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लैंगिक असमानता

 

हम सभी जानते हैं संसार में प्राकृतिक रूप से दो प्रकार के प्राणी या जीवधारी होते हैं—नर और मादा, जिसे व्याकरणिक शब्दों में स्त्रीलिंग-पुलिंग कहा जाता है। प्रकृति ने नर और मादा की शारीरिक संरचना में कुछ भिन्नता रखी है। यह भिन्नता प्राणियों के जीवन चक्र को बनाए रखने के लिए तथा इस सृष्टि को गतिमान रखने के लिए ईश्वरीय उपहार के समान है। इस प्रकार स्त्रीलिंग तथा पुल्लिंग एक जैविक या प्राकृतिक तथ्य है। लेकिन जब इसके साथ किसी प्रकार की असमानता को जोड़ दिया जाता है अर्थात् एक की अपेक्षा दूसरे को अधिक महत्त्व मिलने लगता है तब यह एक सामाजिक तथ्य बन जाता है जिसे हम लैंगिक असमानता कहते हैं। नर व मादा इन दोनों वर्गों के स्वभाव, कार्यक्षमता, लक्षण तथा आवश्यकताओं आदि में कुछ समानताएँ और कुछ भिन्नताएँ होती हैं। ये भिन्नताएँ अन्य प्राणियों की तरह स्त्री और पुरुषों में भी होती हैं। दोनों का अपना-अपना महत्त्व है, इसलिए दोनों को समान अवसर, समान अधिकार और सामान रूप से सम्मान मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। हमारे समाज में पुरुषों को श्रेष्ठ मान लिया गया और महिलाओं को उनसे कमतर समझा गया। महिलाओं के अधिकारों को प्रतिबंधित कर दिया गया। उन्हें एक संकुचित भूमिका से बाँध दिया गया। हमारे समाज में सारे विधान-नियम-ग्रंथ पुरुषों ने रचे और अपने लिए सारे अधिकार सुरक्षित करके स्त्रियों के लिये आदर्श, उत्तरदायित्व, त्याग, समर्पण जैसी चीज़ों की एक लंबी फ़ेहरिस्त तैयार कर दी। मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है:

“नरकृत शास्त्रों के सब बंधन, हैं नारी को ही लेकर
 अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठा है नर।” 

सिमोन द बबुआर ने लिखा है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है।”

लेकिन मैं कहूँगी कि स्त्री व पुरुष दोनों को बनाया जाता है। बचपन से ही दोनों के आगे ऐसे उदाहरण पेश किए जाते हैं, ऐसी चीज़ों को बार-बार दोहराया जाता है जिससे समाज द्वारा निर्धारित गुण चाहें वे अच्छे हों या न हों उनमें भर जाएँ, जैसे लड़कियों से बार-बार कहा जाता है कि धीरे बोलो, धीरे हँसो, धीरे चलो, तुम्हें पराये घर जाना है; तुम क्या करोगी पढ़कर आदि। दूसरी ओर लड़के का उत्साह बढ़ाया जाता है—डरा नहीं करते, क्या लड़कियों की तरह डर रहे हो, लड़के रोया नहीं करते, मर्द को दर्द नहीं होता, क्या चूड़ियाँ पहन रखी हैं इत्यादि। इस तरह की बहुत-सी बातें हैं जो बचपन से लड़के और लड़की का व्यक्तित्व गढ़ती हैं और उनमें असमानता की खाई पैदा करती हैं। लैंगिक असमानता हमारे समाज में सदियों से चली आ रही है यह असमानता की प्रवृत्ति समाज का व्यवहार बन गयी है। इसकी जड़ें हमारी सोच में गहरे बहुत गहरे तक जम गई हैं और हमने कई चीज़ों में यह मान लिया है कि ऐसा तो होता ही रहता है। हमारे यहाँ पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था रही है। पितृसत्ता यानी पिता का शासन, जिस व्यवस्था में पिता का शासन चलता है उसे पित्तृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं। ऐसी व्यवस्था में सभी प्रमुख अधिकार व निर्णय पुरुषों के होते हैं। स्त्रियों की भूमिका संकुचित होती है। बच्चों की पहचान पिता के नाम से होती है, विवाह के बाद महिलाओं का उपनाम भी बदल जाता है। स्त्रियाँ आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर होती थीं इसलिए भी उन्हें मुख्य भूमिका से पृथक रखा जाता था। यद्यपि अब काफ़ी परिवर्तन हुआ है। दस्तावेज़ों में माता-पिता दोनों का नाम लिखा जाने लगा है। सरनेम भी बदलना आवश्यक नहीं है लेकिन फिर भी यदि बदलना होगा तो स्त्री ही सरनेम बदलती है, पुरुष नहीं बदलता। 

मारी बहुत-सी प्राचीन मान्यताएँ भी लैंगिक असमानता के लिए उत्तरदायी हैं। स्त्री को सदैव ही पराधीन माना जाता रहा है और पराधीनता किसी के लिए भी सुखकर नहीं होती—कत बिधि रची नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। इस चौपाई से भी स्त्री जाति की स्थिति को समझा जा सकता है, जिसमें पार्वती जी की विदाई के समय उनकी माँ मैना कहती हैं कि विधाता ने स्त्री जाति को क्यों पैदा किया। पराधीन को सपने में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। मनुस्मृति में भी ऐसा ही कहा गया है:

“पिता रक्षित कौमारे भर्ता रक्षति यौवने
 रक्षन्ति स्थाविरे पुत्रा: न स्त्री स्वतंत्र्यम् रहति।” 

मनुस्मृति के इस श्लोक को स्त्री स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से हथियार के रूप में प्रयोग व प्रचारित किया गया। यदि इस श्लोक को सही मायने में देखें तो यह पुरुषों को उनके कर्त्तव्य का बोध कराने वाला भी है। हमारे समाज में ये भी प्रचलित है कि वंश बढ़ाने के लिए पुत्र होना आवश्यक है, पुत्र बुढ़ापे का सहारा होता है। माता-पिता का अंतिम संस्कार भी पुत्र द्वारा ही होना चाहिए तभी मोक्ष प्राप्त होता है। लड़की पराया धन होती है उससे ससुराल जाना होता है। कन्यादान जैसी प्रथा के द्वारा ये मान लिया जाता है कि विवाह के बाद लड़की पर मायके वालों का कोई हक़ नहीं है। प्राचीनकाल से ही स्त्रियों को वस्तु के रूप में समझा गया जिसे इच्छानुसार और अवसरानुसार प्रयोग किया जा सकता है। क्रय-विक्रय, बलात् हरण, उपहार में देना, जैसे कार्य साधारण समझे जाते रहे हैं। देवदासी प्रथा के बहाने भी स्त्रियों का शोषण होता रहा। 

हमारी मानसिकता का विकास धीरे-धीरे होता है और कई चीज़ों पर निर्भर करता है। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े और शहरी परिवेश में पले-बढ़े पुरुष की मानसिकता में भी अंतर रहता है, जो दोनों स्थानों की स्त्रियों की स्थिति देखकर साफ़ पता चलता है। बचपन से पढ़ाई जाने वाली पाठ्य पुस्तकों ने भी लैंगिक असमानता को बढ़ाया है हमने बचपन में पढ़ा, माताजी रसोई घर में खाना पका रही हैं। पिताजी अख़बार पढ़ रहे हैं। गीता बहुत अच्छा गाती है। रामू तेज़ दौड़ता है। इस तरह के उदाहरण बाल-मन में अनजाने ही घर कर जाते हैं कि अमुक काम किसका है? इस तरह के उदाहरण पाठ्य पुस्तकों से हटाए जाने की माँग की गयी, ये हटाए भी गए हैं। विषयों में भी गृहविज्ञान लड़कियों के लिए विज्ञान लड़कों के लिए। अब विज्ञान तो बहुत-सी लड़कियाँ पढ़ते हुए मिल जायेंगी लेकिन गृहविज्ञान पढ़ने वाले लड़कों की संख्या नगण्य ही है। लैंगिक असमानता को बढ़ाने में मनोवैज्ञानिक कारकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। कई क्षेत्रों में विशेषकर गाँव में स्त्रियों के मन में प्रारंभ से ही यह बात बिठा दी जाती है कि पुरुष महिलाओं से अधिक श्रेष्ठ है इसीलिए उसके खान-पान और रहन-सहन का स्तर उससे ऊँचा होना चाहिए। पुरुष के बिना स्त्रियों का कोई अस्तित्व नहीं है तथा उनसे ही उसकी पहचान है। उनकी आज्ञा का पालन करना स्त्री का धर्म है। रामचरित मानस में सीता जी के मुख से तुलसीदासजी ने ये बात कहलवाई है:

“जिय बिन देह, नदी बिनु वारि
 तैसेइ नाथ, पुरुष बिनु नारी।”
 

पुरुष की श्रेष्ठता स्त्री मन पर हावी होने का ही ये परिणाम है कि वह स्वयं स्त्री होकर भी बालिका के जन्म तथा उसके विकास का विरोध करती रही हैं। स्त्री को स्त्री का विरोधी भी कहा जाता है, तुलसीदास जी भी लिखते हैं:

“नारी न मोहे नारी के रूपा”

इसके पीछे के कारणों को देखना भी बहुत ज़रूरी है प्राचीन काल में बहुपत्नी प्रथा थी, आपस में सौतिया डाह होना स्वाभाविक है। पति का प्रेम पाने के लिए तथा अपनी संतान का भविष्य सुरक्षित करने के लिए पत्नियाँ अपनी-अपनी तरह से प्रयास करती रहती थीं। राजा दशरथ के तीन रानियाँ थी, सभी में आपस में बहुत प्रेम था, लेकिन उनके भी मन में कहीं न कहीं अपने तथा अपने पुत्र के भविष्य को लेकर असुरक्षा की भावना थी। कैकई द्वारा राम को बनवास और भरत को सिंहासन माँगना उसी का परिणाम था। आज भी बहुत से ऐसे परिवार ऐसे हैं जहाँ कन्या का जन्म देने वाली बहू की उपेक्षा की जाती है और पुत्र को जन्म देने पर महत्ता बढ़ जाती है। महिलाएँ स्वयं भी पुत्र को जन्म देने में गौरव का अनुभव करती हैं। कन्या के जन्म के साथ ही शुरू हुआ असमानता का सिलसिला जीवनपर्यंत चलता रहता है, आज भी कई घरों में पुत्र का जन्मदिन मनाया जाता है लेकिन पुत्री का जन्मदिन नहीं मनाया जाता। कान्वेंट में पढ़ाने में भी वरीयता बेटे को दी जाता है। 

महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय में स्त्री की भूमिका बहुत कम होती है। वे स्वयं भी निर्णय लेने से घबराती हैं, क्योंकि सदियों से वे निर्णय सुनती आयी हैं, निर्णायक नहीं रहीं, इसलिए उनमें अभी आत्मविश्वास की कमी भी है, परन्तु धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। घर और बाहर दोनों ही स्थानों पर महिलाओं के साथ भेदभाव को देखा जा सकता है। पत्नी यदि कामकाजी हैं तो भी उनके उत्तरदायित्व में कोई कमी नहीं आई है। श्रमिक महिलाओं की स्थिति तो और भी ख़राब है समान पारिश्रमिक का क़ानून होते हुए भी उन्हें समान वेतन नहीं मिलता है। 

समाज में विधवा और विधुर स्त्री-पुरुष की स्थिति में भी ज़मीन-आसमान का अंतर है। पुरुष यदि विधुर है तो उस पर कोई वर्जना नहीं होती, परन्तु स्त्री को उपेक्षित और बेचारी बना दिया जाता है। शुभ कार्यों में वह सहभागी नहीं हो सकती, जाने कितनी ही बार समाज के रीति-रिवाज़ उसे मुँह चिढ़ाते हैं, जैसे वह कोई अपराधिनी है। जीवनपर्यंत वह यह दंश झेलती है, यहाँ तक कि उसकी निर्जीव देह भी भेदभाव का शिकार बनती है। 

ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं, जो लैंगिक असमानता को दर्शाते हैं। इस असमानता को दूर करने के लिये सबसे पहले हमें अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा और इसकी शुरूआत हमें अपने घर से ही करनी होगी। बेटे और बेटी में फ़र्क़ करना बंद करना होगा। हमने अपनी बेटियों को बेटों की तरह शिक्षा देना, उनका पालन-पोषण करना शुरू भी कर दिया है, परन्तु बेटों को बेटियों की तरह पालना नहीं शुरू किया है। बेटियों की तरह पालने से मेरा अभिप्राय है कि हम उनके अंदर भी संवेदनशीलता का संचार करें। घरेलू कामकाज में हाथ बँटाना सिखाएँ, वे कहाँ जाते हैं, किससे मिलते हैं, इसकी जानकारी रखें तथा उनके मन में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना को जागृत करें। बचपन से ही उन्हें ये न सिखाएँ है कि वे लड़के हैं तो उनके लिए सब ठीक है, चलता है। समाज में परिवर्तन लाने के लिए जागरूकता की आवश्यकता है, बेटियों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण बनाने की आवश्यकता है बालिकाओं को अच्छी शिक्षा और आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है, ये तभी सम्भव है जब हम घर व बाहर दोनों ही जगह अपनी सोच का परिष्कार करेंगे। 

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