अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

विधवा स्त्रियाँ!

 

हे ईश्वर! 
विधवा स्त्रियाँ
तय कर रहीं तुम्हारी
जवाबदेहियाँ
पूजा तुम्हारी
कितने व्रत-उपवास
आए तुम्हें न रास
जिसके लिए माँगती रहीं दुआ
तुमने उसी से कर दिया जुदा
क्या तुम भी ग्रस्त हो? 
समाज की रूढ़ियों से
पुरुष प्रधान
तुमने भी लिया मान
यह कैसा तरीक़ा? 
मृत्यु में भी उसे ही 
दी तुमने वरीयता
विधुर होने की पीड़ा से
पुरुष बच जाता है तुम्हारी क्रीड़ा से
कोमल हृदया स्त्री पर
डाल देते हो पीड़ा गुरुतर
अनंत पथ पर पुरुष अग्रगामी
स्त्री पर आयी जैसे सुनामी
वैधव्य का दंश झेलती
मृतप्राय हो जाती हैं
विधवा स्त्रियाँ 
एक स्त्री सिर्फ़ पति ही नहीं खोती
उसके साथ खो देती है
सारी ख़ुशियाँ तीज-त्योहार
साज-सिंगार! 
उसके हृदय की चीत्कार
तुम्हें कोसती है बार-बार
क्यों नहीं हर लिए तुमने उसके प्राण! 
क्यों किया पति को निष्प्राण 
विधवाओं की लंबी क़तारें
लगाती हैं तुमसे न्याय की गुहारें
क्योंकि तुम्हें ही पूजा था
और तुम्हीं ने उपेक्षिता बनाकर
टाँग दिया हाशिए पर
वैधव्य को महसूस कराने की
कैसे ये रीति-रिवाज़
उतारा जाता है जब उसका साज-सिंगार
उमड़ता है दुःख का पारावार
जिन बच्चों को पाला-पोसा
जिन रिश्तों को सँजोया-सँवारा
उनकी ही नज़रों में आ गया फ़र्क़-सा
जाये कहाँ? किसको सुनाए? 
खुल के बेचारी रो भी न पाये
सवाल बड़ा है? 
हमेशा ही स्त्रियाँ
क्यों पाती हैं उधार की ख़ुशियाँ
कभी सुहाग चिह्न लादें
कभी वे उतारें
बन जाती है एक स्त्री
चलता-फिरता प्रमाणपत्र
पति के जीवन अथवा मृत्यु का
पाँवों में अपने बेड़ियाँ कसके बाँधें
क्यों सहे वे ये सब? 
क्यूँ जिएँ सूना जीवन
मृत्यु से पहले मृत्यु का वरण
साँसों का ‘रिदम’ टूटना तय है
कोई आगे तो कोई पीछे गया है
प्यार लेकिन कभी भी मरता नहीं है
कल मूर्त था आज अमूर्त हुआ है
उसी प्यार का मान मन में रहे बस
साज-सिंगार छोड़े उदासी लपेटे
क्यों रहे स्त्री मन को मसोसे
सौभाग्य उसका पुरुष मात्र ही है? 
अन्यथा शून्य ही उसकी नियति है? 
उठो स्त्रियों रूढ़ियाँ सारी तोड़ो
जीवन में ख़ुशियों से नाता न तोड़ो
तुम्हारी भी अपनी एक अस्मिता 
ढूँढ़ लो फिर से उसका पता
सारे रंग-सिंगार-त्योहार अपने लिए अब सजाओ
ज़माने से ऐसे नज़र न चुराओ। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

दोहे

कविता

कविता-मुक्तक

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

शोध निबन्ध

कविता-माहिया

पुस्तक समीक्षा

कविता - हाइकु

कविता-ताँका

साहित्यिक आलेख

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. वंशीधर शुक्ल का काव्य