जीवन की क़ीमत
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुरंगमा यादव15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
चंद सिक्के बड़े ज़िन्दगी से हुए,
जीवन की क़ीमत सिफ़र हो गयी
जान पर जब बनी, पाँव देहरी चले लाँघने
पर जमाने की नज़रें, बेड़ियाँ हो गईं
सुलह समझौतों के कितने चले सिलसिले
आख़िरी भी घड़ी आज आकर खड़ी हो गई
पत्थरों के कलेजे पिघलते नहीं
मिन्नतें भी सभी बेअसर हो गयीं
गिड़गिड़ाई बहुत हाथ भी जोड़कर,
अनसुनी हरेक याचना हो गई—
जिस गुलिस्तां में उसने खिलाया सुमन
उसी लाड़ले के आगे धुआँ बन गयी
न सती वो हुई, न ही जौहर किया,
सात फेरों की अग्नि चिता थी बनी
जिसमें जीवित जला, राख वो की गई
मैं सुहागन मरूँ यही की थी दुआ
हा! सुहाग के हाथों होलिका हो गई
कितनी चीख़ें दीवारों से टकराती रहीं
दानवी देहरियों पर एक मासूम की—
ज़िन्दगी फिर स्वाहा हो गई।
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भीकम सिंह 2025/10/15 08:13 AM
कविता में भारतीय समाज में मौजूद आतंककारी यथार्थ की उपस्थिति का चित्रण बड़ी संवेदना से किया है, हार्दिक शुभकामनाएँ।