छाया की मुस्कान
काव्य साहित्य | कविता प्रांशु वर्मा15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
वो लड़की, जो दरवाज़े से बाहर जाते वक़्त
सूरज की किरणों में मुस्कुरा दी थी,
मैंने उसे देखा, और फिर दिन ढलने तक,
उसकी छाया मेरे भीतर की दीवारों पर नाचती रही।
कभी कभी, किसी अनजानी रेखा को
हाथ से छूकर, मन की दहलीज़ तक लाने की कोशिश करते हैं हम।
पर फिर, उस छाँव में छिपे जो मौसम होते हैं,
वे ख़ुद को याद दिलाने आते हैं,
कि कुछ बातें
हमसे पहले कहीं और कही जा चुकी थीं।
वो लड़की, जो चुपचाप चली गई,
जैसे हल्की बारिश में खो जाता है कोई गीत,
और फिर उसकी जगह,
सिर्फ़ हवा के किनारे पर
छोटे-छोटे आँसू रह जाते हैं।
नदी का सवाल
चुपचाप बहती है नदी,
जंगलों से निकलकर
शहर की भीड़ में खो जाती है।
कोई नहीं पूछता—
क्यों बहना ज़रूरी है?
क्यों पत्थरों से टकराकर
भी मुस्कान लाती है?
हर किनारे का सपना—
अपनी धारा में बसा ले,
लेकिन धार का सपना
किसी किनारे पर ठहरता नहीं।
नदी जानती है
उसकी गति ही उसकी पहचान है,
पर सवाल उसके भीतर का है—
क्या बिना किनारों के
पानी पानी रह पाएगा?
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