अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उड़ान

 

क़स्बे की गलियों में धूल उड़ रही थी। हवा के झोंकें से पत्ते अपने मंज़िल तक पहुँच रहे थे। चौपाल पर बैठे बूढ़े औरतों-मर्दों की ज़ुबान पर वही पुरानी बातें थीं—“लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाने का क्या फ़ायदा? दसवीं-बारहवीं के बाद ब्याह कर दो, यही ठीक है।” 

इन्हीं चर्चाओं के बीच पली-बढ़ी थी, पल्लवी। वह जानती थी कि उसके क़स्बे में लड़कियों का भविष्य अठारह साल की उम्र के बाद घर की चौखट तक ही सिमट जाता है। मगर उसके मन में एक अलग आग जल रही थी। वह आग, जो शायद हर ज़माने में हर लड़की में थी, पर समाज के ओले ने उसे बुझा दिया। मोबाइल पर जब उसने पहली बार देखा कि लड़कियाँ इलाहाबाद जाकर तैयारी कर रही हैं और बड़े-बड़े पदों पर पहुँचकर अपने परिवार का नाम रोशन कर रही हैं, तब से उसके भीतर भी सपना अंकुरित हो गया। 

पिता मज़दूरी करके घर चलाते थे। दसवीं पास करने के बाद पिता ने पल्लवी से कहा, “अब माँ का हाथ बँटा, घर का काम सीख ले। लड़कियों का यही धर्म है।” 

पिता की बातों को सुनकर पल्लवी दुखी हुई, परन्तु जो स्वप्न उसने देखा था, उसे इतनी आसानी से टूटना उसे स्वीकार न था। पल्लवी ने माँ के सामने आँसुओं के साथ कहा, “माँ, मैं पढ़ना चाहती हूँ। प्लीज, पिताजी से कहो कि मुझे बारहवीं तक पढ़ने दें।” 

माँ पिघल गईं और पिता को मनाने में मदद की। पिता शिक्षा के विरोधी नहीं थे, मगर समाज की बातें उन्हें डराती थीं। साथी मज़दूर कहते, “लड़कियाँ पढ़कर हाथ से निकल जाती हैं।” 

ख़ैर माँ और पल्लवी की जीत हुई और उसे आगे पढ़ने की अनुमति मिल गई। फिर पल्लवी ने दो साल में बारहवीं की पढ़ाई पूरी की। जिस यूट्यूब को लोग बच्चों के बिगड़ने की वजह मानते थे, वही उसके लिए उम्मीद की रोशनी बना। खान सर और दिव्यकीर्ति सर के विडियो देखकर उसके सपने और मज़बूत होते गए। बारहवीं के बाद पिता उसकी शादी कर गंगा स्नान करना चाहते थे, पर पल्लवी ने रोकर फिर से पिता को मना लिया। उसने बनारस के काशी विद्यापीठ में दाख़िला लिया और बी.ए. करते-करते लोक सेवा की तैयारी शुरू कर दी। धीरे-धीरे वह पढ़ाई में डूबती चली गई। रिश्तेदार ताने देते रहे—

“लड़की ज़्यादा पढ़ गई, तो घर का नाम डूब जाएगा।” 

“शहर जाकर क्या करेगी? औरत की जगह घर में है, बाहर के लिए मर्द काफ़ी हैं।” 

पल्लवी यह सब अनसुना करती रही क्योंकि पुडुकोट्टई की लड़कियों के जुनून और उनपर कसी फब्तियों से वह परिचित हो चुकी थी। वह समझ चुकी थी कि दुनिया असफलता के पहले कैसी होती है और सफलता के बाद कैसी हो जाती है। दुनिया के ताने सुनते-सुनते माँ-बाप ने भी कान बंद कर लिए थे क्योंकि दर्द सहते-सहते एक समय ऐसा भी आता है, जब मनुष्य से मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है। 

आख़िरकार, एक दिन पल्लवी बी.ए. के बाद अपना सामान बाँधकर तैयारी के लिए इलाहाबाद चली गई। क़स्बे वाले कहते रह गए—“लड़की बिगड़ गई है।” 

पल्लवी मुस्कराकर मन में जवाब देकर चल दी—“बिगड़ी नहीं हूँ, बस अपने सपनों को सँवार रही हूँ।” 

तीन साल तक उसने दिन-रात मेहनत की। कई बार असफल हुई, कई बार टूटने के कगार पर पहुँची, लेकिन हर बार उसने अपने भीतर की आवाज़ सुनी। 

“जिनके पंखों में उड़ान होती है, वे अपना आसमान ख़ुद बना लेते हैं, नहीं तो विशाल आसमान भयावह तो है ही।” 

और वह सचमुच उड़ गई। तीन साल बाद वही पल्लवी मिर्जापुर की सहायक कलेक्टर बनकर लौटी। पूरे क़स्बे में ढोल-नगाड़े बज उठे, गलियों में फूलों की बारिश हुई और हर चेहरे पर गर्व की चमक थी। वही लोग, जिन्होंने कभी ताने कसे थे, आज उसी पल्लवी को “हमारे क़स्बे की बेटी” कहकर सीना चौड़ा किए घूम रहे थे। 

पल्लवी के माता-पिता के घर पर भीड़ उमड़ आई थी। पिता की आँखों में आँसू थे, पर इन आँसुओं में वर्षों की मेहनत, अपमान और संघर्ष का सुकून था। माँ के कान तानों से थक चुके थे, पर उनकी मुस्कान में वह उजाला था, जो किसी दीपक में भी नहीं था। पिता ने आसमान की ओर देखा और धीमे स्वर में कहा, “आज मेरी बेटी ने न सिर्फ़ हमारे घर की दीवारें रोशन कीं, बल्कि पूरे क़स्बे के अँधेरों को मिटा दिया।” 

किसी ने उनसे कहा, “भाई साहब, आपकी बेटी ने तो कमाल कर दिया!” 

पिता ने आसमान की ओर देखा और धीमे से मुस्कराए, “यह दुनिया ऐसी ही है, सपनों को रोकती है . . . मगर जब सपने सच हो जाते हैं, तो वही लोग तालियाँ भी बजाते हैं।” 

माँ ने पल्लवी के सिर पर हाथ रखकर कहा, “हमने तो बस इतना सपना देखा था कि हमारी बेटी पढ़-लिख जाए, पर उसने तो हमारे सपनों को पंख दे दिए।” 

अब क़स्बे की हर लड़की के होंठों पर एक ही वाक्य था—“अगर पल्लवी कर सकती है, तो हम भी कर सकते हैं।” 

पल्लवी मुस्कुराई और उसकी यह मुस्कान सिर्फ़ सफलता की नहीं थी बल्कि एक पूरे समाज की सोच पर विजय की थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 तो ऽ . . .
|

  सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

साहित्यिक आलेख

लघुकथा

पुस्तक समीक्षा

रचना समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं