ऐसा भी होता है जग में
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुरंगमा यादव15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
नहीं बड़ाई कोई आयी, जाने क्यों उन हाथों में
कोई सार नज़र न आता, किसी को उसकी बातों में।
औरों को ख़ुश करने में, हर बार कमी रह जाती है
सब कुछ करके भी वो, मीठे बोल न सुनने पाती है।
फूल बिछाए चुन-चुन कर, उन रस्तों पर सब चलते हैं
फूल वहीं पर उसके मन को, पल-पल घायल करते हैं।
सींच-सींचकर जिन पौधों को उसने वृक्ष बनाया है
फल की बेला में, बाग़वानी पर ही प्रश्न उठाया है।
अपने मन का रीता भाजन, दिखा नहीं वह पाती है
औरों का मन भरते-भरते अपना भूल ही जाती है।
दुनिया हँसते चेहरे का अनुमान नहीं कर पाती है
मन में उठते तूफ़ानों का शोर नहीं सुन पाती है।
दफ़न हो गईं सब इच्छाएँ, मन के कब्रिस्तानों में
आँसू ही राहत देते हैं, तपते रेगिस्तान में।
अपनों ने जो अक्स दिखाया, अपने मन के दर्पण में
कैसी छवि बनी है उसकी, कभी न सोचा था मन में।
स्वर्णिम सपनों की किरचों पर बैठी सोचे बारंबार
ऐसा भी होता है जग में? मन न माने क्यों एक बार।
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