गुनगुनी धूप
काव्य साहित्य | कविता सुनील गज्जाणी22 Feb 2014
पहाड़ियों से उतरती
जाड़ों की गुनगनी धूप की किरणें
रोशनदान से मेरे सिरहाने
आकर अक़्सर बैठ जाती थीं
कभी गाल थपथपाती
कभी चेहरा चूमती
उसकी नर्म छूअन अच्छी भी लगती मुझे
किसी प्रेयसी की तरह
मुझे जगाने की कोशिश करती
उस कोशिश के सामने
मैं उठ भी जाता
अपनी उनींदी आँखें मलता
झरोखे से बाहर झाँकता
गुनगुनी धूप मुस्कुराती खड़ी मिलती
उनींदी आँख . . . कुछ फर्लांग दूरी पे खड़े
एक ख़ूबसूरत दरख़्त पे परिन्दे मीठी तान छेड़ते
मनो, दरख़्त संगीत का रियाज़ कर रहा हो
वो तान उनींदी आँखें खोल देती
सुनता रहता उस दरख़्त को आँखें मूँदे
हौले-हौले गुनगुनी धूप का टुकड़ा मेरे सिरहाने से
खिसकने लगती
जैसे कहीं ओर अपना कर्त्तव्य निभाना हो
मैं उसके चुलबुलेपन पे मुस्कुरा उठता
अब सुबह बे-आवाज़ सी लगती
गुनगुनी धूप दबे पाँव आती है
और यूँ ही चली जाती है
अब मैं विपरीत दिशा में सोता हूँ
उसकी नर्म छूअन पाँवों पे
सिहरन नहीं दौड़ा पाती
दिन कशमकश में निकलता
उस दरख़्त बिना . . . जो अब
तान नहीं छेड़ता
ना ही परिन्दे उस पे बसेरा करते
ठूँठ बना पड़ा, एक ओर अपने सूखे पत्तों के बीच
सुनो, मासूम दरख़्त का घर हथिया लिया
एक काली-कलूटी पत्थर दिल, बेरहम
जो कहीं से किसी को जोड़ती भी . . .
और तोड़ती भी है
हाँ! हथियाया भी कइयों की शह पे . . .
मैं उनींदी आँखें लिए ही चल पड़ता हूँ
बाथरूम की ओर अब।
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