सत्य की खोज
काव्य साहित्य | कविता प्रांशु वर्मा15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
सत्य, कहाँ है तू?
क्या वह बसा है हिमालय की निस्तब्ध बर्फ़ीली चोटियों में?
जहाँ चट्टानों पर बर्फ़ की चादर ओढ़े,
हवा की हर साँस से गूँजता है मौन का नाद,
या गंगा की पवित्र लहरों में बहता,
जो हिम से पिघली अश्रुधार के समान,
हर पाप को समेटती, शुद्ध करती अनवरत?
शायद वह गौतम की आँखों में सिमटता,
जो बोधगया की मिट्टी में
एक दीप की लौ बनकर जला था,
या झूमते खेतों की हरियाली में छिपा है,
जहाँ किसान के खुरदरे हाथों की छाप है,
जिस मिट्टी में मिला है पसीना,
सपनों का सौदा जो कभी पूरा न हो सका।
सत्य है, एक कपोल कल्पना की ओढ़नी,
जैसे चंद्रमा की चाँदनी हो धुँध में खोई,
वह झिलमिलाती ओस की बूँद,
जो पत्तों के पीछे से
सूरज की पहली किरण में
अचानक ग़ायब हो जाती है।
शायद सत्य बैठा हो,
एकांत के उस संत की आँखों में,
जिसके मौन में जीवन की तपस्या की राख है,
धुएँ की लहरों में तैरता,
जहाँ इच्छा की कोई लपट बाक़ी न रही।
या वह सजीव हो गृहिणी की नन्ही मुस्कान में,
जिसने दर्द की धूप में तपकर
परिवार के लिए ठंडक का आँचल बिछाया है।
सत्य, वह बाँसुरी की धुन है,
जो चरवाहे के थके पैरों के संग
साँझ की उदासी में गूँजती है,
उसके अल्हड़ प्रेम की अनकही सिसकी,
जो हवा के संग बहती—
कानों में मिठास घोलती,
पर पकड़ी न जा सके, मृगतृष्णा की तरह।
सत्य, वह है बच्चे की भोली हँसी,
जो संसार के छलावे से अनजान,
बेसुध होकर खिलखिलाता है,
या रात के सन्नाटे में,
आकाशगंगा के तले सोया तारा,
जो तमस में भी एक उम्मीद की किरण बनता है।
सत्य है, उस बूढ़े की आँखों में,
जो जीवन की स्मृतियों को समेटे,
धुँधली दृष्टि से देखता है
अतीत के छिपे साये,
जिनके जवाब न अब कोई जानता है।
सत्य, वह रक्त की हर बूँद में,
जो कर्मवीर की धमनियों में दौड़ती,
इतिहास के धुँधलके में गूँजती—
उस अनकही चीख में,
जिसने आँसुओं की धार बनाई,
जिसे किसी ने न सुना,
पर जिसकी गूँज आज भी हवा में तैर रही है।
सत्य, हल से जुड़ा वह स्वेद है,
जो धरती का सीना चीरता,
जो हल्दी की पीली फ़सल में खिलता,
वह हथियार न उठाता,
पर ममता से सीने पर हाथ रखता,
मानवता के नये अंकुर को जन्म देता।
सत्य, वह सपना है,
जो आँखों में नमी बनकर छलकता,
कभी दुःख की काली रात में बूँद बनकर गिरता,
कभी उम्मीद की सुनहरी किरण में चकमक करता।
वह शून्य है, गहनतम शून्यता,
जिसमें प्रश्न डूबते हैं,
मौन की लहरों में खो जाते हैं।
सत्य, वह है हर एक स्वर में,
धर्म की ओट में छिपा, गीत की गूँज में बसा,
जो बहता है अनवरत—
अंतर्मन के अँधेरों से उजालों तक,
जो स्थिर नहीं, सदा गतिशील, सदा प्रवाहमान।
वह सत्य, जो युगों से अनकहा, अनसुना,
फिर भी प्रत्येक हृदय में बसा हुआ,
जो मानवता का मूल आधार है,
जो हमारी अंतरात्मा का अंतिम प्रकाश है।
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