भिखारी-दो छोटी कविताएँ
काव्य साहित्य | कविता सुनील गज्जाणी14 Feb 2014
1
कचरे की ढेरी पे,
मानो सिंहासन पे हो बैठा,
जाने किस उधेड़-बुन में,
अपने गालों पे हाथ धरे,
कचरे में पड़े एक आइने में,
अक्स देखता अपना,
निहारता अपने को,
एक भिखारी।
2
सभ्य कॉलोनी के घरों का,
नकारा सामान,
कूड़ा करकट
कचरा पात्र में
कॉलोनी के बीचों-बीच भरा पड़ा
बीनता ढूँढ़ता,
जाने क्या
उस ढेर में
वो भिखारी।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
नज़्म
कविता - क्षणिका
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं