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बचपन की खोई धुन

 

धूल में लिथड़ी, लपटों में घिरी भूमि, 
शौर्य की गवाही देने वाला एक मासूम, 
जिसके सिरे चुपके से टूटते हैं, 
सभी सपने, 
अब केवल सन्नाटा और भय की आवाज़ें। 
 
उसकी आँखों में अब कोई आकाश नहीं, 
बस एक लम्बी, 
निराशा की धुँध
जगह-जगह बिखरी। 
संगीनों की चुप्प, 
बमों का तेज़ कर्कश, 
वह हर आहट में बसा अकेलापन महसूस करता। 
 
हमें याद है, 
वह कभी हँसता था, 
संसार के अनगिनत अंधकार से अज्ञात, 
अब वह बस एक टूटे हुए खिलौने सा पथराया, 
सर्दियों में ठंडी रातों में, 
असंख्य ख़्वाबों के शोक में डूबा। 
 
“कहाँ खो गया बचपन?” 
कहाँ गये वे मासूम सवाल, 
जिनके जवाब नहीं थे? 
अब उसकी आँखों में बर्फ़ीली चुप्प है
जहाँ कभी गर्मी थी, 
जहाँ कभी प्यार था। 
रात के अंधकार में टूटते सपने, 
दिन के उजाले में संजीवित भय। 
 
अब बचपन नहीं
बस एक आहत आत्मा की कहानी, 
जहाँ मिट्टी की धूल और आसमान की सर्दियाँ, 
मिलकर उसे एक धुँधली पहचान दे चुकीं हैं। 
 
कैसे कह सकते हैं नेता, 
कि इन्हें कभी महसूस होता है? 
क्या वे देखते हैं ये छोटी सी जानें, 
जो अब युद्ध की आग में जलती हैं? 
इनकी आँखों में दहशत, 
दिल में ख़ामोशी, 
राष्ट्रवाद के शोर में खो गई मासूमों की चीखें। 
 
कैसे कह सकते हो, 
कि ये बच्चे कभी बड़े होंगे? 
इनकी ज़िन्दगी की रेखाएँ तो ख़ून के दरिया में बह गईं, 
इनके हाथों में अब किताब नहीं, 
बल्कि वो दर्द है जिसे वे सर्दी की रात में गुनगुनाते हैं। 
 
नफ़रत के भँवर में फेंकते हैं इन्हें, 
राष्ट्र के ध्वज तले लहराने वाले झूठे ख़्वाब, 
पर वे भूल जाते हैं, 
इन नन्हे दिलों का दर्द
जो अनसुना है, 
क्योंकि इनके आँसू राष्ट्रवाद के लिए अनुपयोगी हैं। 
 
कभी सवाल किया, “क्या तेरा नाम है?” 
वह कहता—“नाम क्या? मैं तो भविष्य के धुँधले कालेपन में हूँ, 
हर युद्ध के बाद बचे हैं मैं और खंडहर।”
न कोई बचपन, 
न कोई स्वप्न
बस एक मृत प्यास, 
जिसे कोई नहीं बुझा सकता। 
 
अब हमें देखना चाहिए
इन बच्चों के आँसुओं की सच्चाई, 
हमें इनकी आवाज़ को सुनना है, 
इनके लिए एक नई राह ढूंढ़नी है, 
जहाँ युद्ध नहीं, 
सिर्फ़ प्रेम और शान्ति का शासन हो। 
 
अगर बमों के स्थान पर फूल फेंक पाते, 
तो शायद ये ज़मीन फिर से हरी हो जाती। 
अगर हम सब मिलकर क़दम बढ़ाते, 
तो एक नई सुबह का जन्म हो सकता, 
जहाँ मासूमों का भविष्य सुरक्षित होता, 
जहाँ बचपन फिर से खिल सकते, 
भय और आँसू से दूर। 

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