मित्र! तुम्हें अपने मन की बात बताऊँ
काव्य साहित्य | कविता सुनील गज्जाणी14 Feb 2014
किस नयन तुमको निहारूँ,
किस कण्ठ तुमको पुकारूँ,
रोम रोम में तुम्हीं हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्हें दुलारूँ,
मित्र! तुम्हें अपने मन की बात बताऊँ
प्रतिबिम्ब मैं या काया तुम,
दोनों में अन्तर जानूँ,
हाँ, हो कुछ पंचतत्त्वों से परे जग में,
फिर मैं धरा तुम्हें माटी क्यूँ ना बतलाऊँ,
सुनो! तुम तिलक मैं ललाट बन जाऊँ,
मित्र! तुम्हें अपने मन की बात बताऊँ।
बैर-भाव, राग द्वेष करूँ मैं किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्मा बसी,
पोखर पोखर सा क्यूँ तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पाँत में मैं भेद ना जानूँ,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊँ,
मित्र! तुम्हें अपने मन की बात बताऊँ॥
विलय कौन किसमें हो ये ना जानूँ,
मेरी भावना तुझ में हो ये मैं मानूँ,
बजाती मधुर बंशी पवन कानों में हमारे,
शान्त हम, हो फैली हर ओर शान्ति चाहूँ,
मित्र! तुम्हें अपने मन की बात बताऊँ॥
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