दर्प
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुरंगमा यादव15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
नफ़रत का हथियार दिखाकर
गीत प्रेम के कहते गाओ
हम बारूद बिछाते जाएँ
तुम गुलाब की फूल उगाओ
लपटों में हम घी डालेंगे
अग्नि परीक्षा तुम दे जाओ
ठेकेदार हैं हम नदिया के
कूप खोद तुम प्यास बुझाओ
हम सोपानों पर चढ़ जाएँ
तुम धरती पर दृष्टि गढ़ाओ
माला हम बिखराएँ तो क्या!
मोती तुम फिर चुनते जाओ
सिंहासन पर हम बैठेंगे
तुम चाहो पाया बन जाओ
फूलों पर हम हक़ रखते हैं
तुम काँटों से दिल बहलाओ
अधिकारों का दर्प हमें है
तुम कर्त्तव्य निभाते जाओ
कभी शिकायत कोई न करना
अधरों पर मुस्कान सजाओ
शर्तों के कंधों पर हँसकर
संबंधों का बोझ उठाओ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
साहित्यिक आलेख
कविता - हाइकु
पुस्तक समीक्षा
- दूधिया विचारों से उजला हुआ– 'काँच-सा मन'
- भाव, विचार और संवेदना से सिक्त – ‘गीले आखर’
- भावों का इन्द्रजाल: घुँघरी
- विविध भावों के हाइकु : यादों के पंछी - डॉ. नितिन सेठी
- संवेदनाओं का सागर वंशीधर शुक्ल का काव्य - डॉ. राम बहादुर मिश्र
- साहित्य वाटिका में बिखरी – 'सेदोका की सुगंध’
- सोई हुई संवेदनाओं को जाग्रत करता—पीपल वाला घर
सामाजिक आलेख
दोहे
कविता-मुक्तक
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
शोध निबन्ध
कविता-माहिया
कविता-ताँका
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं