गंगा विलाप
काव्य साहित्य | कविता प्रांशु वर्मा1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
गंगा की धारा, जो कभी जीवन का गीत थी,
अब चुप है, जैसे कोई टूटी चूड़ियों वाली बेवा।
उसकी गोद में मरी मछलियाँ पसरी हैं,
सन्नाटा है, हलचल नहीं, कोई पूछने वाला नहीं।
सुबह की किरण जब पड़ी धरती पर,
लोग देखे, दिल काँपे, क़िस्मत का कैसा क़हर।
सदमे से कुछ के प्राण गए उड़,
बिना किसी शोर के, मौत का दरवाज़ा खुला।
सरकार आई, झंडे लहराए,
कागज़ों में योजनाएँ बनाई गईं,
पर जिनके घर उजड़ गए,
क्या उनका दर्द किसी ने सुलझाया?
नेता आए, फूल चढ़ाए गए,
नदी किनारे शोक मनाया,
मरी मछलियाँ फिर गंगा में फेंक दीं,
जैसे मरण-कथा को फिर से जी लिया।
कहानी सुनो कानपुर की,
जहाँ से ज़हर का नाला बहा,
वो विष, जो गंगा की साँसें ले गया।
मछलियाँ तड़पीं, मरीं, पर सवाल कौन पूछे?
धरती भी चुप,
और हम भी देख रहे अनसुने।
चेतावनी आई, हवा में उड़ गई,
सीवेज बहता रहा, गंगा में घुला।
नेताओं ने कहा, “सब ठीक है, चिंता मत करो, “
पर ज़हर अब भी गंगा के दिल में बसा है।
फिर बाढ़ आई अगले साल,
सैकड़ों लोग गंगा में समा गए,
चीख-पुकार मची, पर पानी नहीं रुका,
हज़ारों सपने टूटे, बिखरे।
बाँध बने, पैसा बहा,
नदियाँ रोकी गईं, लेकिन क्या जीवन बहा?
गंगा की धारा अब धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही है,
उसके पानी में अब केवल दर्द बहता है।
गंगा सूखने लगी है,
उसकी धाराएँ खो गई हैं, उसकी साँसें धीमीं पड़ी हैं।
किसने सुनी उसकी पुकार?
बाढ़ और ज़हर में हमने ही उसे बर्बाद किया।
यह नदी, जो कभी अमर थी,
हमारी नादानियों ने उसे लूटा, सूखाया।
अब वो केवल एक दास्तान है,
एक अधूरा गीत,
जिसे गुनगुनाने वाला कोई नहीं बचा।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
कविता - हाइकु
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं