प्रेम की अनंत यात्रा
काव्य साहित्य | कविता प्रांशु वर्मा1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
प्रेम की अन्नत यात्रा
अंतहीन द्वार खोलता है प्रेम,
शब्दों की आँच में निखरता,
भीतर-भीतर कहीं ढलता है प्रेम,
जैसे कोई अनजान लहर—
सागर की चुप के भीतर खोता हुआ।
उसके भीने स्पर्श में सोई
कहानी की परतें हैं,
और वो नींद में बहती हुई
यादें भी—
जिन्हें छूना चाहा है हर बार
मगर पकड़ी नहीं जातीं।
नर के क़दमों में बँधी
वो राहें, वो हसरतें—
जो युद्ध से लौटकर
शान्ति की ओर चलती हैं।
सपनों में कुछ देर ठहरती हैं
फिर एक चाह बनकर
नदी के किनारे सो जाती हैं।
मादा की आँखों में तैरता
कोई बेनाम एहसास
जो मौन से झाँकता है,
बिना कहे कह देता है
कि प्रेम में सिर्फ़ देह नहीं,
सिर्फ़ मिलन नहीं,
कुछ फ़ासले भी हैं
जो पूरी तरह मिटते नहीं।
अक्सर उस क्षण में—
जब शब्द ख़ामोश होते हैं
और साँसें किसी अज्ञात में डूबती हैं—
दोनों के बीच
कोई अनकही बात रह जाती है,
जो प्रेम को अधूरा नहीं,
मगर पूर्णता की ओर खींचती है।
प्रेम तो किसी गहरे पानी की तरह है,
कभी सागर की तरह शांत,
तो कभी तूफ़ान की तरह उद्दंड,
नर की वहशी चाल हो या
मादा की भीनी मुस्कान—
दोनों कहीं बहते हैं,
दूर से आते हैं और मिलते हैं
फिर बिछड़ते हैं,
फिर मिलते हैं—
अनवरत, अनंत।
यह प्रेम नहीं तो क्या है
जो हर पल नई राह चुनता है,
कभी घृणा के मलबे के नीचे
तो कभी स्नेह की झुरमुट में
खिलता है और मुरझाता है।
किसी अनाम से जंगल में
शिकारी और साध्वी दोनों साथ चलते हैं,
जहाँ सभ्यता की रौशनी नहीं पहुँचती
वहाँ प्रेम ही बसता है,
अनबुझा, अनदेखा
जैसे कोई बिछड़ी हुई रात,
जो सुबह को देखने का स्वप्न बुनती है।
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