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वो नज़रें

 

जाने कौन सा फ़लसफ़ा ढूँढ़तीं
मेरे चेहरे में वो नज़रें
जाने कौन सी रूबाई पढ़तीं
मेरे तन पे वो नज़रें
जाने क्यूँ मुझे रूमानी ग़ज़ल समझते वो
शायद मेरे औरत होने के कारण
जाने कौन सा . . . नज़रें। 
 
मक़ता और मिसरा दोनों मेरी आँखें शायद
लब बहर तय करते
ज़ुल्फ़ें अल्फ़ाज़ों को ढालती
चेहरा एक शेर बनता शायद
मेरे जज़्बात उन नज़रों से मीलों दूर
पलके बेजान सी हो जातीं मेरी
नज़रें बींध देती ज़मीं को मेरी
वो मैली आँखें देख
जाने कौन सा . . . नज़रें॥
 
मैं आकाश को छूने निकली थी
मगर घरौंदे तक ही सिमट गई
एक लक्ष्मण रेखा सी खिंच गई
ठिठक गए क़दम वो मैली नज़रें देख
किसे दोष दूँ
किसे दोष दूँ, मैं . . . औरत का होना
कैसे ना दोष दूँ, औरत का ना होना
पल पल मरती मैं
कभी काया के भीतर
कभी काया लिए
मरती कभी तन से
कभी मन से
खिरते सपने
गिरते रिश्ते
जाने कौन सा अदब लिए
जाने कौन सा . . . वो नज़रें॥

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