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लेखक की स्वाधीनता पर राजनीति की दस्तक: यशपाल

 

‘यशपाल’-संस्मरण
लेखक-फणीश्वरनाथ रेणु 
समीक्षक-शक्ति सिंह

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिंदी साहित्य की उन अमर विभूतियों में से हैं, जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से जीवन के सहज, सामान्य लेकिन गहरे अनुभवों को बड़ी बारीक़ी से उकेरा। उनकी रचनाएँ भारतीय ग्रामीण जीवन, सामाजिक विषमताओं और मानवीय संबंधों की सूक्ष्मतम बुनावट को चित्रित करती हैं। रेणु की विशेषता यह रही कि उन्होंने हमेशा सत्ता और संगठनों की कठोर रेखाओं से परे मानवीय चेतना को महत्त्व दिया। उनके साहित्य में वैचारिक पक्ष तो है, लेकिन वह किसी वाद या संगठन की कठपुतली नहीं है; वह एक जीवंत, स्वतंत्र और जिजीविषा से भरी संवेदना का विस्तार है। उनका संस्मरण ‘यशपाल’ इसी प्रवृत्ति का एक अनमोल उदाहरण है, जिसमें एक व्यक्तिगत घटना के बहाने वह लेखक की स्वाधीनता पर राजनीति की दस्तक को बेहद सजीव ढंग से सामने लाते हैं। 

लेखक के मित्रों के बीच जब यशपाल की कहानी ‘ज्ञानदान’ पर चर्चा शुरू होती है, तो यह एक साधारण साहित्यिक विमर्श से कहीं अधिक गहरी और जटिल बहस में बदल जाती है। कहानी के बारे में मित्रों की प्रतिक्रियाओं में एक सहजता और बौद्धिकता का मिलाजुला रूप दिखता है, लेकिन जैसे-जैसे बहस बढ़ती है, यह साहित्य और राजनीति के जटिल रिश्तों को उजागर करती है। एक मित्र का कहना है कि यशपाल की कहानी यथार्थवादी नहीं है, तो दूसरा साथी इस पर प्रतिक्रिया करता है कि कहानी के अंत ने उसे हैरान कर दिया। इस तरह की बहसें सिर्फ़ साहित्यिक आलोचना का हिस्सा नहीं, बल्कि राजनीतिक और विचारधारात्मक दृष्टिकोण से भी गहरे सवाल उठाती हैं। जब एक मित्र यह टिप्पणी करता है कि यशपाल की कहानी तो बिल्कुल अपनी ही जगह के वास्तविक जीवन से मेल खाती है, तो यह विचार और भी चुनौतीपूर्ण बन जाता है। इस बिंदु पर लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि यशपाल के लेखन में जो कुछ भी है, वह केवल उनके व्यक्तिगत दृष्टिकोण का परिणाम नहीं है, बल्कि यह व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं की प्रतिक्रिया है। इस चर्चा में यशपाल की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए यह देखा जाता है कि समाज और राजनीति की विभिन्न धाराएँ, जब साहित्य में प्रवेश करती हैं, तो वह साहित्य के मूल्य को धुँधला कर देती हैं। 

यह घटनाक्रम, जिसमें लेखक और उनके मित्रों की विचारधारा और पार्टी के भीतर की राजनीति में टकराव होता है, यह भी स्पष्ट करता है कि कैसे साहित्य पर राजनीति का दबाव डाला जाता है। पार्टी में बैठे कुछ सदस्य, जो स्वयं को संगठन के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध मानते थे, वे यशपाल के लेखन को संदिग्ध और पार्टी विरोधी मानते हैं। यही वह पल होता है जब राजनीति और साहित्य के बीच का गहरा तनाव सामने आता है। लेखक और उनके मित्रों को इस बहस में शामिल होते हुए यह एहसास होता है कि साहित्य का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करना, किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा से परे, कितना कठिन होता है। यह उस समय की राजनीतिक परिपाटी का हिस्सा बन जाता है, जिसमें हर विचार और हर लेखन को पार्टी के दृष्टिकोण से देखा जाता है। यशपाल की कहानी को लेकर इस तरह की आलोचनाएँ केवल उनके व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर सवाल नहीं उठातीं, बल्कि यह इस तथ्य को भी उजागर करती हैं कि कैसे विचारधाराएँ साहित्य को अपनी सुविधाओं के हिसाब से मोड़ने की कोशिश करती हैं। जब यशपाल की रचनाएँ क्रांतिकारी होते हुए भी पार्टी से जुड़ी नहीं थीं, तो उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर संदेह किया गया। ऐसे में लेखक यह सवाल उठाते हैं कि क्या हमें किसी लेखक को उसकी रचनाओं के भीतर छिपी राजनीति के आधार पर परखना चाहिए या फिर उसकी साहित्यिक गुणवत्ता और गहरे मानवीय संदेश के आधार उसका मूल्यांकन करना चाहिए। 

इस पूरे प्रसंग में लेखक और उनके मित्रों के विचार, उनके लेखन के प्रति प्रतिबद्धता और साहित्य के प्रति उनकी निष्ठा, एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में घिर जाती है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या साहित्य वास्तव में उस हद तक स्वतंत्र है, जितना हमें विश्वास होता है या फिर हर रचनाकार को किसी राजनीतिक विचारधारा की सीमाओं में रहकर अपनी कला का विकास करना पड़ता है। इस संस्मरण के माध्यम से रेणुजी यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि जब साहित्य और राजनीति के बीच का संतुलन समाप्त हो जाता है, तो साहित्य के स्वतंत्र रूप से व्यक्त होने की क्षमता न केवल कम होती है, बल्कि उसका वास्तविक प्रभाव भी नष्ट हो जाता है। यह घटनाक्रम, न केवल उस समय के राजनीतिक परिदृश्य की चुनौती को दिखाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि साहित्यिक स्वातंत्र्य और विचारधारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कैसे की जानी चाहिए। 

पूरी रचना की भाषा सहज, प्रवाहमयी और सजीव है। संवादों के माध्यम से पात्रों की मानसिकता और पूरे प्रसंग की जटिलता को अत्यंत स्वाभाविक ढंग से उकेरा गया है। व्यंग्य और आत्मालोचन का संयमित प्रयोग रचना को एक तीखा लेकिन आत्मीय स्पर्श देता है। लेखक अपनी बात को बिना किसी भड़काऊ या आक्रामक भाषा के रखते हैं, जिससे पाठक स्वयं सोचना शुरू करता है। छोटे-छोटे विवरणों, जैसे तंबू का घेराव, मित्रों की बेचैनी, वरिष्ठ नेताओं का व्यवहार और अंत में पत्रकारों की टिप्पणी, के माध्यम से एक बड़े सामाजिक यथार्थ की तस्वीर खींची गई है। 

‘यशपाल’ शीर्षक केवल एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि स्वतंत्र चिंतन, रचनात्मक स्वायत्तता और वैचारिक साहस का प्रतीक बन जाता है। यशपाल यहाँ किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि उस साहित्यिक चेतना के प्रतीक हैं, जो किसी भी बंधन को अस्वीकार करती है और स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ी होती है। फणीश्वरनाथ रेणु इस संस्मरण के माध्यम से यह सिद्ध करते हैं कि सच्चा साहित्य वही है, जो मनुष्य की मुक्ति और उसकी अंतर्निहित स्वतंत्रता की आवाज़ बनता है, न कि किसी सत्ता या संगठन का मुखपत्र। 

कुल मिलाकर ‘यशपाल’ केवल एक संस्मरण नहीं, बल्कि एक गहरी वैचारिक टिप्पणी है। यह हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि साहित्यिक रचनाओं को राजनीतिक चश्मे से देखना न केवल साहित्य के साथ अन्याय है, बल्कि मानवता के व्यापक हितों के ख़िलाफ़ भी है। फणीश्वरनाथ रेणु ने अत्यंत आत्मीयता और तीखे विवेक के साथ यह रेखांकित किया है कि साहित्य का उद्देश्य सत्ता को संतुष्ट करना नहीं, बल्कि समाज की अंतरात्मा को जाग्रत करना है। यह रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जब साहित्य और विचारों की स्वतंत्रता नए-नए संकटों से गुज़र रही है। 

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