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सच्ची आज़ादी


मना रहे हैं आज़ादी, अँग्रेज़ों की भाषा में, 
मन में कई प्रश्न हैं, आज़ादी की आशा में, 
बड़ा हास्यास्पद है, भाषण इस भाषा में, 
गए वे देश से, पर अब भी है भाषा, नस में। 
 
आज़ादी के लिए लड़ने वाले सेनानियों ने, 
भारतेन्दु, हरिऔध, प्रेमचंद, माखनलाल ने, 
हिंदी से देश की धारा को जोड़ने वालों ने, 
होते यदि, तो आज की दुर्दशा देख आँसू बहाते वे। 
 
वे जेल की सलाखों में कई अरमान सँवारे थे, 
वे फाँसी के तख़्तों पर सपनों के मुस्कान लुटाए थे, 
वे रक्त की बूँदों से रचे थे, आज़ादी का सम्मान, 
उन वीरों की प्रतिध्वनि से गूँजा भारत का नाम। 
 
फिर क्यों भटकते हैं, हम परायी ज़ुबान में? 
क्यों ढूँढ़ते गौरव हम, औरों की पहचान में? 
कब समझोगे? मातृभाषा में ही है आत्मा की थाह। 
कब जानोगे? यही है, उन्नति का सुंदर तीव्र प्रवाह। 
 
स्वदेशी का नारा गूँजता है, अब भी, 
पर, विदेशी लहजे में बँधे हैं, आज भी, 
विचार हमारे हैं-भारतीय हर प्राण से, 
मगर शब्द निकलते हैं, पराए विधान से। 
 
नई पीढ़ी को दें, हम यह पैग़ाम, 
अपनी ही भाषा में है, सच्चा सम्मान, 
आज़ादी पूरी होगी तभी हर मायने में, 
जब बोलेगा भारत गर्व से अपने स्वर में। 

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