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कब बदलेगा अपमान का यह तरीक़ा? 

हमारे समाज में महिलाओं के लिए पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा असुविधाएँ एवं असहज स्थितियाँ हैं। अधिकांश संस्थाओं में पुरुष व महिलाएँ साथ काम करते हैं। पुरुष अपनी बातचीत में अक़्सर अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे ये भूल जाते हैं या ये ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं समझते कि वहाँ कोई महिला भी उपस्थित है। वैसे भी पुरुषों द्वारा महिलाओं को अपमानित करने के कई तरीक़े हमारे समाज में प्रचलित हैं, जिनमें कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष। दो पुरुष जब आपस में झगड़ा करते हैं तो एक दूसरे का अपमान करने के लिए माँ-बहन आदि का प्रयोग करते हुए गाली-गलौच करते हैं। महिलाओं का अपमान करने के लिए भी पुरुषों द्वारा इसी तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 

बहुत ही शर्मनाक स्थिति तब पैदा हो जाती है, जब पिता अपने युवा पुत्र को डाँटने के लिए ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता है और तर्क देता है कि ऐसा करके वो लड़के के मन में लज्जा पैदा करना चाहता है। वह स्त्री जो उन दोनों पुरुष में से एक की माँ और एक की पत्नी है, कितना असहज और अपमानित महसूस करती है इसका अंदाज़ा स्त्री को नगण्य समझने वाला पुरुष समाज कदापि नहीं कर सकता। 

प्राचीन काल से लेकर अब तक हमारे समाज में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं। महिलाओं से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं तथा परम्पराओं पर रोक लग चुकी है। परन्तु महिलाओं पर केन्द्रित गालियाँ देने की परम्परा यथावत् जारी है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब और ज़्यादा होता है जब उच्च शिक्षित और अपने को सभ्य समझने का दम्भ भरने वाले पुरुषों के मुख से भी ऐसी ही अभद्र भाषा सुनायी देती है। तब उनमें और अनपढ़ व्यक्ति में क्या फ़र्क़ रह जाता है। आख़िर महिलाओं को अपमानित करने का यह तरीक़ा कब बदलेगा? 

जिस प्रकार विशेष जाति सूचक शब्दों द्वारा सम्बोधन प्रतिबंधित है, वैसे ही इस पर भी रोक लगनी चाहिए। क्योंकि यह सम्पूर्ण महिला जाति का अपमान है। महिलाओं को कमतर, दुर्बल और अबला साबित करने के लिए पुरुष एक और वाक्य का अक़्सर प्रयोग करते हैं, “हमने चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं।ʺ या ʺक्या चूड़ियाँ पहन रखी हैं?ʺ ऐसा कहने वाले पुरुष ये भूल जाते हैं कि चूड़ियाँ कभी महिलाओं की कमज़ोरी नहीं रहीं। इतिहास इस बात का गवाह है कि चूड़ियाँ पहनने वाले हाथों ने किस तरह कुश्ती, मलखंभ, घुड़सवारी, तीरंदाज़ी, तैराकी जैसे पुरुषोचित माने जाने वाले कार्यों में निपुणता प्राप्त की और अपने राज्य की महिलाओं को भी इन कार्यों में दक्ष बनाया। वो कोई और नहीं आज भी वीरता का प्रतीक मानी जाने वाली रानी लक्ष्मीबाई थीं, जिन्होंने युद्धभूमि में देशप्रेम और वात्सल्य का एक साथ कुशलता पूर्वक निर्वाह किया। उनके शौर्य और पराक्रम को देखकर अँग्रेज़ भी चकित रह गये। क्या किसी पुरुष का ऐसा उदाहरण मिल सकता है? महिलाओं की वीरता और विद्वता के उदाहरणों की इतिहास में कमी नहीं है। आधुनिक महिलाएँ उन क्षेत्रों में भी अपना ख़ास स्थान बना रही हैं जिन पर अब तक केवल पुरुषों का ही आधिपत्य था। फिर आख़िर क्या कारण है कि पुरुष हमेशा महिलाओं को कमज़ोर सिद्ध करके अपने पुरुषत्व का प्रमाण देने में लगे रहते हैं। इसका उत्तर जयशंकर प्रसाद के शब्दों में दिया जा सकता है, “तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।” पुरुषों को अपनी अहमवादी संकीर्ण मानसिकता से मुक्त होने की महती आवश्यकता है। 

आज समाज की जो कुत्सित मानसिकता विकसित हो रही है वो केवल महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी चुनौतीपूर्ण है। अभी कुछ समय पूर्व तक यदि कोई महिला परिवार के किसी पुरुष सदस्य के साथ कहीं जाती थी तो वह अपने आप को पूर्णतया सुरक्षित समझती थी परन्तु अब स्थिति बदल गयी है, एक क्या एक से अधिक पुरुष सदस्य भी साथ हों तो भी सुरक्षा की गारंटी नहीं है। आज पुरुष के रक्षक रूप पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। 

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टिप्पणियाँ

Aprajita Rajoria 2022/05/25 11:09 AM

सच हमारे समाज ने काफी विकास किया है पर सहो मायने मैं महिलाओं ने दहलीज के अन्दर रह कर घर गृहस्थी समालने के साथ ही समाज के हर चुनौती पूणॅआयमोंको छू कर अपना हुनर दिखाया है।पर पुरूषप्रधान समाज में जो मानसिकता पुरूषों की 5 दशक पहले थी आज भी नजर आती है।वे महिलाओ के इस बदलाव को हजम नहीं कर पा रहे क्योंकी कहीं न कहीं उन्हेंअपने वचॅस्व खोने का ङर सताता है।घरमे में महालाओं अभी भी वो इज्जत और सम्मान नहीं मिलता जिसकी वो हकदार है ।घरों से ही समाज बनता है,जब घर में महिलाओ के साथ गलत व्यवहार हो रहा है तो समाज से क्या उम्मीद करे?पर समाज को महिलाओंके दोहरे मापदंङको देखते हुऐ अपनी मानसिकता बदलनी होगी

मधु 2022/05/17 04:16 PM

चिंतन का विषय है। कहते हैं माँ की गोद ही उसकी संतान की पहली पाठशाला होती है। माएँ बेटियों को तो सही व्यवहार के लिए तैयार करती रहती हैं कि कल तुम्हें दूसरे घर जाना है तो यह मत करो, वो मत करो, अपनी वाणी में संयम रखो इत्यादी इत्यादि...लेकिन क्या वही अधिकतर माँ-बाप अपने बेटों को भी इन्हीं बातों पर टोकते हैं? क्या बेटों ने बड़े होने पर अपना घर नहीं बसाना होता?

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