पैकेज
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. सुरंगमा यादव15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
आज कई दिन से बिस्तर पर लेटे-लेटे उनका मन घबरा रहा था। इधर दो-तीन दिन से बिस्तर से उठ भी नहीं पाये थे। एक अजीब-सी उदासी उनके मन को घेर रही थी। पानी के बुलबुलों के समान तरह-तरह के विचार मन को विचलित कर रहे थे। बेबसी चेहरे से साफ़ झलक रही थी। मन ही मन सोचने लगे, अवकाश प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का दायरा कितना सीमित हो जाता है। शरीर में शक्ति भी सीमित रह जाती है और शायद साँसें भी सीमित ही रह जाती हैं परन्तु भावुकता कितनी बढ़ जाती है जीवन के अन्त में।
“अरे क्या सोच रहे हो?” पत्नी की आवाज़ सुनकर वे चौंक पड़े।
“सुनो ज़रा सुदीप को फोन लगाना” वे बोले।
“आपने सुबह ही तो बेटे से बात की थी। अब क्या बात करनी है . . . अच्छा लगाती हूँ।”
“बेटा सुदीप तुम्हें देखने का बहुत मन कर रहा है। अजीब-सी बेचैनी है। तबीयत आज बहुत घबरा रही है। तुम जल्दी से जल्दी घर आ जाओ बेटा,” रुँधे गले से किसी तरह वे अपनी बात कह पाते हैं।
“पापा मैं नहीं आ सकता। मैंने नई कम्पनी ज्वाइन की है जो मुझे डबल पैकेज दे रही है। आपकी तबीयत ठीक नहीं है तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाइए। आपके इलाज के लिए पैसे भेज दूँगा। बार-बार फोन करके परेशान . . .”
फोन उनके हाथ से छूट गया और साँसें भी . . .!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
दोहे
कविता
कविता-मुक्तक
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
शोध निबन्ध
कविता-माहिया
पुस्तक समीक्षा
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं