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निरन्तर 

 

भीड़ फ़्रेम से बाहर निकलती
खचाखच भरे मैदान में
रावण दहन देखते
मूर्तिवत लोग
रावण, मेघनाद, कुंभकरण के पुतले जलते
निरन्तर सम्पूर्ण वातावरण
सभी अपनी एक ही दिशा में जड़वत्
शान्ति . . . एक दम शान्ति
 
मैं समाचार पत्र में चित्र देखता
तन्मयता से
मैं अख़बार के पृष्ठ बदलता
सुर्खियाँ देख आश्चर्य हुआ
एक युवक ने नशे में वृद्धा का मान हरण किया
लिफ़्ट के बहाने कार वाले को लूटा
नौकर ने अपने मालिक को छुरा घोंपा
किशोरों ने घर में डाका डाला
 
मैं असमंजस में
फूल से रिश्ते
शूल बनते
पावन रिश्ते
जाने अनजाने बिखरते
मैं रावण दहन का पयार्य समाचार पत्र में ढूँढ़ता। 
 
कुछ दिनों बाद
राह पे एक दृश्य देखा
वृद्ध पिता
अपनी नव यौवना बिटिया के साथ
करतब दिखाता
तमाशबीन तन्मयता से देखते
कुछ टकटकी से देखते
फटे कपड़ों में झाँकते बिटिया के
सुडौल सुन्दर तन को
तालियाँ बजाते
होंठों पे कुछ कुटिल मुस्कान लिए
बिटिया के सराहनीय करतब पे
पैसे फेंकते
अपना दामन फैलाए वो
तमाशबीनों के पास जाती
वे कुछ लोग नोट उसका हाथ सहला
सहला कर थमाते
जाने क्या-क्या अभद्र कह उसके
कानों में बुदबुदाते
बिटिया फीकी सी मुस्कान लिए
आगे चल देती
वे अभद्र शब्द उसकी बधिरता
उसके मन मस्तिष्क तक पहुँचा नहीं पाती
वृद्ध पिता के घर के चूल्हे का
सन्तुलन बिटिया की ही रस्सी पे
पूरे सन्तुलन पे टिका
मैं सोचता
 
मैं सोचता
शायद उन लोगों में ही वे तीन
आत्माएँ कहीं विद्यमान हैं
उनके सद्‌गुणों को छोड़
जाने किस होड़ में
जाने किस दौड़ में
अपना जीवन गिरवी रख
अन्धे कुँए में जाने क्या ढूँढ़ रहे हैं वे लोग
निरन्तर
हाँ निरन्तर
सिर्फ़ सृष्टि का चलना
बस थम सा रहा
आदमी बनना
शिखरों पे बैठी हिम का निरन्तर रहना
सेहरा का जंगल बनना
निरन्तर है
यथा, अनवरत . . . अनवरत . . . और अनवरत
सृष्टि पूर्व की भाँति निरन्तर
इन्सान इन्सानियत खोता निरन्तर। 

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