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कमलेश्वर के उपन्यासों में समाज और संस्कृति

 

कमलेश्वर एक व्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व का नाम है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक महान कलाकार थे। उन्होंने केवल साहित्य में ही नहीं अपितु सम्पादन, पटकथा एवं संवाद लेखन, दूरदर्शन, रंगीन फ़िल्मों के विकास, हिन्दी टेलीविज़न के धारावाहिकों आदि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 6 जनवरी, 1922 ई. को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी क़स्बे में जन्मे कमलेश्वर जी का बचपन संघर्ष और अकेलेपन से भरा हुआ था। संघर्ष का और उनका आपस में बड़ा ही गहरा सम्बन्ध था, यह संघर्ष जीवन के आख़िरी समय तक चलता रहा। जब भी समकालीन हिन्दी कथा-साहित्य का ज़िक्र किया जाएगा, कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना के हिन्दी साहित्य के योगदान को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। इनके कथा-साहित्य में अनुभूति की प्रामाणिकता एवं सामाजिक यथार्थता, निम्न एवं मध्यमवर्गीय जीवन की व्यथा, समकालीन जीवन के विविध पक्षों का वर्णन, मानवता, संस्कृति का गिरता स्तर आदि भावनाओं का बड़ी गहराई से वर्णन मिलता है। प्रायः उन्होंने पिछड़े वर्ग, नारी, मज़दूर, शोषित और उपेक्षित लोगों के दुख-दर्द एवं पीड़ा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। उनका लेखन कार्य 1952-53 के आस-पास आरंभ हुआ। ‘राजा निरबंसिया’ इनकी पहली कहानी है जबकि ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ आपके द्वारा लिखित प्रथम उपन्यास है। 

व्यक्ति जिस सामाजिक वातावरण और संस्कृति में पलता-बढ़ता है, उसका प्रत्यक्ष प्रभाव उस पर पड़ता है। कमलेश्वर जी भी इससे अछूते न रहे क्योंकि उनका समाज आज़ाद देश का अपनों द्वारा शासित था, परन्तु आज़ादी के पूर्व जिस भारत का सपना लोगों ने देखा था, उसका कहीं नामोनिशान तक न था। चारों तरफ़ स्वार्थ, लालच, जमाखोरी, उत्पीड़न, संकुचित मनोवृत्ति, निचले स्तर की राजनीति, शोषण आदि का वातावरण था और इसी दर्द एवं पीड़ा को कमलेश्वर जी के साहित्य में देखा जा सकता है। वे अपने कथा-साहित्य के माध्यम से ग्रामीण एवं क़स्बाई जीवन के विविध रूप, विभाजन की पीड़ा, मानसिक तनाव, महानगरों में संघर्षरत परिवार, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में उत्पन्न दरार, संस्कृति का पतन, स्त्री की करुण व्यथा, शारीरिक शोषण, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि को व्यक्त करते हैं। अन्याय एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध डटकर पूरी निडरता से वे अपनी बात आम जनता तक पहुँचाते हैं। उनके साहस एवं निडरता का एक छोटा-सा नमूना उन्हीं के कथनों द्वारा देखा जा सकता है, “यह देश किसी जे. पी., किसी मोरारजी, किसी चरण सिंह का नहीं है, यह धनी किसानों, पूँजीपतियों, तस्करों, सांप्रदायिक तत्वों या आर. एस. एस. का भी नहीं है। यह देश हमारा भी है और सर्वहारा तथा जनसामान्य का भी है।” यह कथन ही उनके गहरे सामाजिक बोध का परिचायक है। कमलेश्वर जी ने अपने युग की समस्याओं को अपने कथा-साहित्य का विषय बनाया। इनका कथा-साहित्य आसमान की कल्पनाओं से दूर मानव-जीवन के विविध पक्षों से सम्बन्ध रखता है। संस्कृति के साथ भारत का सदैव से गहरा सम्बन्ध रहा है क्योंकि विश्व की जिन महान संस्कृतियों की बात की जाती है उसमें भारत की संस्कृति की एक अलग पहचान है, परन्तु कमलेश्वर जी के कथा-साहित्य में उसके निरंतर पतन को देखा जा सकता है। 

कमलेश्वर जी का उपन्यास साहित्य इतना वृहद्‌ है कि अल्पसमय में उन सभी उपन्यासों पर विस्तृत रूप में प्रकाश डालना सम्भव नहीं है। अतः यहाँ पर उनके द्वारा लिखित उपन्यासों पर एक नज़र डालते हुए ‘समाज और संस्कृति का समायोजन’, ‘समाज और संस्कृति का निरंतर पतन’ आदि समस्याओं को तत्कालीन परिवेश के आधार पर समझने का प्रयास किया गया है। एक ओर जहाँ ग्रामीण जीवन से संबंधित ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ उपन्यास है, जो ग्रामीण जीवन शैली, वहाँ का रहन-सहन, धार्मिक एकता और फिर उनमें धीरे-धीरे शहरी प्रभाव और ऐतिहासिकता के आधार पर उत्पन्न हुई कड़वाहट है, तो दूसरी ओर आज़ादी के लिए संघर्षरत भावों का उल्लेख करता हुआ उपन्यास है और आज़ादी के पश्चात जो स्थिति उत्पन्न हुई, वह तो और भी भयावह हो गयी। देश आज़ाद हुआ, पर यह आज़ादी वास्तव में केवल शासन को मिली न कि आम जनता को। ‘काली आँधी’, ‘रेगिस्तान’ इन उपन्यासों में कमलेश्वर जी ने यही दर्शाया है कि राजनीति में किस तरह से चारित्रिक गुणों का लगातार पतन हो रहा है और इसी से भ्रष्टाचार का जन्म हो रहा है। आज़ादी के वक़्त भले ही दो मुल्कों का बँटवारा हुआ, पर न जाने कितने छोटे-छोटे बँटवारे हुए। समाज के इस यथार्थ सत्य को ‘कितने पाकिस्तान’ और ‘लौटे हुए मुसाफिर’ उपन्यास में देखा जा सकता है। कमलेश्वर जी इस उपन्यास में यह उम्मीद करते हैं कि आगे दुनिया में और कोई पाकिस्तान न बने क्योंकि पाकिस्तान बनना अर्थात्‌ मानवता को गहरी चोट पहुँचना है। नारी के प्रति समाज में जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा था, जिस तरह उन्हें उपेक्षित एवं संदेह की नज़र से देखा जाता है कि बात बिगड़ते-बिगड़ते तलाक़ तक पहुँच जाती है और विवाह जैसी पवित्र परंपरा भी ख़तरे में आ जाती है। समाज के इसी यथार्थ सत्य को कमलेश्वर जी ने ‘तीसरा आदमी’, ‘डाक बंगला’ और ‘वही बात’ उपन्यासों में व्यक्त किया हैं। आज़ादी के पूर्व अपनी मातृभूमि और मिट्टी के लिए जिस तरह का जज़्बा लोगों के मन में था, इसका प्रत्यक्ष वर्णन कमलेश्वर जी ने ‘सुबह . . . दोपहर . . . शाम’ उपन्यास में किया हैं। ‘समुद्र में खोया हुआ आदमी’ इस उपन्यास में महानगरी जीवन की अनेक समस्याओं का बड़े ही मार्मिक ढंग से वर्णन किया गया है। इस उपन्यास में पारिवारिक विघटन, महानगरी चकाचौंध, एकांकीपन, संस्कार एवं मर्यादाओं का पतन, प्रशासन की लापरवाही, आर्थिक विषमता, रिश्तों में दरार आदि सामाजिक समस्याओं को उजागर किया गया है। इसमें समुद्र का प्रतीक वह समाज है, जहाँ जीवन जीने के लिए व्यक्ति बड़ी मुश्किल से दो क़दम आगे बढ़ पाता है और कुछ दूर चलकर उसी समुद्र रूपी महानगरी समाज में समाहित हो जाता है। 

अतः यह कहना उचित होगा कि कमलेश्वर जी ने अपने उपन्यासों के लिए अपने समय के यथार्थ समाज, टूटते संस्कार और छूटती संस्कृति का विस्तृत मंच चुना है। इनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का हू-ब-हू दर्पण है, उसमें वही दिखता है, जो वास्तव में घटित होता है। मिथ्या के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के कथाकारों में कमलेश्वर जी एक सफल एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी कथाकारों में से एक हैं। 

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