति-धर्म और ऊँच–नीच, गरीब-अमीर में बँटा हुआ है जिससे समाज में आपसी भाईचारा विखंडित हो रहा है, जिससे देश में अनेक समुदाय बन गए हैं और दरारें देश को बाँट रही हैं। कवि इन्हीं भावों को निम्न पंक्तियों में स्वर देता है:

कटा-छँटा है 
खंड-खंड में देश 
आज बँटा है। 
जाति-धर्म के साँचे
ऊँच–नीच के खाँचे। 

देश में आम जनता की स्थिति नाज़ुक है और कुछ तथाकथित समृद्ध वर्ग उन्नति के शिखर को छूते जा रहें हैं। समाज में व्याप्त यह आर्थिक वैषम्य कवि को आहत करता है तभी तो वे लिखते हैं:

टाटा-बिड़ला 
या जिंदल-अम्बानी 
पनपे यहाँ। 
जनता के भाग्य में 
समृद्ध-योग कहाँ। 

लोकतंत्र महज़ एक शासन प्रणाली ही नहीं यह एक जीवन दर्शन है। प्रसिद्ध विचारक हैराल्ड लास्की ने कहा था—“सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र मृग-मरीचिका है।” लोकतंत्र की इस कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र खरा नहीं उतरता, अतएव इसका भविष्य अन्धकार में है यही बात डॉ. रामनिवास मानव इन ताँकाओं में अभिव्यक्त करते हैं:

जनता त्रस्त
है निर्लज्य नेता
फिर भी मस्त
लोकतंत्र का सूर्य
तभी होने को अस्त

♦     ♦     ♦

हो जाता हावी 
जब शासन पर 
माफ़िया-तंत्र 
होता तब आहत 
सच में लोकतंत्र 

समग्रत: हम देखते हैं डॉ. रामनिवास मानव ने इस ताँका संग्रह की कविताओं में कम से कम शब्दों में गंभीर कथ्यों को प्रस्तुत किया है, जो भारतीय समाज से होते हुए वैश्विकता से जुड़े मुद्दों की यथार्थ अभिव्यक्ति हैं। कविताओं में सरल और सहज भाषा में विचारों का प्रवाह सर्वग्राह्य बन पड़ा है। इस संग्रह की कविताओं में कवि ने साधारण आम जनता से जुड़े मुद्दों, किसान, मज़दूर, स्त्री एवं अल्पसंख्यक समाज की गतिविधियों, विसंगतियों, समस्याओं तथा चुनौतियों को उजागर करने की चेष्टा की है। साथ ही परम्परावादी मानसिकता का खंडन करते हुए वर्चस्ववादी विचार एवं व्यवस्था का भी पर्दाफ़ाश किया है। कवि की संवेदनाएँ, विद्रोही स्वर तथा सामाजिक सरोकार ताँका कविताओं की एक-एक पंक्ति में दिखाई देता हैं। ये कविताएँ ज़मीन से जुड़ी होने तथा यथार्थ को चित्रित करने के साथ-साथ साम्प्रदायिक सद्भाव, लोकतांत्रिक मूल्यों आदि से भी परिचित कराती हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की अवधारणा को पुष्ट करती हैं। युगबोध की अभिव्यक्ति ने डॉ. रामनिवास ‘मानव’ के काव्य को जीवंत और प्राणवान बनाया है और इस ताँका संग्रह की कवितायें यथार्थ का दर्पण हैं। 

डॉ. दीपक पाण्डेय 
सहायक निदेशक 
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार 
नई दिल्ली 
ईमेल-dkp410@gmail। com

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

बात-चीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं